Saturday, 14 May 2011

उसकी क़ुर्बत (नजदीकी, निकटता)....


वो अक्सर बंद रहती है, कभी-कभी ही खुलती है। मैं उससे कहना चाहता हूँ कि तुम्हारा खुला होना मुझे अपनी सफलता लगती है, लेकिन कह नहीं पाता हूँ। मुझे लगता है कि वो समझती है कि मैं उसे प्यार करने लगा हूँ, लेकिन वो कभी कुछ नहीं कहती। मैं भी उसे कुछ कह नहीं पाता। जब कभी वो मेरे साथ होती है, मैं उसे जीना चाहता हूँ, पर अक्सर वो मुझे बंद ही मिलती है। बहुत सारी उलझनों के साथ वो मेरे सामने आती है और मैं उसे सुलझाने में ही व्यस्त हो जाता हूँ, ऐसे ही वो लम्हे गुजर जाते हैं। उससे दूर उसका साथ मैं ज्यादा जी पाता हूँ, उसकी यादों को सजाता रहता हूँ, उससे प्यार करता हूँ, उससे बात करता हूँ, खोलकर अपना दिल उसके सामने रख देता हूँ, उससे दूर वो मेरे सामने खुलती है, महकती है, गुलाब और रजनीगंधा की तरह...।
आज उसका फोन आया – क्या कर रहे हो?
मैं कहना चाहता हूँ, तुम्हारी यादों को तरतीब दे रहा हूँ, लेकिन कह नहीं पाता। जवाब देता हूँ – कुछ नहीं... बोलो....।
वो हमेशा सीधे ही सवाल पूछती है। कभी हलो हाय नहीं कहती। पता नहीं वो मुझसे ही ऐसे बात करती है या ये उसका स्टाइल ही है, बिना किसी लाग-लपेट के सीधे काम की बात। पूछती है – फुर्सत है?
मैं सोचता हूँ कितना खड़ा बोलती है। याद आता है, जब वो बंद होती है, तब बहुत विनम्र होती है, बहुत नपी-तुली... उसके शब्दो में ‘संतुलित’...। जब खुलती है तो प्राकृत हो जाती है। हँसी आई थी ये सोचकर कि हमेशा ही उल्टा करती है।
मैं फिर कहता हूँ – बोलो...
वो आदेश देती है - घंटे भर में म्यूजिक प्लेनेट पहुँचो।
मुझे उसका आदेश देना अच्छा लगता है। वो अक्सर कहती है कि – स्त्री शासित होना चाहती है। क्योंकि यही उसका इतिहास रहा है, उसकी आदतों का इतिहास। और हँस पड़ती है। आज मुझे लगा कि कभी-कभी पुरुष भी चाहता है कि कोई उस पर शासन करे। शायद वो भी बदलाव चाहता है। या फिर भारहीन या मुक्त होना चाहता है, हर वक्त निर्णय लेने की दुविधा से...। या फिर किसी को, जिसे वो पसंद करें, शासन करने का अधिकार देना चाहता है। जो भी हो, मेरे मन के किसी कोने ने मुझसे कहा कि आज वो खुली हुई है।
आज मैं उसे बहुत करीने से पाता हूँ। बहुत सारे चटख और खुले रंग की लाइनिंग के कुर्ते के साथ फिरोजी रंग का चूड़ीदार और दुपट्टा... पूरी तरह से फेमिनीन... अक्सर तो वो अपनी ड्रेसिंग को लेकर लापरवाह ही हुआ करती है। आज वो खुली हुई है।
जब हम वहाँ से निकले तो उसके हाथ में बहुत सारी सीडीज थी। वो मेरे साथ बैठी है, मैं जानना चाहता हूँ – अब कहाँ? लेकिन नहीं पूछता, इंतजार करता हूँ, उसके कहने का... वो चुप है। चाभी घूमाता हूँ और एक्सीलरेटर पर पैर रखकर गाड़ी आगे बढ़ा लेता हूँ। फिर से उम्मीद करता हूँ कि वो निर्देश दें, वो अब भी चुप है। मैं उसकी तरफ देखता हूँ, वो सामने देख रही है, निर्विकार... निर्लिप्त... निस्संग...। न वो कहती है और न मैं पूछता हूँ कि – कहाँ? आज वो खुली हुई है।


मेरा म्यूजिक सिस्टम भी जैसे उसी का इंतजार करता है। कभी-कभी तो मुझे उसे हाथ लगाते हुए ही डर लगने लगता है कि कहीं वो मुझे करंट मारकर झटक ही न दें। बस इसी डर से मैं उसे कभी हाथ ही नहीं लगाता हूँ, जब कभी वो आती है, तब वही इसे ऑन करती है, जैसे आज किया। वो एक-एक कर सीडीज खोलती जा रही है। जैसे बच्चे को अपना मनपसंद खिलौना मिलने पर खुशी होती है, बस खुशी का वही रंग उसके चेहरे पर नजर आ रहा है। वो आज खुली हुई है, अक्सर तो वो बंद ही होती है, अपनी उलझनों के दायरों में...। मुझे म्यूजिक की समझ वैसी नहीं है, जरूरी भी क्या है? कोई इंस्ट्रूमेंटल पीस... शायद संतूर बजने लगा है, अच्छा लग रहा है। वो हमेशा की तरह जमीन पर बैठी है और उसका सिर सोफे पर टिका हुआ है। पैर फैलाते हुए पूछती है, क्या पिला रहे हो? मेरा मन किया कि मैं उसका सिर अपनी गोद में रखकर सहलाऊँ, लेकिन पूछता हूँ – क्या पीना चाहती हो?
वो शरारत से मुस्कुराती है, क्या है तुम्हारे पास...? वही सॉफ्ट ड्रिंक्स...
मैं झेंप जाता हूँ। जब मैं लौटता हूँ, तो उसे जमीन पर कुशन लगाते हुए देखता हूँ। वो इशारे से मुझे अपने पास बैठने के लिए बुलाती है। मैं बच्चों की तरह उसकी बात मानकर जमीन पर उस जगह बैठ जाता हूँ, जहाँ पर अभी तक वो बैठी हुई थी। अचानक वो कुशन पर सिर रखकर लेट जाती है। सिर पर उसकी बाँह पड़ी हुई है और दुपट्टा गले में सिकुड़ गया है। उसकी उठती-गिरती साँसें मेरे सीने पर हल्के-हल्के दस्तक दे रही है। उसकी बंद आँखें मुझे उसे देखते रहने की सुविधा दे रही है। मैं उसे चूमना चाहता हूँ, लेकिन... ।
जून उतर रहा है और बादलों की आवाजाही तेज हो गई है। अचानक बादल कड़कते हैं और बिजली गुल हो जाती है। शाम हो रही है और अँधेरा घिर आया है। वो आँखें बंद किए हुए ही कहती है, पर्दे हटाकर खिड़कियाँ खोल दो...। मैं वैसा ही करता हूँ। भूरे बादल कमरे में आ पसरते हैं, उनके बीच उसका चेहरा रह-रहकर कौंध जाता है। वो एक क्षण को आँखें खोलती है, मुझे लगता है कि वो मुझे आमंत्रित कर रही है। मैं उठकर उसके करीब चला जाता हूँ, वो फिर से आँखें बंद कर लेती है। मैंने उससे कभी नहीं कहा कि मैं उससे प्यार करता हूँ, मुझे लगता है कि वो ये समझती है। मैं उस पर झुक जाता हूँ और... पहली बार... उसे चूम लेता हूँ। उसकी आँखें अब भी बंद है। मुझे अक्सर लगता था कि जब कभी मैं उसके करीब जाऊँगा... बहुत करीब... तो सालों से संचित उन्माद से सारे बंधन तहस-नहस कर दूँगा। लेकिन मुझे आश्चर्य होता है कि मैं संयत हूँ – उसकी क़ुर्बत में अजब दूरी है, आदमी हो के खुदा लगता है...। मैं फिर अपनी जगह लौट जाता हूँ। बारिश के पहले की आहट है। हवाएँ सनसनाने लगी है, मुझे महसूस हो रहा है कि वो खुद में गहरे उतर गई है, और मैं यहीं कहीं छूट गया हूँ। एकाएक मैं खुद को फालतू लगने लगता हूँ। चौंकता हूँ उसकी आवाज सुनकर... उसकी आँखें मूँदी हुई है और वो गा रही है – आप ये पूछते हैं दर्द कहाँ होता है/ एक जगह हो तो बता दूँ कि यहाँ होता है...।
उसने कभी बताया था कि अपने बचपन में उसने कुछ दिन संगीत सीखा है, सुना पहली बार। सुर अनगढ़ है लेकिन आवाज दर्द और उसके अहसास से भरी हुई है। वो डूब गई, बहुत गहरे क्योंकि ऐसा लग रहा है कि उसकी आवाज बहुत दूर से आ रही है, आज वो खुली हुई है। मैं अपने मोबाइल का रिकॉर्डर ऑन कर देता हूँ, - आप आए तो सुकूं आप न आए तो सुकूं/ दर्द में दर्द का अहसास कहाँ होता है... दिल को हर वक्त तसल्ली का गुमां होता है/ दर्द होता है, मगर जाने कहाँ होता है।
वो गा रही है, एक-एक कर उसने गज़ल के सारे शेर गाए... मैं आश्चर्य में हूँ, मैंने पहली बार उसे इतना स्थिर, इतना शांत पाया। अब वो चुप है, उसकी आँखें अब तक बंद है। बहुत देर तक मैं उसके बाहर आने का इंतजार करता हूँ। बाहर से आने वाले झोंके के साथ मिट्टी की सौंधी-सी खूशबू अंदर भर आती है। मैं इंतजार करता हूँ, उसके चिहुँकने का, उसे पहली बारिश जो पसंद है... नहीं उसे बारिश ही पंसद है, लेकिन वो नहीं लौटती, शायद वो सो गई है। मैं धीरे से उठता हूँ, बॉलकनी में चला आता हूँ। पर्दा खींचकर मोबाइल में रिकॉर्ड हुई उसकी आवाज सुनता हूँ। सुनते-सुनते खुद भी डूब जाता हूँ। बड़ी-बड़ी बूँदें बरसने लगती है। एक बार फिर उसकी गज़ल खत्म हो जाती है, फिर भी चल रही है, अंदर...। हल्की-हल्की फुहारें लग रही है, मीठा और अच्छा-सा लगने लगा है। मुझे वहम होता है कि पर्दा सरका, मन करता है कि एक बार वहम की तस्दीक कर लूँ, लेकिन नहीं करता। फिर लगता है कि वो मेरे पैरों के पास आकर बैठी है और अपना सिर उसने मेरी गोद में रख लिया है, मैं उसके सिर को थपक रहा हूँ। मैं फिर से तस्दीक करना चाहता हूँ, लेकिन डर के मारे आँखें नहीं खोलता...।
मुझे भी आज पता नहीं कैसे मुक्ति का अहसास हो रहा है, एकदम शांति और भारहीनता, जैसे अंतरिक्ष में होती होगी... । शायद इसलिए कि आज वो खुली हुई है... और मैंने उसके खुले होने को कैद कर लिया है, अपने ज़हन में और अपने मोबाइल में भी...

3 comments:

  1. कई बार डूबा हूँ..कई जगह ठहरा हूँ...
    वो अक्सर बंद रहती है....जब वो बंद रहती है अक्सर विनम्र हो जाती है
    आज मै उसे बेहद करीने से पाता हूँ....
    सोफे वाल सीन लगता है कही देखा भला है .....लगता है... जैसे खिड़की के उस पार से गुजर रहा है...
    पूरी पोस्ट एक किक देती है ...किसी "नीट व्हिस्की "सी...
    जिसका हैंगोवर तय है !

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  2. अहसासों से भ्री सुंदर पोस्ट
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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