वो पुरसिशे ग़म को आए है कुछ कह न सकूँ, चुप रह न सकूँ खामोश रहूँ तो मुश्किल है कह दूँ तो शिकायत होती है
इराक के पत्रकार जैदी के सामने ऐसी कोई दुविधा नहीं है।इराकी पत्रकार ने बुश पर जूतें फ़ेंक कर किसी पत्रकार के गुस्से का इजहार नहीं किया है..... उसने सबसे पहले इराकी समाज का और फिर पुरी दुनिया के गुस्से को आकार दिया है.... सभ्यतावादी तो नैतिकता का मर्सिया पढ़ रहें है.... और पत्रकारिता के मूल्यों की बात की जा रही है......लेकिन जरा ठहरिये ये किसी पत्रकार की अभिव्यक्ति नहीं है कहा तो ये जा रहा है कि एक पत्रकार का हथियार कलम है उसे जूतों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए..... लेकिन जरा सोचिये दुनिया भर में बुश और अमेरिका के खिलाफ कलम चलाई जा रही है क्या बुश बदले या अमेरिकन नीतियों में बदलाव आया? तो फिर अपने गुस्से का जैदी क्या करें? वही जो उन्होंने किया है..... ये दुनिया के क्रोध की सबसे सात्विक अभिव्यक्ति है इससे बेहतर कोई तरीका नहीं हो सकता है। लगभग यही कालखंड है जब केरल में शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने अपने गुस्से का इजहार किया इसे क्या कहा जाय? एक ही दौर में अलग-अलग समाजों के लोगों द्वारा अलग-अलग तरह से गुस्से का इजहार.... दुनिया में बदलाव की बयार नजर आने लगी है सामूहिक गुस्से को व्यक्त करने के लिए किसी संगठन की जरुरत नहीं है, कोई एक भी उसका संवाहक बन सकता है दरअसल हो ये रहा है कि राजनीति और समाज एक दुसरे कि तरफ़ पीठ कर खड़ी है, दोनों के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है....समाज व्यवस्था की उप व्यवस्था राजनीति पर अब लोगों को भरोसा नहीं रहा.... इसके प्रति लोगों में एक गहरी हताशा..... और गहरा अविश्वास है यदि समय रहते इस दिशा में कुछ नहीं किया गया तो परिणाम और गंभीर हो सकते है..... हम देख ही रहें है कि राजनीति से किस तरह युवाओं का मोहभंग हो चुका है..... जैसा कि किसी विद्वान् को पढ़ा था कि राजनीति बदमाशों की अन्तिम शरण स्थली है..... तो अब इसमे अपराधियों का ही दखल है.... और यदि यही चलता रहा तो फिर भविष्य का तो भगवान भी मालिक नहीं है..... अब आम आदमी को ही आगे आना होगा..... तभी व्यवस्था में सुधार की कोई उम्मीद की जा सकती है .... रही बात जैदी की तो वे तो रातोंरात स्टार बन गए फिदायीन होकर आतंकवादी जो नहीं कर सकें वो जैदी ने कर दिखाया ..... अब ये जुगाली आप कीजिये कि वो नाम कमाने की तरकीब थी या सचमुच का गुस्सा...?
Saturday, 27 December 2008
Monday, 1 December 2008
मौका भी है और दस्तूर भी
मुंबई के बाद जो कुछ हो रहा है वह अभूतपूर्व है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार जिस तरह जनता का गुस्सा फूटा है, उससे लगने लगा जैसे मुर्दा हो चुके भारतीय समाज में जान आ गई हो. अब तक पेम्पर होते आए राजनेताओं के लिए ये जनता का ये रूप बिल्कुल नया है इसलिए सभी बोखालायें हुए है और बकवास करने लगे हैं ऐसे मौकों पर जिस सभ्यता की जरुरत थी वह नेताओं ने नहीं दिखाई. ये दौर भी गुजर जाएगा, जैसे अब तक हुए हमलों को भुला दिया गया ये भी भुला दिया जाएगा समाज फिर मुर्दा हो जाएगा, क्योंकि व्यवस्था तो मुर्दा ही है न फिर भी अब सब साँस रोके सरकार से कुछ करने की आस लगाये हुए है। यूँ ये हमारे इतिहास से मेल नहीं खाता है, क्योंकि अब तक का हमारा इतिहास सिर्फ़ बचाव का रहा है आक्रमण का नहीं.... संसद पर आतंकी हमला इसका उदाहरण है तब भी हमारी सरकार ने कहा था कि समय आ गया है....लेकिन वो समय कभी नहीं आया शायद अब भी नहीं .
ये थोड़ा तल्ख़ है, लेकिन सच है कि हमारे इतिहास ने हमे गर्व करने का एक भी मौका नहीं दिया है हम हमेशा ही पिटते आए है और अब हम इससे ऊब चुके है.....हमारे जवानों ने आतंकियों का जम कर मुकाबला किया हमे उनकी बहादुरी पर गर्व है और हम उन पर भरोसा करते है. फिर भी मुंबई में जो कुछ हुआ उसमे देश को गर्व करने लायक कुछ भी नहीं हुआ. हमने आतंकवाद के खिलाफ कोई जंग नहीं जीती है हम इस ज़ंग में बुरी तरह नाकाम रहे है और हम न सिर्फ़ ख़ुद से शर्मिंदा है बल्कि हमने दुनिया में अपना गौरव भी खोया है. लगभग २०० लोगों की जान.....४०० से ज्यादा घायलों.....बेहिसाब माली नुकसान के साथ २० बहादुरों को खोया है.....हमने पाया क्या है? उल्टे एक शक्ति संपन्न देश के रूप में हमारी प्रतिष्ठा खाक में मिल गई है. लगभग सवा अरब की जनसंख्या वाले इस विशाल देश को मात्र १० आतंकवादियों ने पुरे तिन दिनों तक बंधक बनाये रखा.....सेना, प्रशासन और सरकारों को उलझाएँ रखा.....हम आतंकवादियों के मारे जाने को हमारी सफलता माने तो ये हमारी बेवकूफी से कम और कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि वे तो मरने ही आए थे. जीत तो तब होती जब हम इतना होने के बाद भी हम कम से कम ६ आतंकवादियों को जिन्दा पकड़ने में कामयाब होते.....जितने आतंकवादियों को हमने मारा उससे २० गुना ज्यादा लोगों की जानें हमने गवाई हैं. तो फिर हासिल क्या हुआ हैं, सरकार और प्रशासन से लोगों का भरोसा उठ गया हैं और दुनिया में आपकी छवि ख़राब हुई हैं....राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा कि ये सब्र का इम्तिहान हैं...अब यह सब्र कहाँ ख़त्म होगा इसका जवाब नहीं मिल रहा हैं. उधर अमेरिका के भावी राष्ट्रपति तक ने कहा दिया कि अपनी रक्षा करना एक संप्रभु राष्ट्र का अधिकार हैं...... पता नहीं सरकार को किस चीज का इंतजार हैं? ये मौका हैं अपनी खोई साख लौटाने का, भारत को तुंरत पाकिस्तान के आतंकवादी केम्पों पर हमला कर देना चाहिए.....अमेरिका भी अभी तो भारत का विरोध नहीं करेगा....फिर मुंबई मामले में हम मंदी को भूल गए.....यदि युद्ध होता हैं तो यह मंदी को दूर करने में भी मदद करेगा..... कार्यवाही करने का यहाँ मौका भी हैं दस्तूर भी...... कुछ कहना हैं?
ये थोड़ा तल्ख़ है, लेकिन सच है कि हमारे इतिहास ने हमे गर्व करने का एक भी मौका नहीं दिया है हम हमेशा ही पिटते आए है और अब हम इससे ऊब चुके है.....हमारे जवानों ने आतंकियों का जम कर मुकाबला किया हमे उनकी बहादुरी पर गर्व है और हम उन पर भरोसा करते है. फिर भी मुंबई में जो कुछ हुआ उसमे देश को गर्व करने लायक कुछ भी नहीं हुआ. हमने आतंकवाद के खिलाफ कोई जंग नहीं जीती है हम इस ज़ंग में बुरी तरह नाकाम रहे है और हम न सिर्फ़ ख़ुद से शर्मिंदा है बल्कि हमने दुनिया में अपना गौरव भी खोया है. लगभग २०० लोगों की जान.....४०० से ज्यादा घायलों.....बेहिसाब माली नुकसान के साथ २० बहादुरों को खोया है.....हमने पाया क्या है? उल्टे एक शक्ति संपन्न देश के रूप में हमारी प्रतिष्ठा खाक में मिल गई है. लगभग सवा अरब की जनसंख्या वाले इस विशाल देश को मात्र १० आतंकवादियों ने पुरे तिन दिनों तक बंधक बनाये रखा.....सेना, प्रशासन और सरकारों को उलझाएँ रखा.....हम आतंकवादियों के मारे जाने को हमारी सफलता माने तो ये हमारी बेवकूफी से कम और कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि वे तो मरने ही आए थे. जीत तो तब होती जब हम इतना होने के बाद भी हम कम से कम ६ आतंकवादियों को जिन्दा पकड़ने में कामयाब होते.....जितने आतंकवादियों को हमने मारा उससे २० गुना ज्यादा लोगों की जानें हमने गवाई हैं. तो फिर हासिल क्या हुआ हैं, सरकार और प्रशासन से लोगों का भरोसा उठ गया हैं और दुनिया में आपकी छवि ख़राब हुई हैं....राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा कि ये सब्र का इम्तिहान हैं...अब यह सब्र कहाँ ख़त्म होगा इसका जवाब नहीं मिल रहा हैं. उधर अमेरिका के भावी राष्ट्रपति तक ने कहा दिया कि अपनी रक्षा करना एक संप्रभु राष्ट्र का अधिकार हैं...... पता नहीं सरकार को किस चीज का इंतजार हैं? ये मौका हैं अपनी खोई साख लौटाने का, भारत को तुंरत पाकिस्तान के आतंकवादी केम्पों पर हमला कर देना चाहिए.....अमेरिका भी अभी तो भारत का विरोध नहीं करेगा....फिर मुंबई मामले में हम मंदी को भूल गए.....यदि युद्ध होता हैं तो यह मंदी को दूर करने में भी मदद करेगा..... कार्यवाही करने का यहाँ मौका भी हैं दस्तूर भी...... कुछ कहना हैं?
Friday, 28 November 2008
एक बेबस राष्ट्र के पीड़ित नागरिक
एक सॉफ्ट स्टेट होना किसे पसंद होगा? लेकिन बदकिस्मती से भारत वही है. कम से कम मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद तो हम इससे इंकार नहीं कर सकते है. साहस का सम्बन्ध क्षमता से ज्यादा इच्छा से है. और हमने बार-बार ये साबित किया है कि हममे इच्छाशक्ति का अभाव है. चंद लोग एक पुरे देश को दहशतजदा कर सकते है और हमारी सरकारें सांत्वना के कुछ शब्द कह कर शांत हो जाती है. हमारे खुफिया तंत्र की नाकामी से कितने निर्दोष नागरिक, पुलिस और सेना के जवानों की जान को खतरा होता है कभी इस पर विचार किया गया? कितनी बार और कितने साल तक देश में यही सब कुछ होता रहेगा और हम सहते रहेंगे? यदि खबरों को सही माने तो मुंबई में ४० आतंकवादी घुसे हैं इस लिहाज से उन ४० दुस्साहसियों ने एक पुरे देश.....एक पुरी व्यवस्था को चुनोती दी है.....हम इससे इंकार नहीं कर सकते है कि आतंकवादियो को मदद स्थानीय लोग करते है और उन्हें डिटेक्ट करने के लिए पुलिस को ज्यादा स्वतंत्रता देने की जरुरत है एक ऐसे समय में जब देश पर संकट है राजनेता अपनी राजनीति से बाज आए. आडवानी अपनी और मोदी अपनी रोटी निर्दोष नागरिकों, पुलिस और सेना की लाश पर सेंक रहे हैं. दिल्ली में भाजपा इस घटना को विधानसभा चुनाव के लिए भुनाते हुए अखबार ने विज्ञापन देती है, अखबार विज्ञापन छापते हैं और टेलिविज़न चैनेल उसे दिखाते है. सब गैर जिम्मेदार..... आखिर हम कब जिम्मेदार व्यवहार करेंगे.... लोग फंसे है....मर रहे हैं लेकिन किसी को कोई लेना देना है. ऐसे मौके पर जब देश को कम से कम एकजुट होने की जरुरत है सबकी खिचडी अलग पक रही हैं. मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहा है.इस घटना से कई सवाल उठते है. क्या हमारी जानों की सरकारों की नजर में कोई कीमत नहीं है? क्या एक सॉफ्ट स्टेट के सड़े हुए तंत्र का इलाज साध्वी प्रज्ञा और महंत पांडे के ही पास है?
Saturday, 22 November 2008
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