Sunday, 6 November 2011
रास्ते में यूँ ही...!
अपनी गाड़ी खराब होने के दौरान बस के समय को साधने और किसी वजह से बस छूट जाने के बाद बस या ऑटो का इंतजार करना कैसा होता है, ये वो ही समझ सकता है, जिसे ये करना पड़े। जब कभी ऐसा होता तो लगता कि काश कोई महिला अपनी टू-व्हीलर या फिर कार में हमें मुख्य सड़क तक लिफ्ट दे दें, माँगना अपने राम को कभी आया ही नहीं। किसी को अपनी कोई चीज ही दी हो, चाहे उपयोग करने के लिए, उधार (ये तो सिर्फ पैसा ही दिया जाता है) या फिर उपहार में... जरूरत पड़ने पर माँगने में जैसे हमारी ही जान निकल जाती है, तो अब खड़े हुए बस या ऑटो का इंतजार करेंगे, लेकिन लिफ्ट... वो तो नहीं होना। ऐसे ही किसी समय में ये तय किया कि अब अपनी गाड़ी में हम उन महिलाओं और लड़कियों को लिफ्ट देंगे जो हमारे जाने के रास्ते में कहीं भी जाना चाहेंगी। दी तो लड़कों-पुरुषों को भी जा सकती है, लेकिन इसमें बड़ा झंझट है... कई सारे पेंच हैं।
हुआ ये कि जिस दिन ये तय किया उसके बाद कभी ऐसा मौका आ ही नहीं पाया। कभी हम निकले तो बस सामने खड़ी थी, जिसमें चढ़ने के लिए कॉलेज-यूनिवर्सिटी जाती लड़कियाँ इंतजार कर रही थी, तो कभी पूरे परिवार के साथ महिला खड़ी थी, तो कभी एकसाथ इतनी लड़कियाँ खड़ी बतिया रही थी कि उन सारी की सारी को गाड़ी में बैठाने की गुँजाइश ही नहीं थी, कुछ और नहीं तो खुद हमें ही इतनी हड़बड़ी होती थी कि गाड़ी रोककर ये पूछना तक समय जाया करना लगता कि – कहाँ जाना है, मैं छोड़ देती हूँ। देखिए नीयत भी हो, इच्छा भी... लेकिन नसीब...! उसका क्या...?
पता नहीं सब कुछ बड़े आराम से करने, सुबह की पूरी दिनचर्या को विलासिता के साथ शब्दशः निभाने और फेसबुक पर लपककर जुगाली करने के बाद भी जल्दी तैयार हो गई। लगा कि आज गाड़ी को भी थोड़ा दुलरा दिया जाए। धूप खासी थी फिर भी कपड़े का एक झटका इधर मारा, एक झटका उधर मारा और ऊब होने लगी तो लगा कि सेल्फ मारे और चलें काम पर। भई देर से जाओ तो शर्मिंदा होओ... जल्दी जाने में कैसी शर्म...? वहाँ पहुँचकर थोड़ा पढ़ने का समय ज्यादा मिल जाएगा। तो दफ्तर के लिए निकल पड़े। आज... हुई मन की...। मुख्य सड़क पर एक दुबली-पतली, छोटे कद की लड़की जींस-टीशर्ट पहने, सिर सहित मुँह को स्कार्फ से ढँके खड़ी थी... हमने गाड़ी रोकी और फिल्म चढ़े दूसरी तरफ वाले शीशों के अंदर से झाँका... लेकिन लड़की ने तो कोई भाव ही नहीं दिया। हम थोड़े आहत हुए, लेकिन तुरंत ध्यान आया... उस बेचारी दिखाई ही नहीं दे रहा होगा... तो थोड़ा झुककर शीशा उतारा... – कहीं छोड़ दूँ? आवाज तो क्या पहुँच रही होगी... बस उसने ही कुछ अपने से समझ लिया... वो करीब आई... मुस्कुराई और कुछ बुदबुदाई। जैसे उसने मेरी बात बिना सुने समझ ली... मैंने भी समझ ली...। दरवाजा खोला और वो अंदर आ बैठी। थोड़ी सकुचाई-सी वो बैठी रही...मैंने पूछा पढ़ती हो (क्योंकि स्कार्फ से चेहरा ढँका होने पर उसका स्टेट्स कि काम करती है या पढ़ रही है, पता नहीं चलता है, फिर बात करने के लिए कोई तो बात हो...)?
उसने कहा – हाँ।
मैंने पूछा – कहाँ?
उसने जवाब दिया – जीडीसी...
ओह तो फिर तो मैं तुम्हें वहाँ तक छोड़ सकती हूँ। वो तो मेरे ऑफिस के रास्ते में ही है। - मैंने उत्साह में आकर कहा।
उसने कहा – मुझे लगा कि आपको दूसरी तरफ जाना होगा।
कहाँ रहती हो से लेकर, क्या पढ़ रही हो तक की सारी बातें हुई। मैंने उसका नाम भी पूछा, लेकिन उसने सिर्फ मेरा सरनेम पूछा और ब्राह्मण पाकर कुछ खुश भी हुई (स्कार्फ बँधे होने की वजह से उसका चेहरा नहीं देख पाई, लेकिन उसकी आवाज की चहक से मुझे ऐसा अनुमान हुआ)। एक-दो बार मन हुआ कि उससे कहूँ कि अब तो गाड़ी के अंदर हो, स्कार्फ हटा सकती हो... लेकिन कह नहीं पाई। उसका कॉलेज आ चुका था, अब तक भी उसने स्कार्फ नहीं हटाया था। गाड़ी रूकी तो उसने कहा – थैंक्स मैम, नाइस टू मीट यू...।
मैंने भी उसे कहा – सेम हियर... बाय। वो कॉलेज के अंदर चली गई और मैं अपने रास्ते... । विचार चल रहा था, यही लड़की यदि अगली बार कहीं मिली, चाहे स्कार्फ के साथ या फिर बिना स्कार्फ के... मैं उसे नहीं पहचान पाऊँगी...। फिर सवाल उठा कि मैं उसे पहचानना ही क्यों चाहती हूँ। कभी... दिखे तो लगे कि किसी दिन इस लड़की को मैंने उसके कॉलेज छोड़ा था...। फिर प्रतिप्रश्न – और ऐसा क्यों चाहती हो...? कोई जवाब नहीं मिला...। फिर इन कबाड़ से सवाल जवाब में से एक नायाब निष्कर्ष निकला। ‘अच्छा ही हुआ जो लड़की ने अपना स्कार्फ नहीं हटाया। यदि भविष्य में वो कहीं मिली तो पहचान का कोई चिह्न ही नहीं होगा, मेरे पास इससे ये अहसास भी नहीं होगा कि कभी इसे इसके कॉलेज तक लिफ्ट दी थी...कोई बेकार का अहंकार भाव नहीं उभरेगा... वाह!’ कुछ ऐसा लगा जैसे बाल कटवाने पर, या फिर हर दिन ले जाने वाले बैग की सफाई कर बेकार चीजों को निकाल दिया हो, या फिर कमरे या अलमारी की सफाई कर कबाड़ निकाल दिया हो और सब कुछ हल्का, खुला-खुला और बड़ा-बड़ा-सा लग रहा हो।
फिर विचार उठा, लेकिन वो तो मुझे पहचानती है ना...! हाहाहा.... तो ये उसकी समस्या है:-)
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
u r really nice person...
ReplyDelete