Friday, 21 October 2011
नींद आ जाए अगर आज तो हम भी सो लें...
पता नहीं वो सपना था या विचार... रात के ऐन बीचोंबीच एक तीखी बेचैनी में मैंने अपने शरीर पर पड़ा कंबल फेंका औऱ उठ बैठी। चेहरे पर हाथ घुमाया तो बालों की तरफ से कनपटी पर आती पसीने की चिपचिपाहट हथेली में उतर आई। सिर उठाकर पंखे की तरफ देखा, फुल स्पीड में चलते पंखे ने अपनी बेचारगी जाहिर कर दी...। सिरहाने से पानी का गिलास उठा लिया, एक ही साँस में उसे पूरा गले में उँडेल लिया... लेकिन कुछ अनजान-सा अटका हुआ है, जो किसी भी सूरत में नीचे नहीं जा रहा है। सुबह-शाम-दिन-रात एक अपरिचित बेचैनी है, बड़ी घुटन। सबकुछ अपनी सहज गति से चल रहा है, लेकिन कहीं-कुछ चुभता है, गड़ता है और परेशान कर रहा है। थोड़ी कोशिश की तो नींद आ ही गई ... हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएँगें, अभी कुछ बेकरारी है, सितारों तुम तो सो जाओ...। सुबह फिर उसी बेचैनी में नींद खुली थी, उनींदी आँखों से घड़ी को देखा तो सात बजने में बस कुछ ही देर थी... पंखे की हवा ठंडी लग रही थी, लेकिन सोचा बस बिजली गुल होने ही वाली है... दिमाग के गणित से निजात कहाँ...?
चॉपिंग बोर्ड पर हाथ प्याज काट रहे हैं, लेकिन दिमाग का मेनैजमेंट जारी है। सब्जी छोंकने के दौरान ही दाल पक जाएगी और उसी गैस पर फिर चावल रख दूँगी। सब्जी बनते ही दाल छौंक दूँगी... दस बजे तक सारा काम हो ही जाएगा। फिर दो-चार पन्ने तो किताब के पढ़ ही पाऊँगी, आज नो इंटरनेट... बेकार समय बर्बाद होता है। कड़ाही में मसाला भून रहा है, लेकिन दिमाग में अलग ही तरह की खिचड़ी पक रही है। आज भी पुल से नहीं जाना हो पाएगा... अखबार में ही तो पढ़ा है कि यहाँ किसी पोलिटिकल पार्टी की आमसभा है, तो जाम की स्थिति बनेगी...। रिंग रोड से जाना ही सूट करता है। हालाँकि इस रोड पर बहुत गड्ढे हैं, लेकिन कम से कम जाम... अदिति कहती है कि तुम्हें मेडिटेशन करना चाहिए... लेकिन दिल और दिमाग दोनों को साध पाना क्या आसान है, खासकर तब जब दोनों की गति हवा की तरह हो... वो कहती है कि किसी को इतना हक नहीं देना चाहिए कि वो आपको दुख पहुँचा सके... उफ्! भूल गई... कहीं पानी ओवरफ्लो तो नहीं हो रहा है। दौड़कर देखा, बच गए। आखिरकार हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा पानी, बिजली, ईंधन औऱ पर्यावरण पर...। लेकिन क्या इतने अनुशासन के बाद जीवन में रस बचा रहेगा। तो क्या अनुशासन को उतार फेंके जीवन से...? फिर से सवाल...।अदिति का कहना सच है, जो भी दिल के करीब आता है, जख्म बनके सदा... तो क्या करें...? दिल के दरवाजे बंद कर के रखें! ... कितने दिनों से एक ही किताब पढ़ रही हूँ, आखिर इतनी स्लो कैसे हो सकती हूँ... मसाला तेल छोड़ने लगा है, लेकिन प्रवाह सतत जारी है, मशीन का बजर बज गया। घड़ी ने साढे़ दस बजा दिए। ना तो इंटरनेट हो पाया और न ही किताब के पन्ने पलटे गए। सोचा था आज साड़ी, लेकिन अब समय नहीं है, सूट... पिंक... नहीं यार आज मौसम अच्छा है, कोई तीखा रंग। सिल्क... पागल हो क्या? मौसम कितना खराब है, दिन भर घुटन होती रहेगी... फिर... कोई सूदिंग-सा कपड़ा... कॉटन...। दिमाग ने सारी ऊर्जा सोख ली... अभी तो दिन बाकी है।
यार दो ही भाषा आती है, कितना अच्छा होता पाँच-सात भाषाएँ जानती... तो कितना पढ़ पाती, जान पाती, समझती और महसूस कर पाती...। उफ्...! अदिति कहती है कि - कितनी भूख है यार तेरी... बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...। कहीं तो लगाम लगानी ही पड़ेगी ना...! कोई न कोई नुक्ता तू ढूँढ ही लाती है दुखी होने के लिए... छोड़ इस सबको... जीवन को उसकी संपूर्णता में देख...। काश कि वो मुझे वैसे दिख पाता...। – ओ...ओ... अभी बाइक से टकराती... ये दिमाग पता नहीं कहाँ-कहाँ दौड़ता फिरता है। उफ्... आज फिर किताब घर पर ही रखी रह गई। ले आती तो एकाध पन्ना पढ़ने का तो जुगाड़ भिड़ा ही लेती...। कब तक फिक्शन ही पढ़ती रहूँगी, कभी कुछ ऐसा पढूँगी जो नॉन-फिक्शन हो...। अरे... अभी तो पढ़ी थी वो डायरी...। हाँ, वो है तो नॉन फिक्शन...।
खिड़की से आती स्ट्रीट लाइट ने एक बार फिर ध्यान खींचा और मैंने पर्दा खींचकर उस रोशनी को बाहर ढकेल दिया। आँखों के सामने अँधेरा घिर आया... अंदर-बाहर बस अँधेरा ही अँधेरा... कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। कई-कई रातों से नींद के बीच कुछ-न-कुछ बुनता हुआ-सा महसूस होता है, लगता है जैसे नींद भी कई-कई जालों में फँसी हुई है। लगता है कि कोई ऐसा इंजेक्शन मिल जाए, जिसे सिर में लगाएँ और रात-दो-रात गहरी नींद में उतर जाएँ...। कुछ अजीब से परिवर्तन हैं – संगीत सुहाता नहीं, डुबाता नहीं... सतह पर ही कहीं छोड़ जाता है, प्यासा-सूखा और बेचैन... किताबें साथी हो ही नहीं पा रही है, वो छिटकी-रूठी हुई-सी लगती है। कुछ भी डूबने का वायस नहीं बन रहा है... ना संगीत, ना किताबें और न ही रंग... क्यों आती है, ऐसी बेचैनी, क्यों होता है सब कुछ इतना नीरस और ऊबभरा... ? ऐसी ही बेचैनी में उठकर अपने स्टूडियो में आ खड़ी होती हूँ। जिस कैनवस पर मैं काम कर रही हूँ, उसके रंग देखकर ताज्जुब हुआ... कैसे पेस्टल शेड्स दाखिल हो गए हैं, जीवन में...! हल्के-धूसर रंगों को देखकर हमेशा ही कोफ्त होती रही है, लेकिन मेरे अनजाने ही वे रंग मेरे कैनवस पर फैल रहे हैं... उफ् ये क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है, क्या है जो बस धुँआ-धुँआ सा लगता है, कुछ भी हाथ नहीं आ रहा है।
दिल को शोलों से करती है सैराब, जिंदगी आग भी है पानी भी... आज तो बस शोलें ही शोलें हैं... तपन है तीखी। अदिति कहती है कि तुम्हें बदलाव की जरूरत है... बदलाव कैसा...? कहती है एक ब्रेक ले लो... ब्रेक... किससे... खुद से, यार यही तो नहीं हो पाता है। खुद को ही कभी अलग कर पाऊँ तो फिर समस्या ही क्या है...? कितनी दिशाओं में दौड़ रही हूँ, खींचती ही चली जाऊँगी और अपने लिए कुछ बचूँगी ही नहीं....। कहीं कोई मंजिल नजर नहीं आ रही है... दौड़ना और बस दौड़ना... क्या यही रह गया है जीवन... ? कहीं किसी बिंदू पर आकर निगाह नहीं टिकती है, अजीब बेचैनी है... स्वभाव में, विचार में, जीवन में तो फिर निगाहों में कैसे नहीं होगी? पढ़ने के दौरान कई सारे पैरे पढ़ने के बाद भी मतलब समझ नहीं आता... लगता है कि एकसाथ कई काम करने हैं और फिर तुरंत लगता है कि क्या करना है और क्यों करना है?
रफी गा रहे हैं – तल्खी-ए-मय में जरा तल्खी-ए-दिल भी घोले/ और कुछ देर यहाँ बैठ ले, पी ले, रो ले...। चीख कर रोने की नौबत आने लगी थी... मुँह को हथेली से दबाया और खुद को चीखने की आजादी दे डाली... एक घुटी हुई सी चीख निकली और फिर देर तक सिसकियाँ... गज़ल चल ही रही थी – आह ये दिल की कसक हाय से आँखों की जलन/ नींद आ जाए अगर आज तो हम भी सो ले... गहरी... मौत की तरह की अँधेरी नींद की तलब लगी थी... शायद मैं भी सो गई थी...
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रचनात्मक जीवन जी रही हो...
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