Sunday, 29 May 2011
इंतजार... उसकी स्लेट के धुलने का...
हर सुबह मैं इस हसरत से जागता हूँ कि आज उसकी स्लेट पर कुछ अपने मन का लिखूँगा और लगभग हर दिन पाता हूँ कि उस पर इतना कुछ घिचपिच होता है कि मेरे लिखने के लिए जगह ही नहीं बचती। कुछ जिद्द तो मेरी भी है कि घिचपिच में मैं अपना कुछ नहीं लिखूँगा...। तो हर दिन यूँ ही जाया हो रही है जिंदगी...। आज भी बहुत गर्म-सी सुबह जब चाय की ट्रे लेकर उसने मुझे जगाया तो आँखों में झुंझलाहट थी... – आज सन्डे है और आज भी मैंने ही चाय बनाई है।
मैंने मुस्कुराकर जवाब दिया – ठीक है, कल मैं बना दूँगा।
उसके चेहरे का तनाव ढीला हुआ और उसने भी रूठी-सी मुस्कुराहट फैलाई...। आज भी बहुत गर्मी है... है ना..? – थोड़ी देर बाद उसने कहा और मुझसे सहमति चाही। मैंने उसकी तरफ देखा... तुम्हारा सिरदर्द कैसा है? वो और मृदु हो आई, बोली - नहीं सिरदर्द नहीं है, क्या तुम्हें गर्मी नहीं लग रही है?
आज भी पूरी स्लेट घिचपिच है। अखबार पढ़ते हुए पूरे समय वो चुप थी... एक बेचैन चुप...। मैं उसकी बेचैनी को देख रहा था, बरसों-बरस उसे दूर करने की कोशिशें की, अब हारने लगा हूँ। समझ नहीं पाता कि ये क्यों है और कब तक ऐसी ही रहेगी। आम तौर पर उसे देखकर ये अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि वो बेचैन है। बेतरह शांति होती है, उसके चेहरे पर, लेकिन मैं जान पाता हूँ कि ये शांति कितनी बाहरी है। - मेरे होंठो का तबस्सुम दे गया धोखा तुझे/ तूने मुझको बाग़ जाना देख ले सेहरा हूँ मैं... कहती हुई-सी, चुनौती देती हुई। वो घर का हर काम एक अद्भुत लय के साथ करती है, लेकिन जैसे ही खुद के साथ खड़ी होती है, सारी लय ऐसे टूट जाती है, जैसे मंत्रमुग्ध हो चुकी संगीत सभा में झटके से सितार का कोई तार टूट जाए। अब वो अपने साथ है, कभी कोई पत्रिका उठाती है, पलटती है, कुछ एकाध पन्ना पढ़ती है... रख देती है। फिर किताबों की रैक की तरफ जाती है, लेकर आती है कोई किताब... कभी कोई पढ़ा हुआ फिक्शन... मुझे लगता है चलो इसे पढ़कर कुछ व्यवस्थित होगी, लेकिन उसके कवर को सहलाती रहती है, फिर कहीं कोई पन्ना खोलकर उसे पढ़ती है और बंद कर फिर से रैक की तरफ लौट जाती है। इस बार उसके हाथ में नॉन फिक्शन है। शायद किसी लेखक की डायरी-सा कुछ। बहुत मनोयोग से पढ़ती है, लेकिन फिर लगता है कि सब कुछ टूट गया है और वो उसे वहीं पटक देती है। अब वो लेटकर छत को ताकने लगी है, कोई टूटा-फूटा संदर्भहीन वाक्य कहती है और फिर चुप हो जाती है। झटके से उठती है... बालों को समेटकर जूड़ा बनाती है – बहुत बेचैनी है, कितनी गर्मी हो रही है। मैं उसे देख रहा हूँ, बहुत बेबसी से उसकी भीतरी बेचैनी को सतह पर आते, जिसे वो लगातार गर्मी के पीछे छुपा रही है।
बहुत देर से अपने म्यूजिक कलेक्शन का ड्रावर खोले बैठी है। कोई सीडी निकाल कर लगाती है। पंकज मलिक का गाना – पिया मिलन को जाना... बजता है। सुनो कैसे सरल शब्दों में कैसी फिलॉसफी कह दी है। - वो अभिभूत होकर कहती है। मैं उसे सुनने लगता हूँ। वाकई! – जग की लाज मन की मौज दोनों को निभाना... सच में अद्भुत...। उसकी आँखों में चमक आ जाती है। मैं देख रहा हूँ धूप-छाँह का खेल... मैं उसकी स्लेट को टटोलता हूँ, लेकिन घिचपिच बरकरार है। एकाएक वो चिढ़कर म्यूजिक सिस्टम बंद कर देती है।
मुझे कुछ बहुत अच्छा खरीदना है... – वो कह रही है।
क्या बहुत अच्छा? - मुझे उम्मीद होती है। शायद कुछ लय बँधे।
कितने दिनों से कुछ अच्छा म्यूजिक, कोई अच्छी किताब नहीं खरीदी।
जो कुछ है तुम्हारे कलेक्शन में वो सब कुछ तुमने सुन-पढ़ लिया है? – मैं उसे चिढ़ाता हूँ।
हाँ, जो कुछ अच्छा था, सब सुन-पढ़ लिया है, अब मुझे कुछ नया चाहिए।
नया... और अच्छा...? – मैं उसे फिर चिढ़ाता हूँ। वो सोचने लगती है।
हाँ, नया और अच्छा...- फिर खुद ही हड़बड़ाती है – नहीं मतलब कुछ बहुत पुराना जो हमारे लिए नया है। मतलब जिसे हमने नहीं सुना-पढ़ा है। हाँ कुछ क्लासिकल और इंस्ट्रूमेंटल तो नया मिल ही सकता है ना...। कुछ ऐसे क्लासिक्स जो हमने नहीं पढ़े हैं।– उसके चेहरे पर चमक लौटती है।
चलो, आज चलते हैं।– मैं कुछ लिखने की कोशिश करता हूँ। बिना स्लेट देखे।
आज... – कुछ मेरे अंदर कौधता है, वो कुछ सोचती है – नहीं, आज नहीं... कौन सन्डे बर्बाद करे। - मैं बुझ जाता हूँ। स्लेट पर अब भी घिचपिच है।
अधूरी नींद में घड़ी देखती है। उठो पाँच बज गए हैं... चाय पिलाओ।
ऊँ... हाँ... दस मिनट...। – मैं गहरी नींद में हूँ, वहीं से जवाब देता हूँ। थोड़ी देर बाद सुबह की झुँझलाहट को खींचकर लाती हुई वो उठाती है। - सुबह भी मैं ही चाय बनाऊँ और दोपहर को भी।
मैं थोड़ा आँखें तरेरता हूँ – मैंने कहा था मैं बनाता हूँ, तुम्हें इतनी क्या जल्दी थी?
हुँ...ह... आधे घंटे से सो रहे हो। दस मिनट पता नहीं कब होते...! – झूठमूठ गुस्सा दिखाती है। जब मैं शरारत से मुस्कुराता हूँ, तब। स्लेट थोड़ी साफ होती दिखती है। वो सारे पर्दे खींच देती है। शाम कमरे में उतर आती है। मैं इशारा करता हूँ, लाईट जला दो...।
अच्छा लग रहा है। - वो खारिज कर देती है। फिर से उठकर म्यूजिक सिस्टम की तरफ बढ़ती है। कोई बहुत पुरानी कैसेट लगाती है। जगजीतसिंह गा रहे होते हैं। - बरसात का बादल का दीवाना है क्या जाने/ किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है। हम दोनों ही डूबने लगे हैं। दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है/ मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है। उसकी स्लेट कुछ-कुछ साफ होते दिख रही है, लेकिन दिन उतर गया है, मैं उदास हो जाता हूँ। मगर उसपर शाम के चढ़े नशे को देखता हूँ, तो कहीं से उम्मीद की किरण झाँकती है।
बाहर निकलते ही ठंडी हवा का झोंका छूकर गुजरता है। हुँ.... शब-ए-मालवा... वो किलकती है। - अच्छा लग रहा है ना...! दिन में तो कितनी गर्मी थी।
चलो... अंत भला तो सब भला। मैं खुद से ही कहता हूँ।
पता है मुझे गर्मी क्यों पसंद है। क्योंकि उसकी शामें और रातें बहुत खुली-खुली लगती है। ऐसी जैसे कि दिन फैलता-पिघलता रात में घुल रहा है। अँधेरे कमरे की खुली हुई खिड़की से बाहर के खुलेपन को दिखाती हुई वो कहती है, - लेकिन फिर भी बारिश तो बारिश है, कब आएगी बारिश... वो बच्चों की-सी विकलता से पूछती है।
पार्श्व में बेगम अख्तर गा रही है – हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब/ आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया...।
वो फिर किलकती है, मुझे बारिश का बेसब्री से इंतजार है। मैं कहता हूँ – मुझे भी...। सोचता हूँ - क्योंकि बारिश में उसकी स्लेट भी धुल जाएगी और मैं अपने मन का कुछ लिखूँगा, कोई कविता जो उसे परिभाषित करे... फिर खुद ही बुझ जाता हूँ, कर पाएगी क्या कोई...?
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लेखिका v\s नायिका = good story नायिका+लेखिका = better story नायिका-लेखिका = great story
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