Sunday, 1 July 2012
जया-पार्वती - 2
आखिर आषाढ़ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से विधिवत व्रत शुरू हो गए। समाज की धर्मशाला में जया-पार्वती को बैठाया गया। मिट्टी के हाथी पर शिव-पार्वती गेहूँ के जवारों के बीच छत्र के नीचे एक बाजवट (चोकोर पाटा) पर विराजे...। एक शाम पहले उसके खाने पर खासा ध्यान दिया गया। आज अच्छे से पेट भरकर खा ले, नहीं तो कल सुबह उठते ही भूख लगेगी। १२ बजे तक खाना तो दूर पानी-दूध-चाय तक नहीं मिलना है। इधऱ माँ रोजमर्रा के खाने में लगी हैं, उधर बा उसकी पूजा की थाली सजाने औऱ फई उसे सजाने में... माँ को जल्दी है कि रोजमर्रा का खाना निबटे तो किचन साफ कर उसका खाना बनाए। आखिर साफ-सफाई का तो खास ध्यान रखना पड़ेगा ना...! उपवास का मामला है, कुछ ऐठा-जूठा यहाँ-वहाँ न हो जाए।
साड़ी के हिसाब से उसका कद छोटा था। स्कूल के आखिरी साल तक वो प्रेयर में सबसे आगे ही खड़ी हुआ करती थी। कॉलेज में तो प्रेयर हुआ ही नहीं करती थी, इसलिए उसे पता ही नहीं... (पता नहीं किन सालों में उसका कद बढ़ा... बहुत बाद में जब शायद उसकी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई का आखिरी साल था, उसकी एक सहेली ने उससे पूछा कि तेरी हाईट क्या है? और जब वो सोच में पड़ गई तो उसकी सहेली ने उसका खूब मजाक बनाया और पहली बार उसने ही उसकी हाईट नापकर बताई)। फई साड़ी पहना रही है... साड़ी को आधी फोल्ड कर पहनाने में बड़ी मुश्किल आ रही थी, फिर उसके नखरे भी कुछ कम नहीं थे... फई... यहाँ से तो ऊँची हो रही है और ये देखो... ये पोचका निकल आया है...। उसकी चोटियाँ बनाते हुए भी ... ये देखो, इस तरफ के बाल उस तरफ जा रहे हैं... या फिर बाल खिंच रहे हैं... फई उसके नखरों पर मंद-मंद मुस्कुरा रही हैं।
पूजा की थाली भी तैयार हो चुकी थी और वो खुद भी...। माँ और बा दोनों घर में ही उसके खाने की तैयारी में लगी थीं। फई ने उसकी पूजा की थाली उठाई और आस-पास के घरों की दो-तीन लड़कियाँ भी अपनी-अपनी भाभी, माँ, चाची या फिर ताई को अपनी पूजा की थाली थमाए आगे-आगे मस्ती में चल रही थी। दीदी (फई के बेटी) ने फई से कहा... इसकी चाल तो देख... और सारे के सारे मुस्कुराकर रह गए, लेकिन उसके अंदर कोई काँटा-सा गड़ गया। रह-रह कर उसके अंदर ये सवाल धधकता रहता कि आखिर उसकी चाल में ऐसा क्या है, जिसे देखकर सारे के सारे मुस्कुराए...।
लगभग एक से डेढ़ घंटे तक पूजा चलती रही। पूजा के बाद सब अपनी-अपनी बेटियों को जल्दी घर ले जाने के चक्कर में लगे रहे, क्योंकि आखिर बेचारियाँ सुबह से भूखी-प्यासी जो है। घर पहुँचकर ही पानी नसीब होगा। घर में माँ और बा ने मिलकर उसकी थाली लगा दी, उसके अच्छे से टिककर बैठने की व्यवस्था कर दी। जल्दी-जल्दी उसके कपड़े बदले गए और तुरंत खाने पर बैठा दिया। ताऊजी सामने बैठ गए... अच्छे से कुरकुरी तलों पूरियों को... बेटा, खीर में शकर ठीक है या नहीं। वे बुआ से कहते हैं – ‘ऐसा कर यहीं एक गादी लगा दे, बेटा जितना अभी खाया जाए, उतना खा ले, फिर यहीं बिना हाथ धोए सो जा... फिर जब भूख लगे, तब फिर खा लेना...।‘ माँ मुस्कुराती है कह नहीं पाती, लेकिन वो समझती है, माँ कहना चाहती है – ‘ऐसा वरत किया ही क्यों जाए’ और वो जोर से खिलखिला पड़ती है (आज चाहे याद करते हुए उसकी आँखें भर जाती हो)। सुबह ही उससे पूछ लिया जाता कि शाम को कौन-सी मिठाई और फल खाने की इच्छा है? मिठाई... रसगुल्ला... अरे नहीं... रसगुल्ला थोड़ी खाया जा सकता है व्रत में... पता नहीं उसमें क्या सूजी-मैदा पड़ता हो... मिठाई तो मावे की ही खा सकती है बेटा... – माँ ने समझाया। ठीक है... तो आज मलाई बरफी। और फल... आम खाएगी ना? – ताऊजी पूछते हैं।
हाँ, खाऊँगी ना... तोतापरी... – वो कहती है। हट... तोतापरी खाएगी, लँगड़ा आने लगा है अच्छा... – ताऊजी कहते हैं। नहीं, मुझे वो ही पसंद है – वो जिद्द पर आ जाती है। पापा मुस्कुराकर कह देते हैं, ठीक है, दोनों ले आऊँगा, फिर खुद ही कहते हैं यार ये तोतापरी में तो अब कीड़े लगना शुरू हो जाते हैं। लेकिन लौटते तो साथ लँगड़ा भी होता और तोतापरी भी...।
वो सुबह के खाने पर बैठी है और भाई इधर-उधर गोते लगा रहा है, आखिर तो जिस भी घर में बहनें ‘वरत’ कर रही है, उस घर में भाइयों के भी तो मजे हैं। सुबह चाहे बहनों का बेस्वाद खाना नहीं खाया जाए, लेकिन शाम को तो बहन के लिए आने वाले फल, मिठाई और मेवों में से थोड़ा कुछ तो उन्हें भी मिलेगा ना...। शाम को जब बहनें ‘वरत’ की कथा सुनने जाती है, तब भाई भी उनके साथ हो लेते हैं और जब बहनें कथा सुनती हैं, सारी बहनों के भाई मिलकर बाहर इतनी धमाचौकड़ी मचाते हैं कि अंदर ना तो गोरजी महाराज को कथा कहने में मजा आता है और न ही ‘वरती’ बहनों को सुनने में...।
पता नहीं चला कि पाँच दिन कहाँ निकल गए। हाँ उन पाँच दिनों में उसका खास आदेश था, घर में खीरा नहीं आएगा... क्यों? उसे खीरा बहुत...बहुत...बहुत पसंद है और व्रत में खीरा नहीं खाया जाता है। छठें दिन सादा खाना खाया जाता है, लेकिन वो भी एक ही समय...। तो पाँचवे दिन सुबह से ही उससे ये पूछ लिया गया था कि कल क्या-क्या खाना है। मीठा तो वो पिछले पाँच दिन से खा रही थी, सो मिठाई को तो कोई सवाल ही नहीं था। नमकीन में भी पातरा (अरवी के पत्ते) और हाँ दाल-चावल...। और खीरा... बहुत सारा लेकर आना... वो पापा को आदेश-सा ही देती है। पापा मुस्कुराते हैं... माँ कहती हैं – ‘हाँ, हाँ बहुत सारा... खाया जाएगा नहीं कुछ भी।‘ वो बनावटी गुस्सा करते हुए कहती है – ‘आप तो बहुत सारी लेकर आना...बस...।‘
क्रमशः....
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history of a historical girl...
ReplyDeleteजाने अनजाने आपके इस तरह की कहानियों से मुझे भी कुछ न कुछ याद आ ही जाता है..
ReplyDeleteकहानी की अगली किश्त जल्दी लाया जाए :)
जाने अनजाने आपके इस तरह की कहानियों से मुझे भी कुछ न कुछ याद आ ही जाता है..
ReplyDeleteकहानी की अगली किश्त जल्दी लाया जाए :)