Wednesday, 6 March 2013
चलो बनाएँ अपना स्वर्ग
‘‘यदि ईश्वर ने ही औरतों के लिए यह जीवन रचा है तो फिर कहना होगा कि आपका ईश्वर सामंतवादी पुरुष है...’’ -जब ये कहा था उसने तो कई लोगों ने उसे घूरकर देखा था... माँ ने भी। जाहिर है ये ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता की कथित नीतियों पर ‘अन्याय’ का आरोप था। और ईश्वर पर आरोप कतई-कतई सह्य नहीं है।
धीरे-धीरे जब उसने समाज को और बारीकी से जानने की कोशिश की तो उसे लगा कि धर्म के बहाने हर कहीं औरतों को मर्यादा, शालीनता, कर्तव्यपरायणता और समर्पण की हिदायतें दी जाती हैं, पालन करने के लिए कभी दंड की धमकी, तो कभी आदर्श होने का प्रलोभन... हो सकता है ये विचार सख्त महिलावादी लगे लेकिन वो इस तरह से सोचती है क्या किया जा सकता है?
उसे नजर आता है कैसे लड़कियों को अच्छी लड़की बनने के लिए किस तरह से उदाहरण दिए जाते हैं। क्यों सावित्री-सत्यवान और रति-कामदेव की कथाएँ कही जाती है, क्यों लक्ष्मी-विष्णु के हर केलैंडर में लक्ष्मी, विष्णु के पैर दबाती नजर आती है... क्यों सीता-त्याग को राम की मर्यादा पुरुषोत्तम वाली छवि से महिमामंडित किया जाता है? क्यों कृष्ण राधा को छोड़कर चले जाते हैं... वो प्रेम तो एक शादीशुदा महिला से कर सकते थे, लेकिन विवाह नहीं कर सकते थे... वो सोचती है, क्यों...? जवाब था एक ही... ‘ईश्वर सामंतवादी पुरुष है।’ लेकिन एक दिन उसे लगा कि जिसे हम ईश्वर समझते हैं, दरअसल वो तो बड़ी दुनियावी कल्पना है... ईश्वर तो निराकार, निर्विकार है... यदि है तो...। तो अब तक ईश्वर के नाम पर जो कूड़ा-कबाड़ फैला हुआ है, वो तो इंसान की ‘लीला’ है। मतलब... कि ये सारा जो ईश्वर के नाम पर धर्म में हुआ करता है, वो सब तो इंसानी करामात है...कुछ पूर्वाग्रही, कुछ पीड़ित और बहुत सारे षडयंत्रकारी पुरुषों के पूर्वाग्रह, कुंठा और षड़यंत्र... मामला साफ तब हुआ जब उसने वर्तमान में विचारों के जंजाल और बचपन की स्मृति के निहितार्थों के बीच संबंध स्थापित किया।
याद तो नहीं कि किस धार्मिक ग्रंथ के चित्र उसे दिखाए जाते थे, लेकिन उसमें छपे वे चित्र उसे अब भी उसी तरह याद है, जैसे उसने उस किताब में अपने बचपन में देखें थे। नर्क के फोटो... एक ही पेज पर कभी तीन तो कभी चार फोटो... ले-आऊट भी बड़ा अटपटा...। किसी फोटो में कुछ राक्षस जलती भट्टी के आसपास खड़े हैं और भटटी पर बड़े से कड़ाह में तेल गर्म हो रहा है। उसमें कोई मनुष्य पड़ा रो रहा है... वो कल्पना करने की कोशिश किया करती थी कि उस गर्म तेल से कितनी जलन हो रही होगी..., फिर किसी में मनुष्य को सुए चुभोए जाते हुए भी दिखाया गया था और भी कई... उन फोटो में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नजर नहीं आता था... गोयाकि नर्क तो दोनों के लिए एक-सा ही था। और स्वर्ग... ? ये सवाल जब उसने बचपन में ही किया था तो जवाब देने वाला गफ़लत में आ गया था। स्वर्ग उसमें ठंडी-ठंडी हवाएँ बहती है, झरने बहते हैं, खूबसूरत फूल खिलते हैं, मद्य (सीधे कहते हुए भावना अकड़ी जाती है- दारू...) और सुंदरी...। उसने मान लिया, लेकिन उस दिन जब उसने कड़ियाँ जोड़ी तो सवाल उठा – ‘ये सब तो पुरुषों के लिए हैं, हम महिलाओं के लिए स्वर्ग कैसा है।’ जवाब था ही नहीं तो मिलता कैसे...? बस यहीं से उसके दुख शुरू हो गए। महिलाओं के लिए तो स्वर्ग है ही नहीं, मतलब उसके लिए तो दोहरा नर्क है... एक जो धार्मिक कथाओं में है और दूसरा ‘पृथ्वीलोक’... ‘मृत्युलोक’...। तो नर्क में तो कोई अंतर नहीं है, हाँ अघोषित रूप से स्वर्ग तो सिर्फ पुरुषों के लिए ही है...।
तो आजकल वो लगी है, स्त्रियों के लिए स्वर्ग का ‘कंसेप्ट’ बनाने में... आइए जरा उसकी मदद कीजिए... ।
Labels:
जीवन,
महिला दिवस,
विचार
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment