Tuesday, 1 September 2009

जीना इसी का नाम है



फिर से एक मुश्किल दौर... हरदम भागना.... हर पल को पकड़ कर निचोड़ लेने की बेकार और असफल-सी कोशिश... पता नहीं किस बात की जल्दी... कभी-कभी ये किसी मानसिक समस्या का लक्ष्ण लगता है। हर क्षण को अर्थपूर्ण बनाने के चक्कर में लगातार खुद से दूर...। किसी काम को करने से क्या मिलेगा जैसा प्रश्न हमेशा उठता है (नहीं ये मिलना भौतिक नहीं है, इसलिए ज्यादा घबराने की वजह भी नजर नहीं आती)। कुछ भी हल्का-फुल्का नहीं चाहिए... गहरा विचार, गंभीर लेखन, डूबोने वाला संगीत, गहरी नींद....गहरी अनुभूतियों से पगे पल(जबकि अनुभूतियों तक पहुँचने के लिए धीरज की जरूरत होती है। इस तरह की दौड़ तो झड़ी लगी बारिश की तरह है जो होती तो बहुत तेज है, लेकिन जब पानी ठहरता ही नहीं है तो फिर उतरेगा कैसे? गहरे उतरने के लिए तो उसका रिसना जरूरी है, और इसके लिए बादलों का धीमे-धीमे झरना.... फिर...?) हर पल कुछ ना कुछ करना..... सुनना, सोचना, लिखना, पढ़ना, काम करना, नौकरी करना, सोना....लेकिन इन सबमें हम कहाँ है? हम सबकुछ में खो रहे हैं। घड़ी की सुई पकड़े धीरे-धीरे सरक रहे हैं और समय को हाथ से छूटते देख रहे हैं....महसूस नहीं कर पा रहे है, कभी रूककर समय के सरकने और खुद के बहने को महसूस करने की फुर्सत नहीं पाते या ऐसा करना ही नहीं चाहते, क्योंकि कहीं पढ़ा था कि --- इनर हमेशा इन्टॉलरेबल होता है.....। तो क्या खुद से भागकर कुछ पाया जा सकता है? हाँ बहुत कुछ.... बल्कि यूँ कहे कि खुद से भाग कर ही पाया जा सकता है, जो चाहो....यदि याददाश्त ठीक है तो युंग ने कहा था कि दुनिया का सारा सृजन खुद से भागने की प्रक्रिया है, या फिर शायद ये मेरा ही ईजाद किया सूत्र है, लेकिन ये हमेशा सही लगता है। फिर खुद के पास रहने की इस तड़प का क्या मतलब है? क्या ये पलायन है या फिर तमाम अर्थहीनता की तीखी चेतना.... स्थूल और सुक्ष्म दुनिया में बारी-बारी से डूबने-तैरने का दौर.... भौतिकता और आध्यात्मिकता की साझी भूख.... अंदर और बाहर को भरने और जानने के बीच संतुलन को साधने का प्रयास...जिंदा रहने और जीने के बीच की खूबसूरत संगत.....! शायद जीना इसी का नाम है।
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इसी छीजते जाते जीवन में किसी गहरी अनुभूति के पल में फिर से सूत्र के मोती हाथ आए हैं।
# एक ही समय में कई सच होते हैं, जो एक-दूसरे के विपरीत होते हैं।
# रोना भी सृजन करना ही है।
# सौन्दर्य हमेशा दुर्गम होता है।
# जीवन के हर क्षेत्र में चढ़ाव मुश्किल और ढ़लान आसान होती है।

2 comments:

  1. sach...jina isi ka nam hai.sutra adbhut hain.

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  2. सांसों की इस दौड़ में जब कोई लम्हा ठहरता है तो अहसासात की तासीर बदल जाती है.हर लम्हा , अपने हमसाया लम्हे का खालिक़ बन जाता ,एक सच दूसरे सच को उरियां करता है. हकीक़त,ख़ाब से डरती है.गुलाबी सवाल गहरे समन्दरों से फ़िज़ूल की जिरह करते हैं . ख़ुद से फ़रार होकर संत तो बन सकता है लेकिन हम जैसे खुद्फ़रोशों के नसीब में ये सब कहाँ ...इसलिए दौड़ते रहो ...सांसों की सलीब तक >>>>>> दौड़ना अनंत है ,

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