Wednesday, 2 November 2011

ताजमहल और उसका सपना…



बच्चों की भीड़ के बीच माँ उसे लेकर घर लौट रही थी। माँ ने उससे उसका बैग लेने की कोशिश की तो उसने माँ का हाथ झटक दिया। मेरे दोस्त मेरा मजाक उड़ाते हैं...- उसने बड़ी मासूमियत से मुँह फुलाकर माँ से कहा। माँ ने उसे हल्के से छेड़ा – क्यों...?
कहते हैं कि ये तो अभी भी बच्चा ही है, इसे लेने इसकी मम्मी आती है, इसकी मम्मी इसका बैग लेकर आती है... और... – माँ ने मुस्कुराते हुए कहा – इसमें क्या है? अभी तू बच्चा ही तो है।
उसने फिर मुँह फुला लिया। वो कहना चाहता है माँ से कि अब मैं खुद से घर आ सकता हूँ। मुझे घर का रास्ता याद है, लेकिन कह नहीं पाता, क्योंकि एक दिन ऐसे ही अकेले घऱ के लिए निकलते हुए जब वो सड़क क्रॉस कर रहा था तो स्कूटर की चपेट में आ गया था। सिर में चोट लगी थी औऱ स्कूटर वाले अंकल उसका ड्रेसिंग करवा कर उसे जब घर छोड़ने गए तो घर में कोहराम मचा हुआ था। स्कूल छूटे घंटा भर हो गया था औऱ वो घर नहीं पहुँचा था, बस पापा पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए निकल ही रहे थे। उस दिन के बाद से उसे हर दिन माँ ही स्कूल छोड़ती औऱ माँ ही लेने जाती थी। छोड़ते समय तो यूँ भी कोई विकल्प नहीं हुआ करता था, लेकिन स्कूल छूटते में कई बार ऐसा हुआ कि यूनिफॉर्म में एक ही उम्र के बच्चे जब स्कूल से छूटते तो उस भीड़ में माँ उसे पहचान नहीं पाती और वो माँ की नजर बचाकर निकल जाता। माँ बहुत देर तक स्कूल के गेट पर खड़ी रहती, फिर जब स्कूल खाली हो जाता और बड़े बच्चे (वो बड़ी क्लास के स्टूडेंट्स को यही कहता था) आने लगते तब माँ स्टॉफ रूम में जाती और तफ्तीश करती। निराश होकर घर लौटती तो उसे वो घर पर खेलता हुआ मिलता। उसके बाद से माँ वहाँ खड़ी होती है, जहाँ से बच्चों को लाइन से छोड़ा जाता। फिर भी कई बार वो गफलत में माँ की नजर बचाकर निकल ही जाता।

खाना खाते हुए वो माँ से पूछता है – आज आपने मेरे टिफिन में मीठे भजिए नहीं रखे थे?
रखे थे, तूने खाए नहीं क्या?
नहीं थे... सिर्फ अचार-पराँठा ही था। - उसने जोर देकर कहा। लेकिन माँ कैसे भूल सकती है... माँ ने तो खुद तले थे...। माँ को खुटका होता है, कहीं उसका टिफिन कोई और तो नहीं खा रहा है। माँ सोचने लगती है... कल जाकर इसकी क्लास टीचर से शिकायत करनी पड़ेगी। वो मीठे भजिए भूलकर अपने साथ खाना खाती बहन को बताने लगता है - आज है ना मोटी मैडम को धीरज ने पीछे से चॉक मारा और नाम जितेंद्र का ले दिया। उस बेचारे को मार पड़ी।
बहन पूछती है आज तेरी मैडम ने क्या पढ़ाया...?
वो दाल-चावल में शक्कर मिलाते हुए कहता है – आज है ना ताजमहल के बारे में बताया। वो कितना सुंदर है, मैंने उसका फोटो देखा है किताब में... बहुत सुंदर, एकदम सफेद झक्क...। अचानक वो मचल कर माँ से कहता है – मम्मी मुझे एक बार ताजमहल दिखा दो ना...।
माँ भी उसका मन रखने के लिए कह देती है – हाँ दिखा देंगे। और काम में व्यस्त हो जाती है। पता नहीं कैसे उसका ये कहना, बहन के अंदर कहीं खुभ जाता है। वो देर तक इस चीज का हिसाब लगाती रहती है कि यदि हम चारों ताजमहल देखने गए तो कितना पैसा लगेगा, हाँलाकि उसे ना तो इस बात की जानकारी थी कि वहाँ जाएँगें कैसे और टिकट कितना होगा, बस यूँ ही अनुमान लगा रही थी... 200 रु. पर हेड... लेकिन हम दोनों तो छोटे हैं ना। तो हमारी तो आधी टिकट लगेगी, मतलब 200 में तो हमारे दोनों का आना-जाना हो जाएगा। आठ सौ रु. में मम्मी-पापा का आना जाना। वहाँ ठहरेंगे कहाँ...? फिर ठहरने के लिए भी तो पैसा चाहिए होगा...। बहुत माथापच्ची करने के बाद उसका हिसाब बैठा ज्यादा से ज्यादा पाँच हजार रु....। पापा क्या इतना पैसा भी खर्च नहीं कर सकते। पता नहीं कैसे ये बात आई-गई हो गई। फिर एकाध बार ताजमहल का जिक्र हुआ तो उसने बहुत अनुनय से माँ से कहा... माँ बस एक बार दिखा लाओ ना ताजमहल...। उसका अनुनय बहन के मन में गाँठ की तरह पड़ गया। जीवन चलता रहा, वक्त गुजरता रहा। यादें धुँधला गई, सपने कहीं बिला गए।

हालाँकि फतेहपुर सीकरी और आगरा उसके टूर का हिस्सा नहीं था, लेकिन इतिहास से फेसिनेटेड आदित्य ने अपने प्रोफेसरों को एक दिन वहाँ रूकने के लिए मना ही लिया। एक तो बिना किसी विघ्न के यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट टूर से लौट रहे थे, दूसरा फंड भी कुछ बच रहा था, इसलिए पहले फतेहपुर सीकरी और फिर आगरा पहुँचे थे। ताजमहल में घुसते हुए उसे बहुत रोमांच हो रहा था... लेकिन लंबा रास्ता पार कर जैसे ही वह उस भव्य, खूबसूरत और झक्क सफेद ताजमहल के सामने जाकर खड़ी हुई, पता नहीं कैसे कोई स्मृति उड़कर उसके सामने आ गई और उसके मन में हूक उठी...। बचपन नजरों के सामने कौंध गया और उसे अपना नन्हा-सा भाई माँ से अनुनय करता याद आया – माँ एक बार ताजमहल दिखा दो...। उफ्...! कितनी छोटी-सी ख्वाहिश थी। फिर ताजमहल को वो वैसे देख नहीं पाई, अंदर भी गई... पीछे भी और फोटो भी खिंचे-खिंचवाए... लेकिन कुछ कसकता-सा रह गया उसके मन में।

जिंदगी की राह में ऐसे मकाम आने लगे/ छोड़ दी मंजिल तो मंजिल के पयाम आने लगे... गज़ल चल रही थी उसके मोबाइल में। यूँ ताजमहल देखने का उसका सपना नहीं था। पता नहीं ये उसके साथ ही होता है या फिर सबके साथ होता होगा कि सपनों की ऊँचाई उतनी ही होती है, जितनी ऊँची नजर जाती हो...। तो एक बार फिर वो ताजमहल के सामने वाली पत्थर की उस फेमस बेंच पर बैठकर फोटो खिंचवा रही थी, जो ये भ्रम देती है कि ताजमहल हमारी ऊँगली की टिप के नीचे हैं। फिर से भाई का वो सपना उड़कर उसके करीब आकर, उससे सटकर बैठ गया और बहुत मासूमियत से उससे पूछ रहा है कि तुझे तो भाई का सपना याद है, क्या उसे याद है कि उसने भी ये सपना देखा था...!

2 comments:

  1. तुझे तो भाई का सपना याद है, क्या उसे याद है कि उसने भी ये सपना देखा था.

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  2. हाँ बिलकुल मुझे मेरा सपना याद है, तुने मुझे रुला दिया, मैं अभी इससे ज्यादा कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ|

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