Friday 27 February 2009

ताकि प्यास रहें बरक़रार

हमारी परम्परा में नाद ब्रह्म है और जब उसके साथ दर्शन हो तो बनता है वह अलौकिक होगा....उसकी अनुभूति शब्दों से परे होगी....गूंगे के गुड की तरह....यहाँ हम एक फिल्मी क़व्वाली की चर्चा कर रहें हैं....सुर-ताल के साथ शब्दों की संगत से जो बेहतर बनता है. वह सब बरसात की रात की क़व्वाली 'ना तो कारवां की तलाश है, ना तो हमसफ़र की तलाश है' में मिल जाएगा.... इसे आत्मस्थ होकर सुनने से जो अहसास होता है वह भी अलौकिक.....शायद स्वर्गिक या शायद....शब्द नहीं है....चुक गए है...इसे दर्शन में संप्रेषण की समस्या कहते है...पश्चिम में खासकर कार्ल जेस्पेर्स अनुभूतिगत आदान-प्रदान को मानव होने की खास जरुरत मानते है, लेकिन इसकी सीमाओं से हम इंकार नहीं कर सकते है...फिर जिस तीव्रता, स्तर और मात्रा में मुझे कोई अहसास हुआ है, उसका मापदंड क्या है? अहसास तो व्यक्ति-दर-व्यक्ति अलग होता जाता है, खैर फिलहाल दर्शन नहीं संगीत और अध्यात्मिक अनुभूति की बात हो रही है. मन्ना डे के आलाप के साथ शुरू हुई इस क़व्वाली में सिर्फ़ आराधक और आराध्य ही है, या दुनियावी और श्रृंगारिक दृष्टि से आशिक और माशूक....लेकिन जैसे-जैसे यह आगे बढती है आशिक और माशूक कहीं गुम हो जाते है, फिर जो बचता है वह सिर्फ़ और ब्रह्म और पिंड होता है…संसारिकता कहीं गुम हो जाती है और रूहानियत का जन्म होता है, रेडियो के ज़माने में 'ना तो कारवां की तलाश है' और 'ये इश्क इश्क है इश्क इश्क' दो अलग-अलग कम्पोजीशन के तौर पर सुनी और पहचानी थी...क्योंकि इसकी लम्बाई औसत गानों से ज्यादा है और इस माध्यम की अपनी सीमाएं....तो ना तो कारवां की तलाश है ना तो हमसफ़र की तलाश है.....फिर मंजिल तो साफ़ है, एकांतिकता की दरकार है....मेरे शौके खाना ख़राब को तेरी रहगुजर की तलाश है....रास्ते की तलाश है और वो भी अकले.....अकले होने का कोई गम नहीं, बल्कि चाहत है....वो तो सिर्फ़ प्रेम में ही सम्भव है, आखिर कबीर ने भी तो है की प्रेम गली अति साकरी या में दो ना समाही, जब में था तब हरि नाही, अब हरि है मैं नाहीं...जिस रास्ते से मैं भी नहीं गुजर सकता, उसमे कोई और कैसे साथ चल सकता है?फिर आशा का मद्धम आलाप से प्रवेश करना...मेरे नामुराद जूनून का है इलाज कोई तो मौत है....किसी भी तरह के इस दुःख से निजात की ख्वाहिश...तेरा इश्क है मेरी आरजू, तेरा इश्क है मेरी आबरू....तेरा इश्क में कैसे छोड़ दूँ मेरी उम्र भर की तलाश है....यहाँ तक तो पकी उम्र में ही पहुँचा जा सकता है, क्योंकि इस जूनून तक....दिल इश्क, जिस्म इश्क और जान इश्क है, ईमान की जो पूछो तो ईमान इश्क है.... तो फिर बचा क्या?यहाँ तक तो सब कुछ चलता है, लेकिन जैसे ही क़व्वाली का दूसरा हिस्सा 'ये इश्क इश्क है इश्क इश्क है' शुरू होता है सुफीत्व का आविर्भाव होता है और हम एक सर्वथा नई भावभूमि पर आ खड़े होते है....यहाँ कुछ भी नहीं होता 'नथिंगनेस' भी नहीं क्योंकि इसका अस्तित्व भी 'थिंग' होने के बाद की अवस्था है....यहाँ अतीत के बाद का वर्तमान है...यहाँ न काल है न काल का अहसास......सिर्फ़ नाद है....और है ब्रह्म की अनुभूति ...जमाना नहीं और अहसासे जमाना तक नहीं, यहाँ तो शमन होने लगता है कबीर वाले 'मैं' का, जो धीरे-धीरे गल रहा है...पिघल रहा है.....सहर तक सबका है अंजाम जल कर खाक हो जाना.... एक और सच मृत्यु...चाहे कोई भी हो इससे निजात नहीं है. क़व्वाली में इश्क के फलसफे के गिरह खुलने लगती है....इश्क आजाद है.....हिंदू ना मुसलमान है इश्क....आप की धर्म है और आप ही ईमान है इश्क है....एक चेतावनी.....बहुत कठिन है डगर पनघट की.....उसका जवाब.....जब-जब कृष्ण की बंसी बाजी निकली राधा सज के जान अजान कम ध्यान भुला के लोक लाज को तज के...... एक सी ताल पर जूनून रगों नें दौड़ने लगता है....सप्तक तक जाता सुर..... कहता है कि ये कायनात इश्क है और जान इश्क है....अंत में इश्क की इन्तहा....खाक को बुत और बुत को देवता करता है इश्क इन्तहा ये है कि बन्दे को खुदा करता है इश्क....फिर कबीर तू तू करती तू भई मुझमे रहीं ना मैं.....यूँ फ़िल्म में ये रोशन की कम्पोजीशन है लेकिन असल में ये उनके गुरु भाई फ़तेह अली खान की रचना है....अंत तक आते आते भावनाओं कम अतिरेक और आंसू....आख़िर दुःख और खुशी के अतिरेक के साथ भावनाओं के अतिरेक की अभिव्यक्ति भी तो ये ही करते है....आनंद के समंदर में पुरी तरह डूबे हुए....शब्द खत्म हुए....हाँ एक प्यास बनायें रखें ......घूंट घूंट पिए.....क्योंकि तृप्ति से ज्यादा आनंददायक है प्यास....जय हो के ज़माने में सुने इश्क की महिमा और बताएं......

Saturday 7 February 2009

फिर सवालों का जंगल है..




दिमाग के घर में दीवार नहीं है.... इसलिए विचारों का पंछी कभी भी बेधड़क आता और जाता रहता है....मायूसी की बात ये है कि समय और सब्र के वो दरख्त ठुठ हो गए है जिन पर कभी अहसासों के पछियों के घोंसले हुआ करते थे....फिर भी कभी-कभी ये पंछी अपने माजी से रूबरू होने के लिए उदासी की गठरी उठाये चले आते हैं.....आज दोपहर भी वह आकर उसी ठूंठ पर अपनी उदासी की गठरी लिए आ बैठा.....सूरज तप रहा था और वह जोगी की तरह ऑंखें मूंदे तप की मुद्रा में बैठा रहा.... धूप ने उसे स्याह कर दिया था....इस स्याही ने उसकी गठरी बहुत भारी कर दी और वह उसे वहीं छोड़ कर उड़ गया....मतलब उसके अवसाद की गठरी मेरे दिमाग के घर में अब पड़ी हुई है.... वह अपना अवसाद मेरे लिए छोड़ गया है....ये अवसाद छूत की बीमारी है और इसका संक्रमण मुझे भी हो गया....किसी शायर ने क्या खूब लिखा है कि---- ना मिला कर उदास लोगों से/ हुस्न तेरा बिखर ना जाए कहीं.....तो अब ये अवसाद फिलहाल मेरा मेहमान है....यूँ ये बिन बुलाया मेहमान ही रहता है.... अक्सर किसी न किसी बहाने से आ ही जाता है ... इन दिनों फिर से अजीब से सवालों ने आ घेरा है....अपनी गठरी छोड़ कर पंछी तो उड़ गया लेकिन उसमें से अवसाद की केंचुल हमारे हाथ रह गई..... अवसाद दौड़ का हिस्सा होने की.... दौड़ते हुए कण-कण क्षरण होते देखने का....इस अनजानी, अनचाही और अपरिचित दौड़ में कई पड़ाव और मंजिलें है.... और हर पड़ाव पर पहुँच कर यूँ लगता है कि कहीं पीछे कुछ रह गया है.... हर मंजिल पर पहुँच कर एक रिक्तता हमारा इंतजार करती है...भोतिक उपलब्धि कहीं न कहीं हमें खोखला कर देती है ...महत्वाकांक्षा अपनी तरफ़ आकर्षित करती है तो जीवन की प्रयोजनहीनता का विचार अपनी और बकौल ग़ालिब --- ईमां मुझे रोके है तो खीचें है मुझे कुफ्र, काबा मेरे पीछे है कलिसा मेरे आगे.......

Thursday 5 February 2009

सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है?

ना जाने क्या लावे सा बहता है....? एक बेचेनी.....एक छटपटाहट..... सुबह शाम एक उलझन .....लगातार एक जलन.... जीवन के रूटीन हो जाने के बाद की एकरसता ......सपनों को भोग लेने के बाद की नीरसता.... यदि सपनें टूटते है तो कम-से-कम उसकी किरचें तो होती है...लेकिन सपने पुरे होने के बाद....होता है खालीपन.....जीवन में क्या सच है....कमी या पूरापन....फिर पूरापन क्या है? आज जो पुरा लग रहा है क्या वो कल भी इतना ही पुरा लगेगा....या कल फिर से नई दौड़ होगी..? कभी-कभी यूँ लगता है कि जीवन में एक दर्द .....एक कमी...एक अभाव जरुरी है....कोई आकर्षण तो हो.... खुशी के बाद जो एक रीतापन होता है वह कमी के बाद नहीं होता है.... तकलीफ तो हमेशा कुछ होने का अहसास कराती है... खुशी की तरह नहीं कि आती है और रूटीन बन कर रह जाती है...दर्द से निजात के लिए लगातार के प्रयास होते है.... उससे निकलने के लिए तरह-तरह के उपाय.... हर दिन कि नवीनता....एक नया दिन ख़ुद से लड़ने...घायल होने और हार जाने के बाद फिर से खड़ा होने की ताकत जुटाने का न टूटने वाला क्रम.....सह कर सीखने और जीवन को सम्रद्ध करने और करते रहने का जूनून....तेज प्यास..... और तृप्ति के खवाब....लगातार चलती जद्दोजहद.....तभी तो अज्ञेय ने लिखा है कि दुःख माँजता है... और यकीनन वह माँजता है.... चमका कर सोना कर देता है.... और खुशी उथला कर देती है.... शायद इसीलिए कहा गया है कि दुःख के अहसास के बिना आई खुशी आदमी को दीमक की तरह खोखला कर देता है... सोचें कि उस राजा की तरह जिसे पैसों की इतनी हवस थी कि उसने इसके लिए तप किया.... और फिर उसे वरदान मिला कि वह जिस चीज पर हाथ रख देगा वह सोना हो जायेगी.....हमारे भी साथ हो जाए कि हम जो चाहे वह मिल जाए तो...... वक्ती तौर पर तो उपलब्धि होगी.... खुशी का अहसास होगा लेकिन.... फिर....? जीवन से सारे आकर्षण....सारी जद्दोजहद....प्रयास...उमंग... उत्साह सब कुछ काफूर हो जाएगा। जीवन में एक ही रंग होगा... एक ही सा अहसास और अपनी भाषा में कहें तो बोरियत होगी और होगी ऊब..... शायद तभी तो धर्मवीर भारती और शिवाजी सावंत जैसे विद्वानों ने अपूर्णता को जीवन की जरुरत माना है। तो संघर्ष है तो गति है....जीवन है....प्रवाह.....सृजन....रस....और अन्त में दुनिया है..... फिर...अधूरेपन को पुरे मन से सलाम....जीवन को रसमय और आकर्षक बनने के लिए....है या नहीं? आप बताएं