धूल-पसीने से बदरंग हो रही शकल, कस कर गूँथी गईं दो चोटियों में से भी उड़कर बिखरे बाल और जगह-जगह से गंदी हो गई गुलाब फ्रॉक पहने ना जाने वो कहाँ से प्रकट हो गई और आकर बा के पास बैठ गई। बहुत देर तक लालटेन की चमकती काँच की हंडी को वो मुग्ध होकर देखती रही... हेट-टेल करती रही कि इसे उठाऊँ या नहीं... फिर उसने उसे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ा ही दिया था कि तुरंत बा ने डाँटा... मत कर, टूट जाएगी। उसने उसे छूकर बहुत बेमन से अपना हाथ पीछे खींच लिया।
मुझे भी वरत (व्रत) करना है! – उसने चिरौरी के अंदाज में कहा। माँ तो मुस्कुरा दी, लेकिन बा ने उसे लाड़ से झिड़का – बेटा अपने से नहीं होगा। उन सारी लड़कियों (बा यहाँ अपनी भतीजियों के बारे में बात कर रही थीं) को करने दे... वो सब भूखे रहने में कट्टर है। बहुत कठिन व्रत है वो बेटा...।
अरे मुझे करना है ना... – उस १२-१३ साल की लड़की ने व्रत के कठिन होने की बात को जरा भी तवज्जो नहीं दी, उसे तो बस उन पाँच दिनों में व्रती लड़कियों को किस तरह से पैंपर किया जाता है, वो ही याद है, किस तरह पाँच दिन पूजा में पहनने के लिए कभी किसी भाभी की, चाची, ताई, बुआ, दादी, मामी, मौसी या माँ की सबसे खूबसूरत साड़ी और गहने आ जाया करते हैं। कैसे हर दिन लड़की से पूछा जाता है – ‘आज कौन सी मिठाई-फल खाने हैं...?’ ‘भूख तो नहीं लग रही है, बेटा।‘ ‘अच्छे से पेट भर के खाया या नहीं। ‘ ‘बेचारी बिना नमक का खा रही है... कैसे पेट भरता होगा...’ आदि-आदि....।
बहुत झिक-झिक के बाद आखिर बा ने ये कह कर हथियार डाले कि ठीक है, इस बार करके देख ले, यदि तुझसे होगा तो पाँच पूरे करना नहीं तो एक करके ही हाथ जोड़ लेना... नहीं सधे तो क्या करें? बस बा ने निर्णय कर दिया। उसे सोच-सोच कर ही मजा आने लगा। कभी भाभी की वो ब्लू सितारों वाली साड़ी, तो कभी मम्मी की गुलाबी, बा की फिरोजी और फई की जामुनी साड़ी... सोचने लगी किस दिन किसकी और कौन-सी साड़ी पहनी जाएगी। व्रत में खाने के लिए किसी एक अनाज का चुनाव करना था विकल्प थे तीन – गेहूँ, चावल औऱ ज्वार। माँ ने उसे बहुत समझाया बेटा गेहूँ ले... रोटी, पूरी, पराँठे, बाफले कुछ भी खाए जा सकते हैं। माँ समझती थी कि चार पूरी या एक बाफला खा लें तो दिन भर पेट भरा-भरा रहता है, आखिर तो पाँच दिन तक बिना नमक का एक धान और वो भी एक ही समय जो खाना है... लेकिन उसे तो बस एक धुन थी, चावल.... चावल और चावल.... वजह, नागपंचमी पर बनने वाले चावल के लड्डू जो उसे उस वक्त बेहद पसंद थे और इस बहाने वो जितने चाहे उतने लड्डू खा सकेगी.... जानती नहीं थी कि वैसे लड्डूस खाना और व्रत करके लड्डू खाना दो अलग-अलग बात है। खैर तो आषाढ़ खत्म होने को था। माँ और बा दोनों ही उसके जया-पार्वती के व्रत की तैयारियों में लगी थीं। चावल को धोकर सुखाना और फिर घट्टी में पिसना... व्रत का मामला है, इसलिए आटा चक्की में नहीं पिसवाया जा सकता है, वहाँ तो गेहूँ, पिसा जाता है ना...! तो घट्टी में चावल पिसना... व्रत के लिए खाना बनाने और खाना खाने के बर्तनों को अच्छे से साफ कर अलग रखना। छः दिन की पूजा की सामग्री की तैयारी फिर उसके तैयार होने के लिए कपड़ों की व्यवस्था... उस छुटंकी-सी लड़की को साड़ी पहनाना... ब्लाउज (उस समय इतना पैसा नहीं हुआ करता था, कि एक दिन के लिए अलग से ब्लाउज सिलवाया जाए... तो साड़ियों के साथ के ब्लाउज में टाँके भरना... ताकि फिटिंग ‘ठीक-ठाक’ हो जाए... आदि-आदि... ढेरों काम... थे। फई (बुआएँ) भी मदद के लिए दोपहर में आ जाया करती... और फिर शुरू होता गप्प लगाने, हँसी-ठिठौली करते हुए काम पूरा करने का दौर।
क्रमशः...
शुरुआत अच्छी है... :)
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