Friday, 30 October 2009
मैं....
जिम्मेदारी....शौक और जरूरत को अपनी पूरी ऊर्जा और पूरी क्षमता से सजाने की ज़िद्द.....दिन की चेतना के हर एक मिनट का अर्थ तलाशते...हर एक क्षण को अर्थवान बनाने का जुनून....आसमान पर हीरे से लिखी इस इबारत के बाद भी कि जीवन की कोई अर्थवत्ता नहीं है...जन्मे हैं तो जीना है...और मरने के बाद कुछ नहीं होगा....ये ज़िद्द और जुनून बीमारी का रूप लेने लगी है। कभी दूसरे के समक्ष खुद के होने को तो कभी खुद अपने ही सामने खुद को सिद्ध करने की सनक...कहाँ ले जा रही है.....? और क्यों है ये सब....इसका जबाव कभी नहीं मिला....।
होंगे किसी के दिल और दिमाग अलग यहाँ तो कब दिल कहता है और कब दिमाग तय ही नहीं होता..... भागते समय के सिरे को पकड़ने की बेतुकी कोशिश और उसमें अर्थ के रंग भरने की नामुमकिन सी कवायद का कहीं कोई अंत नजर नहीं आता है। कुछ है जो लगातार बेचैन किए रहता है। एकाएक जीवन की अर्थहीनता का बोध जाता रहता है और सिद्ध होते रहने की चुनौती सवार हो जाती है। बस इस सबमें ही सहजता और सरलता कहीं कुचल कर दम तोड़ देती है। पता नहीं कब कहाँ और कैसे ये सब कुछ छूट गया है और ऐसा छूटा है कि कहीं इसके निशान ही नहीं मिलते। गहरी यातना का दौर है....उपर से सब कुछ सरल और सहज दिखती जमी हुई बर्फ के नीचे बहता लावा नजर नहीं आता है, लेकिन जलाता तो है ही ना....!
अच्छ से जीना शायद ज्यादा जरूरी है, अच्छे से लिखने या कुछ रचने के.....लेकिन सब कुछ को तरतीब से करने के भँवर में जो बुरे फँसे हैं उनका क्या किया जा सकता है? क्या हो सकता है इसका इलाज.....।
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जन्में है तो जीना है. और मरने के बाद कुछ नही है.
ReplyDeleteयही सच है.
कुछ नहीं.....
ReplyDelete★☆★☆★☆★☆★☆★☆★☆★
ReplyDeleteजय ब्लोगिग-विजय ब्लोगिग
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सत्य के करीब!!!!
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मगलभावनाओ सहीत
मुम्बई-टाईगर
SELECTION & COLLECTION
पर कभी कभी बैचेनी ही लिखने का सबब बनती है
ReplyDeleteरचना महत्वपूर्ण है,रचनाकार महत्वपूर्ण है.लेकिन जीवन....जीवन सबसे महत्वपूर्ण है.
ReplyDeleteन तो ज़िन्दगी अफ़साना है और न अफ़साना ज़िन्दगी है] ज़िन्दगी तो सतत बहते,चहकते या महकते रहने का नाम है.किसी शाईर का शेर है ...ज़िन्दगी एक दौड़ है तो साँस फूलेगी ज़रूर / या बदल मफ़हूम(अर्थ) उसका या फिर फरियाद न कर. निदा फाज़ली ने भी कुछ बहुत अच्छा कहा है - यही है ज़िन्दगी कुछ ख़ाब चंद उम्मीदें / इन्हीं खिलोनों से तुम बहल सको तो चलो. और गुलज़ार साहब ने तो छोटी बहर में ग़ज़ब बात कही है>>>ज़िन्दगी यूँही बसर तन्हा/काफ़िला साथ और सफ़र तन्हा. हमारी ज़िन्दगी से शिकायत बिलकुल जायज़ है लेकिन बेरुखी तो कुफ़्र है खासतौर पर उन लोगो के लिए क्रियेटिव हैं या तख्लीक करने वाले हैं.उन्हें तो मायूसियों को हमेशा ज़िन्दगी के हाशिये पर रखना चाहिए. कहते हैं न कि साँस है तो आस...इस के बाद तो शून्य है ऐसा शून्य जिसकी तशरीह या व्याख्या बड़े बड़े फ़ल्सफ़ी भी आज तक नहीं कर पाए हैं. हमें तो बस ख़ाब देखना चाहिए,ख़ाब सोचना चाहिए,ख़ाब जीना चाहिए. ख़ाब बहुत नाज़ुक हैं इन्हें ज़माने कि नज़र न लगे इसलिए एक काला डोरा बांध दो गले में ...ख़ाब महफूज़ हो जायेंगे.
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