Thursday, 10 December 2009

असंतुष्ट सुकरात की तलाश में....


फिर से एक मुश्किल दौर....सब कुछ सामान्य है शायद इसलिए.....ऐसे ही समय में अक्सर जेएस मिल याद आ जाते हैं.....जिनका लिखा हुआ हम अपने यूनिवर्सिटी के दिनों में दोस्तों के बीच दोहराया करते थे। बेंथम के सिद्धांत के विरूद्ध उन्होंने अपने विचार देते हुए कहा था कि -- It is better to be a dissatisfied man than a satisfied pig and it is better to be a dissatisfied SOCRATES than a satisfied fool...और हर उस दोस्त का मजाक उड़ाते थे जो संतुष्ट होकर जीता था। इन दिनों बहुत कुछ 'सेटिस्फाईड फ़ूल' जैसे हालात है, लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्योंकि एक बेचैनी और खुद के चुक गए होने का अहसास शिद्दत से हो रहा है। दूसरों के सामने खुद को सिद्ध करने की चुनौती हमेशा नहीं होती है, लेकिन खुद को खुद के सामने सिद्ध करने की चुनौती हमेशा सवार होती है। कभी भी खुद को इससे आज़ाद नहीं पाया है। उस पर तुर्रा ये कि ओशो का 'बैठो! कहीं जाना नहीं है' भी अपनी ओर खींचता है। अब तक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं कि आखिर जीने के सिद्धांत क्या होने चाहिए....ये भटकाव और अनिश्चितता है, जिससे बड़ी यातना शायद कोई और नहीं होती है....इसीलिए मुश्किल औऱ भी भारी हो जाती है। लगातार-लगातार ये अहसास कि बस अंदर सब कुछ खत्म हो चला है.....खासा बेचैन कर रहा है।
इसे रचनात्मक रूग्णता का नाम भी दिया जाता है, जब कोई विचार, कोई सृजन....कोई नई बात ज़हन में नहीं उभरती है और एक यही बात बेचैन कर देने के लिए काफी होती है। कुछ नया....कुछ नया....क्यों नहीं आ रहा है। हालाँकि बहस तो 'कुछ नया' शब्दावली पर भी की जा सकती है, क्योंकि विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि इस दुनिया में नया कुछ भी नहीं है, लेकिन दूसरे के लिए नहीं खुद अपने लिए तो हो ही सकता है। आप तो यह भी कह सकते हैं कि ये भी क्या 'पीस' है....कुछ लिखने के लिए नहीं हो तो कुछ भी लिख दें....लेकिन आप जरा ये भी बताएँ कि इस बेचैनी को दूर करने का उपाय क्या है?

5 comments:

  1. फिर भी आपने बड़ी विचार परख बात लिख डाली !

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  2. aapke blog par aana bahut achcha lga......rachnnayn bhi lajwaab hai

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  3. दिल में दर्द हो तो दवा कीजे
    जब दिल ही दर्द हो क्या कीजे

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  4. अपनी रचनाओं के माध्यम से कई अच्छी बातें कह देती हैं आप और काफ़ी ज़रूरी सवाल भी

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  5. अब तक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं कि आखिर जीने के सिद्धांत क्या होने चाहिए....ये भटकाव और अनिश्चितता है, जिससे बड़ी यातना शायद कोई और नहीं होती है....इसीलिए मुश्किल औऱ भी भारी हो जाती है। लगातार-लगातार ये अहसास कि बस अंदर सब कुछ खत्म हो चला है.....खासा बेचैन कर रहा है।

    ये बेचैनी ही रास्ता बता जायेगी एक दिन. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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