Friday, 21 September 2012

छोड़कर जाओ तो आहत होता है घर



शाम होते ही तुम्हें घर लौटने की जल्दी क्यों मची रहती है?
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बोलो....
पता नहीं, बस लगता है कि घर बुला रहा है।
घर... बुला रहा है। - उसने दोहराया था, थोड़ी खीझ और बहुत सारे आश्चर्य के साथ। हाँ...। – मैंने बड़े अनमनेपन से जवाब दिया था। उसकी खीझ और भी बढ़ गई थी। अभी लिस्ट का बहुत सारा सामान लिया जाना बाकी है और मैं घर चलो-घर चलो की रट लगाने लगी थी। अजीब भी लग रहा था, लेकिन एकदम से बाजार से उकता गई थी। शोर-शराबा, लाइट, भीड़, ट्रेफिक... बस मेरा सिर घूमने लग गया था। अजीब तो लग रहा था, ये बचपना, लेकिन... मैं बेबस थी, बेचैनी तीखी होने लगी थी। बहुत देर तक अपने संकोच में लिपटी रही थी। जब उस चौराहे के बंद सिग्नल के उस पार खड़े सेब के ठेले से सेब खऱीदने की बात आई थी... मन मसोस कर रह गई थी। फिर आगे चलकर मॉल के पार्किंग में गाड़ी लगी तो मन में हौल उठा था, अभी और देर से घर जाएँगे...। फिर एक आउटलेट से दूसरे आउटलेट के चक्कर... बस धैर्य जवाब दे चुका था। घर चलें, पहले बहुत विनम्रता से... जवाब भी उसी विनम्रता से मिला था। हाँ... बस चलते हैं।
फिर हर पाँच मिनट बाद – घर चलें... घर चलें की रट्ट... खीझ गया था वो। यार... छुट्टी वाले दिन तुम घर से निकलना नहीं चाहतीं, घर पहुँचकर निकलने में तुम्हें परेशानी है, ज्यादा देर बाजार में काम करें तो तुम्हें परेशानी है, ऐसे कैसे चलेगा? उसने अपने सारे धीरज को समेटकर सवाल किया था। उस धीरज से मेरे आँसू निकल आए थे। फिर शायद उसे थोड़ी सहानुभूति हुई थी। चलो, चलते हैं... बाकी की चीजें कल-वल खरीद लेंगे।

घर लौट तो आए थे, लेकिन एक बोझ-सा बना रहा था। खरीदी दीपावली के लिए हो रही थी, आज शनिवार था तो चाहे कितनी भी देर तक बाजार करते रहो चिंता की वजह नहीं थी, लेकिन मन का क्या करें। खाना खाने के बाद अपनी पसंद की नींबू चाय बनाई थी, बालकनी में पड़े स्टूल पर रखी और उसका हाथ पकड़कर ले आई थी, जो टीवी पर कोई बकवास-सी हॉलीवुड की फिल्म देख रहा था। मैंने अपराध-बोध से ग्रस्त थी, ट्राय टू अंडरस्टैंड मी... बॉलकनी से दूर क्षितिज पर झुकते आसमान को देखते हुए कहा था। उसकी आँखों में सवाल उभरा था... – क्या?

मैंने अपनी सारी अनुभूतियाँ समेटते हुए बात शुरू की थी - शाम होते-होते मुझे हमेशा ही घर की याद आने लगती है... यूँ लगता है कि बाहर निकलते हुए खुद का कोई हिस्सा रह जाता है घर में ही। और शाम होते-होते उसे मेरी और मुझे उसकी याद आने लगती हो... या... पता नहीं क्या... शायद पिछले जन्म में पंछी रही होऊँ... नहीं, मुझे यकीन नहीं अगले-पिछले जन्म में। इस पर यकीन करो तो बहुत सारे दूसरे यकीन भी करने पड़ते हैं, और फिर जिंदगी जैसे यकीनों का सिलसिला बन जाती है, फिर उन यकीनों से जुड़े सवालों से भी जूझना पड़ता है। ये तो बस यूँ ही... उतरता सूरज, ना जाने क्या-क्या लेकर आता है और खिंचता रहता है, हमेशा घर की ओर... अब दुनिया में है तो दुनियादार तो होना ही हुआ, सो हुए, घर-बाहर, दोस्त-रिश्तेदार, हारी-बीमारी, जन्म-मरण-परण... बहुत कुछ है जो घर से बाहर ले जाता है...लेकिन पंछी की मन लेकर जो पैदा हुए कि शाम होते घरोंदा ही याद आता रहा है। खुद को देखूँ तो उस सवाल का जवाब ही नहीं मिलता कि हम बाहर जाने के लिए शामों को ही क्यों चुनते हैं? जबकि घर से डूबते सूरज को देखो तो एक करूणा जागती है, वो भी हमारी ही तरह अपने घर लौट रहा है... बेचारा... दिन भर का थका-हारा, तपता-जलता, झुलसता-झुलसाता। जब कभी बाहर से घर लौटों तो महसूस होता है कि घर बहुत अनमना-अनमना-सा है, उसमें कोई जुंबिश नहीं है, कोई हरकत, कोई हरारत नहीं है, वो बिल्कुल ठंडा और बेजान है, निर्जीव...। अब बोलो भला घर कोई जीव है क्या? – मैं खुद ही सवाल करती जा रही थी और खुद ही जवाब भी दिए जा रही थी... वो बस मुझे बोलते देख रहा था। वो अक्सर कहता है कि तुम जब बोलती हो तो ऐसा लगता है कि शब्द झर रहे हैं... कई बार मैं बस उन्हें झरते देखता रहता हूँ, उनके अर्थों तक नहीं पहुँच पाता... मैंने अपनी बात जारी रखने के लिए थोड़ा वक्त लिया। जब उसने प्रश्नवाचक निगाहें छोड़ी तो फिर कहना शुरू किया - पता नहीं कितने बचपन से मुझे हमेशा ही ऐसा लगता रहा है कि घर को छोड़कर जाओ तो वो नाराज हो जाता है। बहुत देर तक वो संवाद नहीं करता, कहीं हाथ नहीं रखने देता है, अनमना-सा रहता है और थोड़े-थोड़े अंतराल में वो अपनी नाराजगी जाहिर करता रहता है। पता नहीं किसी और के साथ ऐसा होता है या नहीं, लेकिन मेरे साथ हमेशा ही घर का ऐसा ही रिश्ता रहा है। जब कभी बाहर से लौटकर घर आओ तो घर स्वागत नहीं करता है, अलगाया-सा बना रहता है, अजनबी और पराया-पराया-सा...बड़ी मुश्किल और मशक्कत करने के बाद वो सुलह करता है, इसीलिए बचपन से ही मुझे घर को नाराज करने में डर-सा लगता रहा है, शायद यही वजह रही हो कि मुझे घर से बाहर जाना पसंद नहीं आता... बल्कि यूँ कहूँ कि लौटकर आने पर घर का आहत होना पसंद नहीं है। इसीलिए दुनियादार के अतिरिक्त और कोई वजह नहीं होती कि घर को यूँ अकेले छोड़कर जाया जाए... अपनी छुट्टियों को उसके साथ शेयर करते रहना, उसके गुनगुनेपन में खुद को छोड़ देना, उससे संवाद करना और उसकी ऊष्मा में नहाना पसंद है, इसलिए छुट्टियों में घर से निकलना पसंद नहीं है। मुझे पता नहीं किसी को ये लगता हो या न लगता हो, लेकिन मेरे लिए घर महज भौतिक ईकाई नहीं है, ये मेरे वजूद का अभिन्न हिस्सा है, जो कहीं भी रहो, साथ मौजूद रहता है, किसी-न-किसी रूप में, न हो तो स्मृति के रूप में ही...जो बार-बार अपनी ओर खिंचती है।
मैं थक गई थी, क्योंकि वो चुप था। मैं भी चुप हो गई... लेकिन उसकी चुप्पी से अपराध-बोध और गहरा गया। चाय का आखिरी घूँट लिया और आसमान की तरफ देखते हुए सोचने लगी कितनी कृत्रिम रोशनी है कि तारों की टिमटिमाहट तक नजर नहीं आती। मैं शायद उसके कुछ कहने का इंतजार भी कर रही थी, कुछ विरोध करने सा कुछ। उसने कहा था – हाँ, ऐसा होता तो है, लेकिन मैंने कभी उसे बहुत गंभीर तरीके से नहीं लिया था... होता है ना अमूमन हम अपने भीतर के सूक्ष्म अहसासों के प्रति हमेशा ही लापरवाह और उदासीन बने रहते हैं, वैसा ही... तुम उस बारीक धागे को पकड़ लेती हो, क्योंकि तुम बेहद संवेदनशील हो, लेकिन यदि मैं भी वैसा ही हो जाऊँ तो सोचो जिंदगी कैसे चलेगी...?
हाँ, जिंदगी कैसे चलेगी... – अनायास ही कह गई थी, लेकिन सच ही था, आखिर दुनिया में रहने के भी तो कुछ कंपल्शंस है ना। उसने मुझे नजर से दुलराया था, मैं आश्वस्त होकर फिर डूब गई थी, खुद में... सुरक्षा की ऊष्मा जो मिली थी।





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