Tuesday 27 July 2010

यूटोपिया से आगे....




ऐसा आजकल हर दिन होता है। यहाँ ई-मेल एक्सेस करने, फेसबुक पर मैसेजिंग करने और ब्लॉगिंग करने का समय होता है और वो आती जाती है, उसे देखते ही कहीं, कुछ सिकुड़ता जाता है। वो आती है, पंखा बंद करती है, कमरे की झाड़ू लगाती है और निकलते हुए पंखा फिर से चालू कर देती है। वो जितने समय कमरे में रहती है, काम से इत्तर बहुत सारा कुछ अंदर चलता रहता है, शायद सारा ध्यान उसके काम की तरफ लगा रहा है, देखना तो कुछ नहीं होता है, लेकिन कहीं अंदर बहुत सारा कुछ सरसराता रहता है। उसने इसी साल दसवीं की परीक्षा पास की और ग्यारहवीं में आई हैं। जब उसने अपने रिजल्ट की बात बताई तो पता नहीं कैसे कह बैठे कि – खूब मन लगा के पढ़ाई करना, हमारे पास बस यही एक चीज है।
फिर खुद ही सोचा, हमारे पास का क्या मतलब था? अभी इसकी तह खुल नहीं रही है, कभी खुलेगी तब इस पर बात होगी। फिलहाल तो उसकी उपस्थिति और कमरे में पसरी असहजता की बात....।
एक उम्र होती है, जब सारी ‘अच्छी’ बातें आकर्षित करती है। और इस बात पर आश्चर्य होता है कि क्यों दुनिया इतनी अजीब है? तब तो खऱाब ही कहा जाता था, लेकिन अब समझदार हो गए हैं ना! तो शब्द को थोड़ा ‘मॉडरेट’ कर लिया है, अजीब... ठीक भी है न! ना अच्छा न बुरा, बस अजीब! क्यों नहीं सब कुछ को सबसे अच्छे तरीके से जिया जा सकता है? कहा ना! वो उम्र ही ऐसी होती है, क्योंकि हमें खुद कुछ करना नहीं होता है, इसलिए हम सपने देखते हैं, और उसी में जीते भी है... एक मालवी कहावत है कि यदि सपने में लड्डू देखे तो फिर देसी घी के क्यों नहीं... तो मामला कुछ ऐसा ही। यूटोपिया.....इसे ही तो कहा जाता है ना....!
तो उस दौर में प्लेटो का आदर्श, दार्शनिक राजा और सैनिक शिक्षा की वकालत करती उसकी शिक्षा व्यवस्था तो भाती थीं, लेकिन उनके परिवार की घिचपिच ने सब कुछ पर पानी फेर दिया, फिर अरस्तू आ गए.... वो थोड़े दुनियादार आदमी थे, सब कुछ ठीक लगा, लेकिन यहाँ भी मामला अटका कि वे दासों की परंपरा को सही मानते थे। दासों के बारे में वे बहुत सारी मानवीय बातें करते हैं, वे उन्हें इंसान भी मानते हैं, लेकिन फिर भी वे जरूरी मानते हैं। तो लगा करता था कि आखिर यूनानी खून है.... दासों के बिना कैसे काम करेगा। फिर वही यूटोपिया... हाँ मूर का यूटोपिया.... उस उम्र के सबसे करीब होता है.... आज ये सब इसलिए याद आ रहा है कि एक तरफ हम पैर फैलाए अपने सिस्टम पर गिटिरपिटिर कर रहे होते हैं और सोनू.... वही... काम करने वाली लड़की, अपना काम करती हैं। कहीं हमें अपने अंदर अरस्तू का जिंदा होना महसूस होता है, हम भी तो वही है।
ठीक-ठीक दासों का समर्थन नहीं हैं, भई जमाना भी बदला है और हाँ हम भी तो बदले हैं कहीं। हम खुद को ही जवाब देते हैं - वो जो काम करती है, उसका पैसा पाती है। कहीं तो ये भी उठता है कि हम भी तो दास ही है... फिर अरस्तू भी कहाँ गलत कहते थे? वे तो कहते थे, कि जो जिस काम में माहिर हो, उसे वही करना चाहिए। यदि हम बुद्धि के काम ठीक से कर सकते हैं तो हमें वो और यदि वो.... हाँ सोनू.... घर के कामों में दक्ष है तो वो वही करे....इससे घर के कामों में हम जितना समय देते हैं, उतना हम समाज की ‘भलाई’ के काम में लगाए.... एक तरह से वो हमारी सहयोगी है.... आ गए न हम भी वहीं। हमने धीरे से पतली गली निकाली, अर्थशास्त्र में इसे श्रम विभाजन कहते हैं। अरे वाह! कैसी तीक्ष्ण बुद्धि पाई है....

Tuesday 13 July 2010

भूली-बिसरी किताब-सा हाथ आया सुख



ऐसा नहीं होता है, लेकिन कल रात ऐसा हुआ। हर दिन का वही क्रम - रात के खाने के बाद टहलना, कभी भी इसे अलग नहीं पाया... कभी-कभी तो टहलने वाली सड़क सिर्फ इसलिए बदल दी जाती है कि हर दिन इसी सड़क पर टहलते हैं, कुछ चेंज हो ..... कल रात अलग यूँ था कि अपने मोबाइल में म्यूजिक को नए सिर से फॉर्मेट किया था और दिन भर उसे सुनने का मौका नहीं मिला, सो रात को टहलते हुए साथ ले लिया। नई बस रही सुनसान कॉलोनी में इक्का-दुक्का टिमटिमाती ट्यूब की रोशनी.... हालाँकि आषाढ़ के मध्य में आ पहुँचे हैं और बारिश की आस है फिर भी साफ आसमान पर झिलमिलाते तारे है, आश्चर्य है कि बुरे नहीं लग रहे हैं.... हल्की-हल्की हवा और बहुत पहले सुनी हुई गज़लें..... फिर कुछ इस दिल को बेकरारी है..... कहीं कुछ मीठा सा छूकर गुजर गया... अपने-अपने गुजरे दिन को चुभलाते हुए भूली-बिसरी गज़लों के साथ जगा था वो एहसास..... बड़ा अजबनी.... बहुत पराया.... फिर भी भला-सा लगने वाला।
कहीं पढ़ा था कि – मन अपने सामने भी खुद को नहीं खोलता है।
अपने अंदर उगी यह अजनबीयत उसी मन की नई-नई खुलती पर्तों का नतीजा है। क्या और कितना कुछ होता है, मन के भीतर, लगातार खोलते चले जाने के बाद भी खुलता ही चला जा रहा है। कुछ इसी तरह का अनुभव है इन दिनों... न अतीत है, न भविष्य.... आज भी हवा के पंखों पर सवार.... हल्का और ताजा...। न गुजरे हुए को लेकर कोई कड़वाहट, असंतोष और अभाव, न आने वाले पर किसी तरह की ख़्वाहिश, सपना या महत्वाकांक्षा का बोझ .... न आज के लिए कोई दौड़.... न कुछ पाना चाहना और न कुछ छूट जाने का दुख..... न दौड़.... न हार.... न जीत, न कुछ करना और न ही इस नहीं कर पाने को लेकर कोई मलाल.... कुछ भी नहीं है, फिर भी कुछ है, कहता-सा, जीता-सा, मुस्कुराता-सा कुछ.... कुछ नहीं करते, पाते, सोचते-विचारते, पढ़ते-सुनते हुए भी भरा-भरा अहसास... शायद ये जीवन में पहली बार महसूस हुआ है।
मजदूरों-से हैं, जब तक पत्थर नहीं तोड़ लें, तब तक न तो नींद आए न भूख लगे... ठीक वैसे ही, जब तक खुद को खुरचे नहीं, थोड़ा खून निकाले, थोड़े आँसू हो.. तब जाकर लगे कि हम जिंदा है, लेकिन इन दिनों अचानक से अपने अंदर उगी इस अजनबीयत का क्या करें ये समझ नहीं आ रहा है। बहुत सालों बाद खुद को इतना निर्द्वंद्व और इतना हल्का पाया..... प्रवाह का हिस्सा होने के बाद भी किसी तरह की बेचैनी या छटपटाहट नहीं... कोई दुख, बेचैनी, छटपटाहट या कोई निरीहता भी नहीं.... खुद को इतने परायेपन के साथ देख और भोग रहे हैं, जैसे ये हम न हैं कोई ओर है। हाँ ये सुख है, इसी तरह से आता है, जैसे कोई गुम हो चुकी पुरानी पसंदीदा किताब या फिर कहीं अटाले में पड़ी मिले कोई बहुमूल्य सीडी... बस यूँ ही आया है ये... और आश्चर्य ये है कि न आँसू है, न बेचैनी और न ही छटपटाहट... कुछ यूँ कि न शब्द मिले न भाव... बस है.... कुछ बहा ले जाता-सा, सुख है।

Thursday 1 July 2010

अफ्रीका के महासागर पर जूही के फूल



जेठ की अंतिम रात और आषाढ़ के पहले सूर्योदय के बीच का वक़्फ़ा…. बादल अल्हड़ हो रहे हैं इसलिए जिम्मेदारी कहीं नहीं नजर आ रही है। वे आसमान पर उधम तो मचाते हैं, बरसते नहीं है। मौसम विभाग का हमेशा का रोना है.... अभी आया, बस बरसेगा और अगले ही दिन कहना शुरू कर देता हैं कि कमजोर हो गया है, तो मानसून तो जैसे छुपाछाई का खेल खेल रहा है। हाँ तो जेठ की उस गुजरती रात के जालों में से उलझा शेर – सुबह होती है, शाम होती है, जिंदगी यूँ ही तमाम होती है – टप्प से गिरा और नींद का शीशा झनझना कर टूट गया। दिमाग के गोदाम में पड़े जंक ने यूँ भी बेचैन किया हुआ है, ऐसे में गहरी नींद का रात के ऐन बीचोंबीच टूट जाना...... जैसे खुद का बेवजह, बेकार हो जाना....। गहरी काली और निस्तब्ध रात के बीच आँखों के बल्बों को बेआवाज टिमटिमाने की सजा.... विचारों का रेला गोदाम की दरारों से बाहर बहने लगा तो फिर नींद के आने के लिए जगह ही नहीं बची। कितना कुछ ठूँसा हुआ है, इसमें.... कोई ओर-छोर ही नहीं है। सुबह से रात तक न जाने कितना अटाला हम जमा करते हैं बिना ये सोचे कि इसकी जरूरत कहाँ और कितनी है?
आखिर पता नहीं किस क्षण नींद जिंदगी की तरह अपना रास्ता बनाकर पहुँच ही गई। कहाँ तो अलस्सुबह उठ जाने की योजना थी और कहाँ चाय के कप और सुबह के अखबार के साथ उठाए गए तो घड़ी ने नौ बजा दिए थे...... ओफ! फिर वही बेकार के एक्सप्रेशंस, जिनके होने का कोई मतलब नहीं था.....लेकिन थे। खैर, फिर से जंक जमा करने का सामान था और हम थे। नजरें टिकी थी अखबार के आखिरी पन्ने की उस रोचक खबर पर कि अफ्रीका में महासागर के निशान मिले हैं...... खबर का आखिरी हिस्सा था और पतिदेव ने बाहर से आकर धप्प से एक अंजुरी भर जूही के फूल उस खबर पर बिखरा दिए थे.... वाह क्या इत्तफ़ाक है!
आखिरी हिस्सा यूँ था कि महासागर के उभरने के निशान तो हैं, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में पूरे 1 करोड़ साल लगेंगे..... अब कौन जीता है तेरी जुल्फ़ के सर होने तक......? लेकिन जूही के छोटे-छोटे, नाजुक फूल तो आज के ही हैं.... आज के ही लिए हैं.....। तो यूँ ही एक विचार आया कि इस क्षण, इस घड़ी, इस जगह को बिसराकर हम भूत-भविष्य, पृथ्वी-अंतरिक्ष की चिंता कर रहे हैं, लेकिन कैसे चूक गए कि मानसून की बारिश न होने के बाद भी कितना कुछ हमारे आसपास घट रहा है..... कैसे चूक गए कि गुलमोहर अब भी अपने लाल भड़क छाते को ताने हर आते-जाते को लुभा रहा है, कि नीम में आई कोंपलें कैसे झूमर की तरह हवा में लहरा रही है, कि कैसे सागौन तीन मंजिला मकान की छत तक आ पहुँचा और कैसे जूही अपनी सुवास का बंदनवार सजाए, हर आने-जाने वाले को एकबारगी पलटकर देखने के लिए मजबूर कर रही है, कैसे छूट जाता है, ये सब और हम उलझे रहते हैं कि जी-20 में क्या हुआ? फीफा में क्या हो रहा है? खाप पंचायतें क्या कर रही हैं? और ऑनर किलिंग पर कोई भी नेता क्यों नहीं बोल रहा है? पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने से हमारा घरेलू बजट कितना गड़बड़ाएगा और रसोई गैस की खपत को कम करने के लिए क्या-क्या उपाय करने की जरूरत है? अफगानिस्तान से नाटो सेनाओं के चले जाने के बाद क्या होगा? नक्सली समस्य़ा को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल क्यों नहीं हैं और क्यों बेकसूर लोगों की जान इनकी आपसी खींचतान में जा रही है? औऱ पाकिस्तान में कब लोकतंत्र जैसा लोकतंत्र आएगा? कैसे ये सब कुछ याद रहता है, बस वही नहीं याद रहता है, जो हमारे बहुत पास, आँखों की ज़द, हथेलियों की पहुँच में उगता-मुरझाता, जागता-मुस्कुराता रहता है, क्यों नहीं दिखता, याद रहता, आह्लादित और तरंगित करता हमें?..... क्या ये वाकई हमारी संवेदनाओं के मरने की शुरुआत है?