Wednesday, 26 October 2011
पता होता है तो घर खो जाता है...!
तथ्य तो ये है कि कार्तिक आधी उम्र जी चुका है, लेकिन सत्य यह है कि अभी तक तो क्वांर ही नहीं बीता... तो निष्कर्ष यूँ कि जरूरी नहीं है कि जो तथ्य हो वो सत्य हो ही और ये भी जरूरी नहीं है कि जो सत्य हो, उसमें तथ्य हो ही... ऊ हूँ... बात जरा मुश्किल हो रही है। थोड़ा आसान करके समझें... दीपावली से पहले सारे आर्थिक सर्वेक्षण ये गा रहे हैं कि देश में गरीबी कम हुई है लेकिन करीब बन रही कॉलोनी के सारे चौकीदार साल की इस सबसे अँधियारी रात को एक-एक दीए से रोशन करने की कोशिश में लगे हैं... कारण... इससे ज्यादा तेल जलाने की उनकी कुव्वत भी नहीं है और साहस भी नहीं है... तो तथ्य ये कि गरीबी कम हो रही है और सत्य ये कि गरीब तो वहीं के वहीं है, वैसे के वैसे ही... अभी भी कुछ समझ नहीं आ रहा है, छोड़िए... कुछ और बात करते हैं।
हाँ तो कार्तिक की खुनकभरी सुबह-शाम चाय का गर्म प्याला अभी तक खुले में ही मजा दे रहा है। सुबह की चाय अखबार की उबाऊ और अवसाद देने वाली खबरों के साथ और शाम की चाय आखिरी सिरे पर दिन भर की जुगाली के साथ...। तो उस शाम हमारी चाय में परिवार के और लोग भी शामिल हुए... तमाम दुनिया जहान की बातों के बीच न जाने कहाँ से वो रहस्यमयी खुशबू सरसराती हुई घुस गई... अरे... ये तो रातरानी की खुशबू है, हमने आश्चर्य जताया, लेकिन हमने तो अभी तक रातरानी लगाई ही नहीं, तो फिर ये खुशबू कहाँ से आ रही है। हमारे आसपास बहुत किफायती लोग रहते हैं, ना तो जमीन बेकार छोड़ी और न ही किसी मुँडेर पर कोई गमला नजर आता है... पानी की भी किफायत और जमीन की भी... पैसों की तो खैर है ही...। तो फिर ये खुशबू कहाँ से आ रही है...? घर के आसपास लगे पौधों में जाकर सरसरी तौर पर देख भी लिया, लेकिन शाम के धुँधलके और पेड़-पौधों के गुँजलक में क्या रातरानी दिखे, फिर जब अभी तक लगाई ही नहीं है तो होने का तो सवाल ही नहीं उठता है।
किचन में सिंकती रोटी के साथ फिर से वही मादक और जंगली-सी सुगंध... रात के खाने के बाद टहलते हुए भी फिर वही... उफ्...! अब तो कॉलोनी छोड़कर सड़क पर टहलो तो वहाँ भी... जैसे वो सुगंध हमारा ही पीछा कर रही है। मुश्किल ये है कि दिन के उजाले में वो खुशबू नहीं होती कि उस बेल का पता मिले और शाम के धुँधलके में जब खुशबू का पता होता है तो वो घर ही खो जाता है। पिछले 15 दिनों से यही लुकाछिपा का खेल चल रहा है, लेकिन न रातरानी की खुशबू हारी और न ही हमें जीत मिली... फिर एक दिन सोचा कि क्यों न रातरानी को लगा ही लिया जाए, अब उसे लगाया तो है, लेकिन उसे फूलने में वक्त है... पर, ये खुशबू...! उफ्.. तो लब्बोलुआब ये है कि रातरानी हमारे आसपास नहीं है ये तथ्य है, लेकिन उसकी खुशबू सत्य... तो क्यों न उस खुशबूदार सत्य से रिश्ता रखें... रातरानी के तथ्य का फायदा क्या है? शायद अब सत्य-तथ्य की गुत्थी समझ आए...!
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एक दार्शनिक पहेली का इतना सुगंधित हल...साधुवाद...
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