Tuesday, 4 May 2010
जीने का शऊर आ रहा है....?
झिलमिलाते तारों और खिलखिलाती हवा के साथ रात की जुगलबंदी के माहौल में अपनी साधना के पन्नों को पलटते हुए बहुत सारी शहद की बूँदे जहन में उतरी थी.... सोचा था, सुबह बहुत मीठी होगी...। जागने से पहले और नींद के लंबे दौर के बाद जब आँखें खुली तो पता नहीं क्यों कुछ बोझ सा महसूस हुआ, फिर सो गईं। सुबह चाय के कप के साथ अखबार पर फिसलती नजरें थी.... क्या पढ़ा ये तो पता नहीं लेकिन जो कुछ देखा वो कहीं टँक गया। एकाएक लगा कि बहुत हॉचपॉच हो रहा है। शायद दिमाग की स्टोरिंग कैपेसिटी कम है या फिर सारी ड्राइव फुल हो गई है.... तभी तो सूचनाओं की ड्राइव को खोलो तो विचारों की खुल आती है और अहसासों की ड्राइव को खोलने की कोशिश करें तो स्मृतियों की खुल पड़ती है..... अब ये तो आपकी समझ में आता ही है कि जब आप काम करना चाहते हैं, और सिस्टम बार-बार दिक्कत दे रहा हो तो, फिर किस तरह की बेचैनी होने लगती है। ठीक वैसी ही बेचैनी है..... काम करने का अपना सिस्टम है, तो हाथ यांत्रिक तरीके से काम कर रहे होते हैं, और दिमाग अपनी तरह से, लेकिन मन में कहीं कुछ ऐसा है, जो कहीं जम नहीं पा रहा है, कहीं स्थिर नहीं हो पा रहा है। बहुत सारी अनुभूतियों और सवालों की खिचड़ी पक रही है...... कहीं केंद्रीत नहीं कर पा रही हूँ.... और कुमारजी सुनाते हैं, उड़ जाएगा हंस अकेला.....,कहीं कुछ जमा हुआ दरकने लगा...... गीला-गीलापन उतर आया और विचार आया यही सच है..... लेकिन ये आज क्यों...... नहीं ये उभरता रहता है, आज फिर उभरा है..... क्या जीने का शऊर आ गया?
मरने का सलीका आते ही जीने का शऊर आ जाता है....
नहीं....?
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मानवीय भावना को खूबसूरती से विवेचना करती हुई रचना के लिए धन्यवाद /
ReplyDeleteसूचनाओं की ड्राइव को खोलो तो विचारों की खुल आती है और अहसासों की ड्राइव को खोलने की कोशिश करें तो स्मृतियों की खुल पड़ती है..... सुन्दर प्रस्तुति....
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