Sunday, 11 September 2011

दो कप भावना और आधा कप बुद्धि...!


यूँ गणपति स्थापना को चार-पाँच दिन हो चुके थे। आते-जाते अकाउंट्स डिपार्टमेंट के बाहर की रौनक-सजावट नजर आ ही जाती थी, सुबह-शाम गणपति की आरती का प्रसाद भी संपादकीय विभाग में आ जाता था। गणपति की स्थापना यूँ तो संपादकीय विभाग में भी हुई थी, लेकिन ये अलग बात है कि न तो वे कहाँ विराजे हैं, ये नजर आता था और न ही ये कि आरती कब होती है और कौन करता है। शायद संपादकीय के कर्मचारी अपनी कथित बुद्धिजीविता का प्रदर्शन कर रहे हों। जो भी हो, हमारे विभाग में ऐसी कोई हलचल नहीं है। तो ऑफिस में तो त्योहार का कोई भी निशान नजर नहीं आ रहा था।
अकाउंट्स के प्यून ने हमें भी आरती में शामिल होने का न्यौता दिया। याद आया... गणपति मंडप की कितनी खूबसूरत सजावट की गई है, लेकिन अभी तक हमने वहाँ जाकर नहीं देखा। चलो इसी बहाने देख पाएँगें। शाम की आरती का समय... थोड़ा धुँधलका-सा हो चला है। विचार की चकरी चल रही है, आरती के लिए समय का निर्धारण भी कितना सोच-विचार कर किया गया है ना...! दिन-रात के संधि समय में जब दिन विदा हो रहा हो और रात के आगमन की तैयारियाँ हो रही हो... जरा फर्लांग भर की ही तो दूरी है... नहीं! दिन-रात में नहीं... संपादकीय और अकाउंट्स विभाग की बिल्डिंग्स के बीच...। तो उस सजे हुए मंडप में अगरबत्ती की भीनी-भीनी सी खुश्बू, घंटी, करतल और सामूहिक कंठ स्वर... एक-सी लय और दीए की लौ...। आरती की आवाज सुनकर एक-एक कर लोगों का उस मंडप में आना... अद् भुत माहौल... लगातार दिमाग, विचार, तर्क औऱ बुद्धि से घिरे हुए हम जैसे लोगों के लिए ये माहौल बड़ा जादुई है। एक-सी ताल में जय देव जय देव जय मंगलमूर्ति... के बीच कहीं अंदर कुछ सोया हुआ जाग गया... तर्क पर आस्था की चादर उतर आई है और विचार अगरबत्ती के धुएँ के साथ हवा में विलिन हो गए... रह गई वो खुशबू जो तर्कहीन, विचारहीन औऱ बहुत हद तक अबौद्धिक है। लौटे तो बहुत हल्के और तरल होकर... सारा ‘मैं’ कहीं गल गया, झर गया...।


वहाँ से निकले तो लगा जैसे अपने प्राकृतिक क्षेत्र से निकल कर किसी दूसरे की जमीन पर आ खड़े हुए हैं। लगा कि असल में भावना इंसान में इनबिल्ट होती है और तर्क विकसित होते हैं। इस दृष्टि से भावना प्रकृतितः हमारी विरासत है, लेकिन तर्क हम बोते, पनपाते और फिर सजाते सँवारते हैं। जन्म से ही भावना हममें होती है, लेकिन बुद्धि या तर्क का विकास उम्र क साथ होता चलता है। थोड़ा आगे चलें तो भावना संस्कृतियों की वाहक है और तर्क सभ्यताओं के...। थोड़ा और आगे बढ़े तो इस विचार तक (फिर विचार...!) पहुँचते हैं कि सभ्यताओं ने बाँटने का और संस्कृतियों ने जोड़ने का काम किया है। तर्क सिर्फ मानवता को ही नहीं बाँटते हैं, बल्कि इनका काम व्यक्तित्व तक को विखंडित करना है। हम जान ही नहीं पाते कि कब तर्क या बुद्धि हमें खंडित कर देते हैं। फिर बुद्धि का लाभ क्या? क्योंकि अक्सर ये पाया जाता है कि बुद्धि ही हमारे दुख का कारण है। ज्यादातर हमारी खुशियों का आधार भावनाएँ हैं...। तो फिर जीवन में भावना और बुद्धि या तर्क का कांबिनेशन कैसा होना चाहिए ...! डोसे के घोल के प्रपोशन जितना... दो कप भावना (चावल) और आधा कप बुद्धि (दाल)...। सही है ना...!

1 comment:

  1. सभ्यताओं ने बाँटने का और संस्कृतियों ने जोड़ने का काम किया है। तर्क सिर्फ मानवता को ही नहीं बाँटते हैं, बल्कि इनका काम व्यक्तित्व तक को विखंडित करना है। हम जान ही नहीं पाते कि कब तर्क या बुद्धि हमें खंडित कर देते हैं। फिर बुद्धि का लाभ क्या?

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