Sunday, 16 August 2009
'वह अर्थशास्त्री'
लाई हयात आए, ले चली कज़ा चले
अपनी ख़ुशी से आए न अपनी ख़ुशी चले
सुबह की गाढ़ी नींद में उलझा हुआ था ये शेर नींद खुली तो टप से गिरकर दिन पर बिखर गया। फिर खुली सवालों की पोटली, उसमें से निकला सवाल.... है और होना चाहिए, पाने और होने.....ख़्वाहिशों और हकीकतों, चाहने और पाने के बीच की खाई इतनी चौड़ी क्यों है? क्यों है ये असंगति.... ये एब्सर्ड(कामू के शब्दों में)? क्या है जो हमें तमाम प्रयासों के बाद भी उससे दूर रखता है जिसकी हमें उस समय में सबसे ज्यादा जरूरत होती है? हमारे पास हर चीज के लिए शब्द हैं, इसके लिए भी है.....परिस्थिति....समय का फेर..., योग्यता, प्रतिभा और अवसर की कमी...सारी स्थूलता, वो जो दिखाई देता है। फिर भी सवालों की आग बुझ नहीं पाती है। बहुत सुविधा से भाग्य या प्रारब्ध जैसे शब्दों से कन्नी काट लेते हैं, क्योंकि हमें विज्ञान ने सिखाया है कि जो दिखता है, बस वही सच है, शेष कुछ है ही नहीं, झूठ भी नहीं, क्योंकि झूठ होने के लिए भी तो कुछ होने की जरूरत होती है। हम सूक्ष्मता को देखते नहीं है, देखना नहीं चाहते हैं, क्योंकि वह समय के अनुकूल नहीं है। हम क्षणवादी हो रहे हैं, 'आज' सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है, वही सच है, कल भ्रम है, बीता हुआ भी और आने वाला भी। इसीलिए भावनाओं और विचारों के अस्तित्व पर हम विचार नहीं करते हैं। हम डरते हैं, पीड़ा से.... असफलता से.... तकलीफ से....प्रकारांतर से ख़ुशी से भी...।
फिर भी कुछ तो है, कोई तो है जो सीमित संसाधनों से असंख्य लोगों की अनगिनत इच्छाओं का सामंजस्य करता है। वह पूरी दुनिया के लिए अर्थशास्त्री की भूमिका का निर्वहन कर रहा है। कह सकते हैं कि अभी इस गुत्थी को हम सुलझा नहीं पाए हैं, इसलिए 'उसका' अस्तित्व है। अक्सर यह विचार आता है कि 'उसका' होना सवालों से शुरू हुआ था और वह तब तक होगा जब तक हमारे पास एक भी सवाल है....इसके आगे कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
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मैं खुद इस गुत्थी में उलझा हूँ....कहते हैं बीच मझधार
ReplyDeleteachchha hai dil ke pass rahe pasabane akl.... per kabhi ise tanha bhi chhod dije.
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