Sunday, 18 September 2011

चार खूँटों से बँधी जिंदगी...!


सलीका - उठते ही सोने से फैले बालों को बाँधने के क्रम में वह ड्रेसिंग टेबल की तरफ गई और कंघी उठाकर बालों में गड़ाते हुए जैसे ही उसने आईना देखा… ऊब की लहर ऊपर से नीचे और हताशा की लहर नीचे ले ऊपर की तरफ दौड़ी। हर दिन वही चेहरा... उसी तरह की नाक, वही आँखें... सब कुछ वैसा ही, वहीं... उफ्! उसे अपने दिन का मूड समझ आ गया। वो वहीं स्टूल पर धपाक से बैठ गई। उसी हताशा में उसने एक बार फिर अपने चारों ओर नजरें दौड़ाई... हर चीज उसी जगह, कई दिनों से... बल्कि कई सालों से हरेक चीज है अपनी जगह ठिकाने से... सलीके से... । एकाएक उसे लगा कि ये सलीका ही उसकी परेशानी है। मन किया... सब कुछ को हाथ से फैला कर तितर-बितर कर दे। कुछ उठाकर जमीन पर पटक दे... कुछ... कुछ ऐसा करे जो उसे बदला सा महसूस कराए... लेकिन... लेकिन ये दिमाग। करो... कर ही डालो... फिर बिसूरते हुए समेटना भी तुम ही...।

नफासत - दफ्तर जाते हुए – वही रास्ता, सालों से वही… और वहीं दुकानें, पेड़, सड़क यहाँ तक कि गड्ढे तक... पता होता है कहाँ गाड़ी धीमी करनी है और कहाँ गियर बदलना है। इतनी उकताहट कि लगता है कि कुछ दिन यूँ ही सोते रहे... शायद आसपास की दुनिया एकाएक बदली हुई-सी दिखे, लेकिन ये हो ही कैसे। कई बार उसे लगता है कि क्यों नहीं वो खुद ही अपने आप को बदल डालती? थोड़ा हेयर-स्टाइल बदल ले और थोड़े कपड़ों का स्टाइल... खुद भी काफी बदली नजर आएगी... लेकिन क्या ये बदलाव अच्छा होगा...? लीजिए सलीके के बाद दूसरी समस्या आ खड़ी हुई... नफासत...!

विश्वास - दफ्तर में वही जद्दोजहद... वही जगह, एक ही से चेहरे, वैसे ही एक्सप्रेशन्स और उसी तरह की बातें...। हर जगह सब कुछ इतना जाना पहचाना कि आँखें बंद कर यदि हाथ बढा़ओ तो जो हाथ आए वो परिचित चीज निकले...। उफ्....! यहाँ क्या वो खुद बदलाव नहीं कर सकती? कुछ नए लोगों से दोस्ती करे, कुछ नए लोगों को जानें, उनसे बातें करें... उनकी दुनिया में झाँके कुछ पात्र, कुछ कहानी, कुछ अनुभव उठा लें... लेकिन... लेकिन क्या ये इतना आसान है! एकाएक परिवर्तन से कईयों की भौहें तनेगी... फिर इसमें भी कौन दोस्ती के लायक है और कौन नहीं? किससे आपकी वेवलेंथ मैच करेगी और किससे नहीं... ये सब जानते-जानते पता नहीं किस ट्रेप में फँस जाए...। आखिर तो झटकना भी कहाँ आसान है, उसके लिए...? तो एक और समस्या या संकट... विश्वास का...!

सुविधा - शाम ढलते हुए ऑफिस से लौटना... 15 मिनट उपर हो या फिर 10 मिनट नीचे... सड़कों के हाल एक-ही से...। रोशनी का एक-सा जमावड़ा, ट्रेफिक जाम, हर दिन जैसा शोर। पटरी पार कर सड़कों को घरते ठेले, पुलिसवालों की मशक्कत-चिढ़ और खीझ...। उसी तरह की मनस्थिति... फिर से वही सब कुछ घर पहुँचकर... चाय या फिर कॉफी...। बनाना, खाना, टीवी देखना, टहलना, दिन भर का राग दोहराना...। अच्छे-बुरे पढ़ने को दोहराना। किसी अच्छे अनुभव को सुनाना-सुनना। छाया-गीत तक रेडियो के करीब पहुँच जाना। ज्यादातर उद् घोषक के बुरे चुनाव पर खीझना या फिर किसी अच्छे गाने को इत्मीनान से सुनने के चक्कर में घड़ी कि टिक-टिक को नजरअंदाज कर देना और फिर सोचना उफ् आज फिर देर...। सोते हुए जिस भी तरफ सिर करो... कमरे की हर चीज जानी पहचानी लगती है। कभी पूर्व तो कभी पश्चिम में सिर की दिशा रखी और नजरों को हर एंगल पर घुमा लिया... बदला कुछ भी नहीं... सब कुछ वैसा ही नजर आया। क्यों नहीं ऐसा कर लेती कि किसी शाम टीवी छोड़ दें... देर रात तक सड़कों पर आवारगी करते रहे या फिर गहरे गाढ़े अँधेरे को ओढ़कर किसी मीठी-सी धुन में खुद को डूबने-उतरने के लिए छोड़ दें। छाया-गीत का लालच छोड़ दे या फिर सुबह की चिंता छोड़ दे... देर रात तक अपनी फूलझड़ियों, छालों, फूलों और काँटों का हिसाब करते रहे... या फिर घड़ी को ताक पर पटककर समय को अँधेरे में से गुजर जाने दे...। नहीं होता, बहुत सोचते रहो तब भी नहीं होता... देर से सोए तो सुबह देर से उठेंगे या जल्दी उठ गए तो दिन भर काम करना मुश्किल होगा... फिर वही क्रम दोहराया जाएगा आखिर यहाँ मसला अ-सुविधा का है...।

वह सोचती है कि जिंदगी के चारों कोनों को खूँटे से बाँधने के बाद स्पेस, आजादी और चेंज की ख्वाहिश करना कितना हास्यास्पद है ना...! चाहना-चाहना-चाहना... अपने कंफर्ट ज़ोन में बैठकर सिर्फ चाहने से क्या बदलेगा? बदलने के लिए उसे तो छोड़ना ही पड़ेगा ना... तो...?

4 comments:

  1. आदरणीय अमिता जी ...सादर अभिवादन !
    शायद इसीलिए हम लोगों को रविवार का इन्तजार रहता है ..... बदलाव से ही हमारी शुरुआत होती है - देर से उठने से .... फिर किसी से मिलने जाना और किसी का हमसे मिलने आना + खरीददारी +सिनेमा ....
    लेकिन ऐसा लगता है की आप हरेक संडे पर भी कुछ इसी तरह की एक उत्कृष्ट पोस्ट लिख सकती है जोकि आपके बाएं हाथ का खेल है ..... अगर इस नजरिये से देखू तो फिर बच्चों की छुट्टियो, में घूमना या फिर खुद का सलाना छुट्टी पर कहीं घूमने जाना ही एक मात्र विकल्प बचता है ...
    यहाँ पर तो आपसे उतर की चाह रहेगी ही ....
    इस कलम की रवानी यूँ ही बनी रहे इसी कामना के साथ धन्यवाद सहित

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  2. आदरणीय अमिता जी ....सादर अभिवादन !
    इस पोस्ट में भी आपने कमाल का खाका खीचा है रोजमर्रा की रूटीन के दोहराव का .....
    अदभुत -आनंद आ गया -
    मुबारकबाद

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  3. कमलजी यदि आप इसे देख पा रहे हैं तो सबसे पहले तो इस बात के लिए क्षमा चाहती हूँ कि आपकी टिप्पणी को लंबे समय तक स्पैम में ही पड़े रहने दिया। असल में मैंने देखा ही नहीं कि स्पैम में भी कोई टिप्पणी होगी।
    दूसरे आपने उत्तर चाहा था, फिर से उम्मीद करती हूँ (हालाँकि आपकी टिप्पणी को बहुत दिन हो गए हैं और मैं नहीं जानती कि अपना उत्तर आप तक कैसे पहुँचाऊँ) कि आप उत्तर पढ़ रहे होंगे।
    हाँ साल भर में एक बार बाहर हो आने से काफी कुछ बदलता है, लेकिन वो खुमार महीने दो महीने ही रहता है, फिर वही रूटीन...। यदि आप खुद से ऊबे हुए हैं तो फिर कोई रास्ता ही नहीं सूझता, हाँ जो महसूस किया है वो ये है कि यदि आप कुछ नया सीखने की कोशिश करें तो इस ऊब से निजात मिल जाती है, लेकिन पेंच यहाँ पर भी है... समय...।
    उत्तर देंग तो लगेगा कि आपको मेरा जवाब मिल गया।

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