Thursday, 24 March 2011

दर्द का हद से गुज़रना है, दवा हो जाना


पूरे सिर में दर्द की हल्की-पतली चादर-सी फैल गई थी... मैं ये जानती थी कि वो चादर धीरे-धीरे सिकुड़ने लगेगी और एक हिस्से में जमा हो जाएगी... अपनी सिलवटों के साथ, फिर भी मैंने उसे फैले रहने दिया। अक्सर मुझे लगता है कि शरीर और जहन में थोड़े-बहुत दर्द का होना जीने में... या अच्छे से जीने में कोई बड़ी बाधा नहीं है। कभी यूँ भी कि चलिए कुछ तो हुआ है... (हो सकता है ये बचकाना लगे, लेकिन है कुछ ऐसा ही)। इसी दर्द के साथ दिन भर काम चलता रहा। कभी जब कुछ महसूसने की फुर्सत पाई तो लगा कि धीरे-धीरे चादर के सिकुड़ने का क्रम चल रहा है। शाम होते-होते तक सिर के बाँई ओर चादर सिकुड़कर इकट्ठी हो गई थी और दर्द का घनत्व भी बढ़ गया था। फिर थोड़ी देर बाद बाँई कनपटी पर दर्द की हल्की-हल्की दस्तक होने लगी थी, लेकिन जैसे दर्द को महत्वहीन करने की जिद्द-सी सवार हो चली थी, कि उस तरफ से अपना ध्यान ही हटा लिया था।
घर पहुँचने के बाद भी उसे दरकिनार कर सारे जरूरी काम यथावत चलते रहे... यहाँ तक कि टीवी देखना और पढ़ने का क्रम भी बदस्तूर रहा। सिरदर्द है, इसका कोई जिक्र भी नहीं किया, क्योंकि जानती हूँ कि जिक्र होते ही चिंताओं का सिलसिला शुरू हो जाएगा और वो खत्म होगा पेनकिलर पर... आज पता नहीं क्यों पेनकिलर लेने का मन नहीं था। तो रात तक दस्तक की फ्रीक्वेंसी बढ़ गई थी और आघात भी तेज होने लगे थे। एक दिन यूँ ही ये विचार आया था कि क्यों न देखा जाए कि यदि दर्द में दर्दनिवारक नहीं ली जाए तो ये कब तक रहेगा और कैसा रहेगा। गोया कि अपनी या फिर अपने दर्द की परीक्षा ही लेने का विचार चला आया था और आज शायद परीक्षा का मन ही बना चुके थे। जिद्द के शेर की सवारी थी, कई बार आजमा चुकी हूँ, ज्यादातर तो जीती ही हूँ, लेकिन कई बार पटखनी भी खाई है, आज भी यही कवायद...। सारी रात कभी नींद जीती तो कभी दर्द... कभी नींद छा जाती और सब कुछ नीचे चला जाता तो कभी दर्द छा जाता और नींद चली जाती, लेकिन इतना तय है दर्द ने नींद को अपने शिखर तक पहुँचने से रोके रखा, जैसे नींद और दर्द के बीच भी हार-जीत का खेल चल रहा था और जैसा कि होता आया है, जो फिटेस्ट है जीतना तो उसे ही है तो दर्द जीत गया और सुबह होते-न-होते पेनकिलर तक हाथ पहुँच ही गया। आज मिली पटखनी...। इस खटरपटर में राजेश की नींद भी खुल गई और फिर शुरू हुआ चिंता, दुख और झल्लाहट का क्रम... – कबसे था दर्द? जब पता है कि बिना पेनकिलर के दर्द नहीं जाता तो उसे बढ़ने ही क्यों देती हो...? मुझे क्यों नहीं बताया? आदि-आदि... ये भी शगल ही है, जब दवाई ली तो घड़ी देखी- समय क्या हो रहा है? सुबह के पौने पाँच बज रहे थे। अरे हाँ! सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि आज दफ्तर से छुट्टी ली है, मतलब दर्द को सहलाने की लक्जरी की जा सकती थी और वो की गई।
खैर सुबह चाय के कप के साथ रात के दर्द की चर्चा थी। यार, क्यों करती हो ऐसा, जब दर्द शुरू हुआ था, तभी उसका इलाज क्यों नहीं कर लेती हो? लेक्चर चल रहा था और मैं गर्दन झुकाए सुने जा रही थी, आखिर उसके पीछे कोई समझदार तर्क जो नहीं था। जो था वो बेहद बचकानी जिद्द थी... शुमोना ग़ालिब को गा रही थी...
इशरत-ए-कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है, दवा हो जाना...।
अचानक बेवकूफ़ाना मासूमियत से भरकर कह डाला – मैं देखना चाहती थी कि वो दर्द कैसा हुआ करता है जो खुद दवा हो जाता है। राजेश ठहाका लगाकर हँसे – पागल... ग़ालिब ने दिल के दर्द की बात कही है, बदन के नहीं...। अब मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं था...।

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