Sunday, 17 July 2011
....मुझको सन्नाटा सदा लगता है!
वो नहीं जानती है कि उसकी आँखें मुझे उसके सारे हाल की चुगली कर देती है। उसे तो बस ये भ्रम है उसके अंदर का तूफान बे-आवाज आता है और गुजर जाता है, किसी को उसकी खबर नहीं लगती है। मैं भी उसके भ्रम को भ्रम ही रहने देता हूँ। उस दिन भी हम दोनों एक रिसर्च पेपर के लिए नोट्स ले रहे थे, और उसके अनजाने ही उसकी बेचैन तरंगें मुझे लगातार झुलसा रही थी... जला रही थी। बार-बार उसका गहरी साँस लेना... मुझे भी बेचैन कर रहा था, लेकिन पता नहीं कैसी जिद्द में था कि बस... पूछा ही नहीं। ये जानते हुए भी कि वो खुद अपनी बेचैनी का पता कभी नहीं देगी...। हम दोनों के बीच बहुत बातें हुआ करती है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी होता है, जो अनकहा ही रह जाता है। पता नहीं उसमें से भी कितना हम दोनों समझ पाते हैं और कितना छूट जाता है!
वो एक प्रोजेक्ट से सिलसिले में बाहर जाने वाली थी। उसने कुछ कहा नहीं था, मैंने कुछ पूछा नहीं... सुबह-सुबह जब मैं उसके घर पहुँचा तो वे अपना सामान निकालकर ताला लगा रही थी। मुझे देखकर वह चौंकी नहीं... ऐसे जैसे... वो तो जानती ही थी कि मैं पहुँचूगाँ ही...। बिना कुछ कहे मैंने उसका एयरबेग उठा लिया। वो भी कुछ नहीं बोली और गाड़ी में बैठ गई। वो कहीं और थी... गियर बदलने की मजबूरी के बाद भी... पता नहीं कैसे मैनेज कर लेता हूँ और उसके हाथ पर अपना हाथ रख देता हूँ। वो सूनी आँखों से देखती है, कुछ नमी तैरती है और इशारे से सामने देखने की ताकीद करते हुए फिर कहीं गुम हो जाती है। गाड़ी के जाते ही मुझे लगने लगता है जैसे मैं बहुत थक गया हूँ और अभी यहीं आराम करना चाहता हूँ। खाली स्टेशन पर हाल ही में खाली हुई बेंच पर जाकर बैठ जाता हूँ।
उन तीनों दिन में लगभग हर दिन उससे बात हुई थी, लेकिन कल दिनभर कुछ ऐसा हुआ कि कुछ मैं बिज़ी रहा, कुछ वो और कुछ नेटवर्क... तो बात हो ही नहीं पाई। आज उसे लौटना है।
सुबह से ही जैसे मुझे किसी आहट का इंतजार है। आज मेरी छुट्टी है और दिन भर सामने पसरा है एक लंबे-चौड़े मैदान की तरह... अब मुझे उससे खेलने की स्कील जुटानी है। मोबाइल बजा तो कई बार... लेकिन मेरी चेतना जैसे किसी खास आवाज की राह देख रही है। शाम... जब आधी नींद और पूरी खुमारी के बाद जागा तो आखिर वो आहट सुनाई दी।
कहाँ हो...?
घर पर ही, कब लौटी? – जानते हुए एक बेकार-सा सवाल।
मैं आ रही हूँ। - सारी औपचारिकता को दरकिनार कर धरती-सी उदारता के साथ उसने सूचना दी।
दिन भर तेज धूप रही, लेकिन शाम घिरते ही ना जाने कैसे आसमान पर बादल जमा होने लगे। उसके आने की खुशी में मैंने घर की हर चीज को छूकर देखा... पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा कि मेरी ही तरह मेरे घर को भी उसकी आमद का इंतजार है। उसकी ही गिफ्ट की हुई बाँसुरी की सीडी लगाई... और आवाज को बहुत धीमा कर दिया। बॉलकनी में दो कुर्सियाँ और टेबल लगाई, क्योंकि वो जब भी आती है, यहीं आकर बैठती है, बिल्डिंग के पिछले हिस्से में कॉलोनी के बगीचे के ठीक उपर ही है मेरी बॉलकनी...। घर के सारे दरवाजे-खिड़की और पर्दे खोल दिए। वो जब आई तब तक ठंडी हवाएँ चलने लगी थी। उसने पर्स सोफे पर पटका और सीधे बॉलकनी की कुर्सी में जाकर धँस गई। वो अपने टूर के बारे में बता रही थी, मैं उसे सुन रहा था... देख रहा था। अचानक उसकी बेचैन साँस ने मुझे फिर से छुआ, एक सिहरन हुई... वो उठकर अंदर आ गई...। उसने शिकायत-सी की - कितना शोर है!
पार्क में खेलते बच्चों की चिल्लपों के साथ ही आसपास के और भी लोग लगता है कि अच्छे मौसम को लूटने के लिए पार्क में जमा हो गए थे और उन सबकी सम्मिलित आवाजें... नीचे से गुजरते वाहनों का शोर... मुझे भी महसूस हुआ कि वाकई बहुत शोर हो रहा है। वो ड्राइंग रूम के सोफे पर आकर बैठ गई। सोफे की पुश्त पर सिर रखा – ये लाइट और ये म्यूजिक सिस्टम बंद कर सकते हो? – उसने जैसे गुज़ारिश की।
यार... आजकल मैं लाइट और साउंड को लेकर बहुत संवेदनशील हो चली हूँ। मुझे लगता है कितना शोर है आसपास... कितनी आवाजें आ रही है। मुझे रोशनी बेचैन करने लगी है। टीवी, रेडियो, वाहनों यहाँ तक कि पंखे के चलने की आवाज... और कभी-कभी तो घड़ी की सुईयों के सरकने की आवाज तक मुझे बेचैन किए देती है। - उसने अपनी हथेलियाँ खोलकर उँगलियाँ अपने बालों में कस ली। बाहर तेज बारिश होने लगी तो पार्क पूरा खाली हो गया। एक तरह से सारी कृत्रिम आवाजें बंद हो चली थी। वो उठकर बॉलकनी में आ गई।
मैंने उससे पूछा - चाय पिओगी...?
हाँ, नींबू है...?
नींबू चाय पीना है? – मुझे याद आया... उसे पसंद है। उसने कहा कुछ नहीं... बस गर्दन हिलाकर हाँ कर दी।
यूँ भी शाम उतर रही थी और फिर घने बादलों ने रोशनी और भी कम कर दी थी। धीरे-धीरे अँधेरा गाढ़ा होने लगा था। मैं किचन में चाय बनाने चला आया। चाय लेकर लौटा तो लाइट जा चुकी थी। बारिश बहुत तेज होने लगी थी... अब सिर्फ बादलों के बरसने की आवाज के अतिरिक्त और कोई आवाज शेष नहीं थी। स्ट्रीट लाइट की हल्की रोशनी में उसने चाय का गिलास उठा लिया था। उसने बहुत मायूसी से कहा – शोर है दिल में कुछ इतना/ मुझको सन्नाटा सदा (आवाज़) लगता है। बिजली की चमक में उजाले में मैं उसकी आँखों में समंदर उतरते देखता हूँ और खुद को उसमें डूबते पाता हूँ। एक गहरी साँस आती है, मेरा समंदर तो ये भी नहीं जानता है कि कोई उसके खारे पानी में घुट कर मर रहा है।
चाय का सिप लेकर गिलास को दोनों हाथों में थामते हुए वे कहती है – नाइस टी...।
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