Tuesday, 10 May 2011
छीजते हम...
कुछ अटका हुआ है, कुछ छूटा तो कुछ भटका हुआ है। बहुत सारा कुछ भूला हुआ याद आता है और बहुत सारा याद रहता-सा भूल जाते हैं। कुछ रिश्ते जो अभी जिंदा हैं, धड़कते हैं और याद दिलाते हैं अपने जीवित होने की... कुछ जो दरक गए हैं, हमारे न चाहते हुए भी... उनकी किरचें बिखरी हुई है, यहीं कहीं... चुभती है, टीसती है, दर्द देती है। नहीं चाहते थे कि कुछ भी टूटे, लेकिन जो अंदर बनता है वो बहुत नाज़ुक होता है, पता नहीं किससे उसे ठेस लग जाए... बहुत एहतियात बरता था, लेकिन बचा नहीं पाए... हम ही कहीं असफल रहे। गहरे पैठे थे वो अंदर कहीं, हम भी नहीं जानते थे कि कितने अंदर तक जा धँसे हैं, कुछ रिश्तों का वजूद जिंदगी से भी पुराना होता है, तो जब वे चटखते हैं तो जैसे जिंदगी की नींव ही हिल जाती है...। जिंदगी उन रिश्तों से नाभिनाल की तरह जुड़ी हुई रहती है, फिर भी कैसे दरक जाते हैं... दुनियादारी....!
वो मजबूत दरख्त-से रिश्ते जब उखड़े तो जैसे तूफान ही आ गया। कितना कुछ बिखरा और तिनके-सा उड़ गया, हमें होश ही नहीं रहा, जब होश आया तो मोटा-मोटी नुकसान तक ही पहुँच पाए, हालाँकि ये बाद में पता चला कि नुकसान इतना ज्यादा था कि उस तूफान को आए अर्सा बीत गया, लेकिन उसकी भरपाई नहीं हो पाई, बल्कि हर याद के साथ वो नुकसान उभर-उभर आता है। अपनी जिद्द और टूटन को संभालते हुए पता नहीं कहाँ क्या खो दिया, अब तक समझ नहीं पाए हैं, जब कभी कच्ची जमीन पर रखा हुआ पैर धसकता है तो याद आता है कि ये भी उसके साथ छिटका है, टूटा है। बहुत नाजुक-सा कुछ बहुत बुरी तरह से क्षत-विक्षत हुआ है, क्या गलत हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ और जो हुआ उसे रोका क्यों नहीं गया, क्या उसे ठीक नहीं किया जा सकता है? अब कुछ नहीं हो सकता है, प्रेम के धागे-सा कुछ चटख गया है। जोड़ा तो है, जतन से लेकिन गाँठ है, उभरी हुई, चुभती हुई।
जब कहीं अंदर कुछ कड़ा मिलता है तो चौंकते हैं, - ये हमारा तो नहीं, लेकिन अंदर है तो हमारा ही होगा। बना हुआ नहीं होगा तो बनता रहा होगा! बहुत कोशिश करने के बाद भी ‘अंतर’ को सख्त होने से नहीं बचा पाए।
पूछते हैं खुद से ही कि कभी मुलायम मखमल रही इस जमीन में ये सख्त पत्थर कहाँ से आ गए? कैसे हो गया इतना सख्त और क्या हो गया इतना कड़ा, हमें पता क्यों नहीं चला? ये उसी नुकसान के अवशेष हैं, जो कभी हुआ था।
जिद्द अब भी है, लेकिन हमारे अंदर ही कुछ ऐसा है जो हमसे भी ज्यादा जिद्दी है। हमारे जिद्द के पत्थर में कहीं दरार ढूँढ कर अंदर बहने लगी है वो रोशनी और हम रोक नहीं पा रहे हैं। वो दिखा रही है – देखो कहाँ-कहाँ से छीजे हो, कितने उथले हुए हो, कितना कम हुए हो, कितना छोटे हुए हो?
जो टूटा है, उसका नुकसान तो खैर है ही, लेकिन अपने अंदर की धड़कती संवेदनाओं के मर जाने की टीस क्या दर्द नहीं देती है...? तो क्या रिश्तों का टूटना महज उतना ही है? दिखता चाहे उतना ही हो, लेकिन दर्द, त्रास और वेदना उससे कई गुना ज्यादा है... टूटने की और खुद के कम होते रहने की भी...।
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मैं उसे दीवाना कहूँ या न कहूं
ReplyDeleteउसने मुझे दीवाना बना रखा है
आहिस्ता आहिस्ता पढ़ रहा हूँ...कुछ भीतर भीतर ही पिघलने लगा है....
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