Saturday, 31 March 2012

पिद्दी से हम... !

गर्मी बस शुरू हुई ही है, लेकिन लगता है जैसे देरी की सारी कोर-कसर पूरी कर लेगी। घर-दफ्तर का तनाव, गर्मी, रात की टूटी-फूटी, अधूरी-सी नींद से जो होना था, वो हुआ... माइग्रेन...। कामवाली काम छोड़ गई तो दर्द को सहलाने की लक्जरी की न तो सहूलियत थी और न ही गुंजाईश... काम निबटाकर टीवी के सामने आसन जमाकर खाना-खाने बैठे तो हाल ही में खोजे मूवी चैनल पर फिल्म चल रही थी, नोईंग...। फिल्म का नायक जोनाथन अपनी एस्ट्रोफिजिक्स की क्लास में थ्योरी ऑफ डेटरमिनिज्म एंड थ्योरी ऑफ रेनडमनेस की चर्चा कर रहा था। थ्योरी ऑफ डेटरमिनिज्म से मतलब है कि हरेक चीज तयशुदा है, और इसलिए हर चीज का कोई-न-कोई मतलब है। इसके उलट है थ्योरी ऑफ रेनडमनेस... इसके अनुसार किसी भी चीज का कोई मतलब नहीं है और ये सृष्टि पूरी तरह से इत्तफाक पर चल रही है। आँखें दर्द और टीवी की बदलती रोशनी से तन रही थी, लगातार सो जाने की इच्छा होने लगी थी, लेकिन फिल्म की शुरुआत ही इतनी शानदार लगी कि फिल्म छोड़कर सो जाने का विचार ही बुरा लगा था। आखिर तो फिल्म की शुरुआत में ही हमारी मुठभेड़ एक सिद्धांत, एक विचार से हुई है और बस इसीलिए तो पूरी दुनिया के कार्य-व्यापार में लगे रहते हैं... लेकिन हमारा शरीर हमारी इच्छाओं का गुलाम नहीं होता है, तो बड़े बेमन से ये सोचते हुई वहाँ से उठ खड़े हुए कि जब फिल्म की शुरुआत में ही ‘कुछ’ मिल गया है तो फिर मलाल किस बात का...! दर्द था, थोड़ी नींद और थोड़ी जाग्रति भी थी... कुल मिलाकर मस्तिष्क का कोई हिस्सा चैतन्य था...। वहाँ रोशन थी वो रात जब ना तो एस्ट्रोफिजिक्स था ना फिजिक्स का पी ही था, बस था तो एक अनगढ़-सा विचार... एक सवाल और बहुत सारी उद्विग्नता...। यदि हमारा होना तयशुदा है तो फिर हमसे जुड़ी हर चीज तय है... फिर हमारे करने, होने का मतलब ही नहीं है कुछ...। और यदि हम इत्तफाक से हैं तब भी हम क्या है? बस महज एक इत्तफाक... । जरा दूर से देखें तो लगता है कि सृष्टि के इस विराट में हमारी हस्ती ही क्या है...? महासागर में एक बूँद-सी... तो क्या बूँद और क्या उसका वजूद...। ये महासागर अनंतकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा, उसमें हमारा आना और जाना ठीक वैसा है, जैसा किसी एक फूल का खिलना और फिर सूखकर बिखर जाना... अनगिनत बूँदों में एक का होना न होना... कोई फर्क पड़ता है, यदि न हो तो... ! यदि सृष्टि के विकास-क्रम की दृष्टि से देखें तो शायद इतना भी नहीं... तो फिर हमें हमारा सब-कुछ इतना बड़ा क्यों लगने लगता है... ? क्या वाकई हम इतने ही हैं...! यदि हम इतने ही है तो फिर हमारा पूरा जीवन क्या है... क्या है हमारे संघर्ष-उपलब्धि, दुख-सुख, रिश्ते-नाते, जीवन-मृत्यु, उदात्तता-क्षुद्रता, प्यार-नफरत, ... क्या है, क्यों हैं और इनके होने का अर्थ क्या है? या तो ये सब इत्तफाक है या फिर ये बेवजह है...। दोनों ही स्थितियों में हमारे ‘स्व’ का अर्थ क्या होगा...? यदि ये इत्तफाक है तो फिर हम खुद भी इत्तफाक हैं और इत्तफाक की अपनी सत्ता क्या है? वो तो बस इत्तफाक से ही है ना... फिर हमारे होने के गुरूर की कोई वजह होनी ही नहीं चाहिए... और यदि ये बेवजह है तो फिर हमारा वजूद ही बेवजह है... तो इससे जुड़ी हर चीज बेवजह है। तो फिर ये स्वत्व-बोध तक बेवजह है... फिर कैसे इंसानी सुख-दुख सृष्टि से उपर, उससे भारी हो जाते है...? और क्यों...? शायद हममें उस विराट संरचना को देख पाने की काबिलियत, लियाकत ही नहीं है, इसीलिए हम अपने दुख-सुख में ही डूबे रहते हैं, या फिर चूँकि हममें ये कूव्वत नहीं है, इसलिए इन्हीं में डूबे रहना हमारे लिए श्रेयस्कर है... ! हम इतने ही हैं, सृष्टि की संरचना में होना ही महज हमारा एक योगदान है, हम इसमें न कुछ जोड़ते हैं और न ही कम कर सकते हैं। यही निराशा है, यही हमारे स्व की सीमा, यही बेबसी है और यही है हमारी क्षुद्रता... :-c

1 comment:

  1. ये महासागर अनंतकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा, उसमें हमारा आना और जाना ठीक वैसा है, जैसा किसी एक फूल का खिलना और फिर सूखकर बिखर जाना... अनगिनत बूँदों में एक का होना न होना... कोई फर्क पड़ता है, यदि न हो तो... !

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