Wednesday 15 September 2010

अध्यात्म... मतलब घर लौटना...!



फूलते काँस देखकर धक से रह गए... अभी तक बारिश का फेयरवेल तो हुआ नहीं, तो फिर प्रकृति ऐसे कैसे शरद का संकेत दे सकती है? लेकिन भूल गए कि प्रकृति को किसी नियम, अनुशासन, तर्क और अनुभवों में बाँधा नहीं जा सकता है, या तो ऐसा है कि उसका अपना अनुशासन है, जिस तक हमारी पहुँच नहीं है या फिर यूँ कहा जा सकता है कि वो हर नियम और अनुशासन से मुक्त है, स्वतंत्र औऱ स्वछंद है... यही सोचते हुए दफ्तर पहुँचे, पार्किंग से बिल्डिंग तक पहुँचते हुए ही महसूस हो गया कि चाहे भादौ चल रहा है, लेकिन क्वांर की आँच पहुँचने लगी है, हिरण तक को काला कर देने वाली धूप का सिलसिला शुरू होने वाला है और ये महज उसकी आहट है।
पहुँचते ही रिसेप्शन से सूचना मिली कि बुक स्टॉल से आपके लिए फोन था, आपने जो मँगवाया है, वो आ गया है।
ठीक है...
राजेश कई बार कह चुके हैं कि तुम्हें जो भी मैग्जिन पढ़नी है, वो तुम सब्सक्राइब क्यों नहीं कर लेती, बेकार में ऑफ रूट जाकर खरीदती हो... समय बर्बाद होता है। लेकिन पता नहीं क्या ऐसा है जो मुझे उस पर अमल करने से रोकता है। लौटते हुए बुक स्टॉल पर कई तरह की पत्रिकाएँ खरीदी... फिर नजर चली गई ओशो टाइम्स पर... ये भी दे दें। हर बार तो नहीं खरीदती हूँ, लेकिन कुछ चार-पाँच महीनों के बाद फिर इसे पढ़ने का मन हुआ।
इन पिछले महीनों में अखबारों के अतिरिक्त तथ्य, तर्क, न्यूज और व्यूव्ज, फिक्शन और रिसर्च, कहानी, कविता, ब्लॉग, अनूदित और ओरिजनल हर विधा को पढ़ने का क्रम चल रहा है, फिर भी लगता है कि कुछ ऐसा है जो छूटा हुआ है। लगातार विचार, तथ्य, तर्क और सूचनाएँ जमा करते-करते ऊब होने लगी थी, कुछ टेस्ट चेंज होना चाहिए... शायद यही वजह हो कि एक बार फिर ओशो टाइम्स... ऐसा हर बार थोड़े अनियत अंतराल से होता आ रहा है। आज जब इसके कारण ढूँढने बैठी तो स्मृतियों के साथ ही ‘भूत’ हुए एहसासों को भी खंगाला और पाया कि यायावरी अच्छी तो लगती है, लेकिन घर आखिरकार घर होता है। देश-विदेश घुमो, पहाड़, समुद्र, जंगल, खंडहर, इमारत, सड़कें, मॉल देखो लेकिन आखिरकार घर लौटने का जो अहसास है, वो इन सबसे अलग है, बहुत उत्साहित करने वाला, ऊष्मा और अपनेपन से भरा...। दुनिया भर की खूबसूरती एक तरफ और अपना घर एक तरफ...। यूँ ही तो नहीं कहा गया है कि अपना घर कैसा भी हो स्वर्ग होता है... सुरक्षित... ऊष्मा से भरपूर, सुविधाजनक और अपनेपन से लबरेज़... मतलब...! मतलब कि अध्यात्म को पढ़ना ठीक वैसा ही है, जैसे खूब सारी यायावरी के बाद अपने घर लौटना... अपने पहचाने परिवेश, अपनी दुनिया, अपने व्यक्तिगत सुख, शांति, सुविधा, सुरक्षा, गर्माहट और अपनेपन के दायरे में आ जाना... जानने के लिए घुमना जरूरी है तो मनन के लिए घर लौटना भी तो जरूरी है। अपने अंदर के महीन तंतुओं, रेशों... को देखना, समझना, सहलाना... पहचानना भी तो जरूरी है। वो सब जो प्रकृतितः इंसानों को हासिल है, लेकिन जिसे दुनिया की दौड़-भाग ने छीन लिया है, उस तक पहुँचना सुकून देता है, ठीक वैसे ही, जैसे लंबे सफ़र से घर लौटकर मिलता है... नहीं!

Sunday 5 September 2010

कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण और मौला, मौला, मौला, मेरे मौला


10-12 दिन लंबे चले तनाव के खत्म होने के अगले ही दिन इत्तफाक से कृष्ण जन्माष्टमी की छुट्टी पड़ी, अब अखबार वालों को तो छुट्टी होती नहीं, लेकिन उस तनाव के दौरान की गई भाग-दौड़ के बाद शरीर को तो कम, मन को आराम की तलब ज्यादा महसूस हुई, फिर घर में तो छुट्टी थी ही, सो एक छुट्टी और...। सुबह नींद खुली तो आसपास का बिखरापन, बेतरतीबी नजर आई... सोचा छुट्टी का सदुपयोग किया जाए और लग गए... उसी बिखरेपन से मिली एक नायाब कैसेट... अवसर के अनुकूल वृंदावन... जन्माष्टमी, जसराज जी, वृंदावन और कृष्ण.... कैसेट चल रही थी थोड़ी देर बस ‘होने’ का मन करने लगा, सो काम बीच में छोड़कर आँखें मूँद ली। फिर काफी सारा काम समेट लिया गया था। कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण भोर ही मुख बोलो...कृष्ण, कृष्ण बोलो...। बहुत सारे साल वैष्णवी असहिष्णुता से चिढ़ की वजह से कृष्ण से भी अनबन रही, लेकिन समझदारी की दहलीज पर पहुँचते-पहुँचते जब कृष्ण के चरित्र को बहुत थोड़ा जाना तो उसकी दिव्यता और साधारणता दोनों ने ही आकर्षित किया... लगा कि ये क्षुद्रताएँ तो हमारी हैं, यदि कृष्ण हुए तो वे तो उन सबसे परे हैं... उनका हिंदू धर्म या फिर वैष्णव सम्प्रदाय से सूत भर भी नाता नहीं है, जयवंती तोड़ी का आखिरी हिस्सा कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण का जाप शुरू हो गया था... विज्ञान क्या कहता है पता नहीं, लेकिन आँखें मूँदे हुए महसूस हुआ कि शायद हमारी आत्मा ब्रह्म के गुरुत्वाकर्षण का शिकार हो गई है... तर्क और भावना से अलग, दिखाई देने वाली दुनिया से दूर कहीं ओर हैं और शायद हम हैं ही नहीं... राँझा, राँझा करती आपे राँझा होई... पहली बार हीर के इन शब्दों को परखा.... शायद यही वो पराकाष्ठा है, जिसे हीर ने पाया, वो उसे बनाए रख पाई, हम दुनियादार हैं, तो खट से अलग हो जाएँगें, लेकिन अभी है।
दोपहर के खाने के बाद किसी चैनल पर म्यूजिक का कोई प्रोग्राम देख रहे थे। एक लड़की गा रही थी... मौला, मौला, मौला मेरे मौला... दरारें-दरारें है माथे पे मौला, मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला... मेरे मौला.... दलेर मेंहदी जो जज थे उठ कर आए और तान मिलाई... फिर से मौला, मौला, मौला का वैसा ही जाप... फिर से वही अनुभव...।
लगा नहीं कि मौला और कृष्ण के जाप का कोई अलग-अलग असर होता होगा...? कोई भी जाप करो... असर एक-सा ही होता है, तो फिर ये जो झगड़े हैं, वो क्या हैं? नहीं ये सहिष्णुता का गान नहीं है, ये महज एक जिज्ञासा है... क्या ये असर संगीत का है? इसका जवाब धर्म के पास तो खैर है ही नहीं... जवाब या तो अध्यात्म दे सकता है या फिर विज्ञान...।