Monday, 12 October 2009

गुम हो चुकी लड़की....चौथी कड़ी



गतांक से आगे
दो दिन से लगातार बारिश हो रही है..... घर से बाहर निकलने की भी मोहलत नहीं मिली। इन दिनों में सर्फिंग-चेटिंग...... मेलिंग-कालिंग.....टीवी और मूवीज सब कुछ हो चुका और अब बुरी तरह से ऊब गया हूँ....। अपने कमरे की खिड़की से बाहर की ओर देख रहा था कि माँ ने बताया कि वो बीमार है।
जब मैं उसके कमरे में पहुँचा तो वह सो रही थी, उसकी टेबल पर कबीर की साखी किताब पड़ी हुई थी। मैं चुपचाप कुर्सी पर जाकर बैठ गया। वह गहरी नींद में थी। उसकी आँखों की कोरों से कानों तक सूखे हुए आँसुओं के निशान थे। बहुत धीमी आवाज में गुलाम अली की गज़ल --- सो गया चाँद, बुझ गए तारे, कौन सुनता है ग़म का अफसाना.... चल रही थी। रोते-रोते सोए बच्चे की तरह ही उसने नींद में सिसकारी भरी। यूँ लगता है कि उसके अवचेतन पर कोई गहरी चोट हो....। मैंने वह किताब उठा ली और उसे उलटने पलटने लगा। तभी चाची कमरे में आ गई....अभी उठी नहीं।
हाँ गहरी नींद में है।
उन्होंने उसके सिर पर हाथ रखा तो वह चौंक कर उठ गई।
बेटा देख तुझसे मिलने कौन आया है।-- चाची ने कहा और वे हमारे बीच से सरक गई।
अरे.... कब आए..... मुझे उठाया क्यों नहीं।- उसने बीमार आवाज में पूछा।
तुम तो घोड़े बेचकर सो रही थी, मैंने आवाज भी लगाई, लेकिन तुम उठी ही नहीं।-- मैंने झूठ बोला।---क्या हुआ, क्या प्यार का ओवरडोज हो गया?--मैंने चिढ़ाया।
उसके चेहरे पर बहुत बारीक मुस्कुराहट आई।-- प्यार का कभी भी ओवरडोज नहीं होता, तुम नहीं समझोगे.....।
तभी चाची फिर से कमरे में आ गईं। --बेटा तुम्हारे दूसरे डोज का समय हो गया है।
न...हीं....--उसने बच्चों की तरह ठुनकते हुए कहा।
नहीं बेटा दवा नहीं लोगी तो ठीक कैसे होओगी?
उन्होंने उसके हाथ में पानी और दवाई दे दी और चली गईं। वह बहुत देर तक दवाइयों की तरफ देखती रही। मैंने पूछा कब से बीमार हो?
कल रात को तेज बुखार आया फिर उतर गया, फिर सुबह आया अब ठीक है।
चाची ने मेरे हाथ में चाय का कप और उसे दूध का गिलास थमाया और फिर चली गईं।
अब कैसा लग रहा है?
ठीक हूँ, बल्कि हल्का लग रहा है। --उसने चेहरे पर आए पसीने को पोंछते हुए कहा।-- यू नो बीमार होकर अच्छे होना बिल्कुल वैसा है, जैसे पुनर्जन्म हो....। सब कुछ नया-नया.... अच्छा लगता है।
इस बीमारी ने उसकी आवाज की चंचलता को गुम कर दिया .... ऐसा लग रहा था, जैसे आवाज बहुत अंदर से आ रही हो, ठहरी.... गंभीर और शांत। उसका चेहरा भी एकदम धुला-पुछा और सौम्य लग रहा था। उसने खिड़की की तरफ देखा... तो, क्या करते रहे दो दिन....? बारिश हो रही है घर से बाहर तो जा ही नहीं पाए होगे?
हाँ यार... सब कुछ करके भी समय नहीं कट रहा था।
उसने चिढ़ाया, क्यों....तुम्हारा इंटरनेट और ये वो... क्या काम नहीं कर रहे हैं? खुद से भागने के तो तमाम साधन है.... कम पड़ गए क्या? कभी खुद के पास ही बैठ कर देखो... हमेशा क्या अपने से भागना।--उसने आँखें मूँद ली।
मैं उसे देख रहा था, वो एकाएक बहुत बड़ी-बड़ी सी लगी....। मैं उसे सह नहीं पाया... और कबीर की शरण में हो लिया।
सुनो, तुम मुझे रजनीगंधा के बल्ब ला दोगे...?---उसने आँखें खोलकर पूछा।
रजनीगंधा के बल्ब....! कहाँ मिलेंगे....?
किसी भी नर्सरी में या फिर बीज की दुकान में। मैं चाहती हूँ कि इस सर्दी में घर के हर कोने में रजनीगंधा महके....।
मुझे उसकी आँखों में महकते रजनीगंधा दिखने लगे थे।
क्रमशः

4 comments:

  1. ye sari udas khubsurat larakiyon ko rajanigandha kya achche lagte hain?...intence story.

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  2. बहुत अच्छी कहानी कही है आपने
    आगे का इंतजार है

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  3. रजनीगंधा, गुलाम अली.. प्यार का ओवरडोज.. बिमारी के बाद का पुनर्जन्म.. इन सबने मिलकर कहानी में जान डाल दी..

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  4. hmmmmmmm........... achcha laga

    ab aage ka intezaar hai.........

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