Thursday, 1 September 2011

मृत्यु बोध के जागते ही...!



कहीं कुछ बेतरह अटका पड़ा है। कई अच्छे-बुरे विचार ऐसे में आ-जा रहे हैं। ऐसे में ही अपने आसपास की दुनिया में बुरी तरह लिप्तता के बीच अचानक कहीं से मृत्यु का विचार आ खड़ा हुआ। मृत्यु पर विचार करने का वैसे तो कोई खास कारण नहीं है, लेकिन शायद कभी पढ़ी फिलॉसफी का असर हो शायद या फिर उम्र का... कि अचानक विचारों के केंद्र में मौत आ गई...। या फिर बचपन में कभी पढ़ी-सुनी बुद्ध की वह कहानी जिसमें उनके शिष्य उनसे पूछते हैं कि – इस दुनिया में आपको सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक क्या लगता है?

तो बुद्ध कहते हैं कि – ये जानते हुए भी कि हमें एक दिन मर जाना है, हमारी दौड़ जारी है।

सचमुच... ये कितना आश्चर्यजनक है, हम सब जानते हैं कि हम सब एक दिन मर जाने वाले हैं, किसी के लिए कोई दिन और किसी के लिए कोई... या शायद आज ही... अभी ... फिर भी हम यूँ जी रहे हैं, जैसे हमें यही रहना है, हमेशा-हमेशा के लिए...।

कहीं से भी विचार करना शुरू करो मृत्यु पर विचार हमें एक ही जगह ले जाता है, जीवन का अंत...। चाहे हमारा दर्शन पुनर्जन्म और आत्मा की अमरता का विचार देता हो, लेकिन ये महज एक विचार है, विश्वास और अविश्वास की सीमा से परे... होने और न होने की सवाल से दूर, क्योंकि इसमें स्मृति नहीं जुड़ती है, इसलिए पश्चिम में प्रचलित दर्शन हमारे जीवन के ज्यादा करीब है कि – मृत्यु जीवन का अंत है... सारी संभावनाओं का अंत है। होना और चाहना का अंत है। और हमारे चाहने और न चाहने से अलग इसका अस्तित्व अवश्यंभावी है।

तो फिर सवाल उठता है कि - क्या हम जीवन-मृत्यु के बीच बस सफर पर नहीं हैं? प्रस्थान जन्म और गंतव्य मृत्यु...? उद्गम जन्म और विसर्जन मृत्यु... प्रारंभ जन्म और अंत मृत्यु... ! बस इसके बीच कहीं जीवन टँगा हुआ है..., शायद इसीलिए इतना दिलफरेब, बिंदास और निश्चिंत... हम सब जानते है कि हरेक की मृत्यु यकीनी है... हमारे जीवन की पूर्णाहुति है, हमारे होने की नियति है। हम चाहे या न चाहे उसके साए से अलग कोई कभी नहीं हो सकता है, फिर भी हम उसे बरसों बरस भुलाए रहते हैं। दरअसल हम ये मान कर जीते हैं कि ये सच हमारा नहीं है, दुनियावी सच है, जैसे दूसरे और सच होते हैं, वैसे ही या यूँ कह लें कि ये तथ्य है, हमारे लिए... दुनिया के लिए चाहे सच हो... हमारे लिए नहीं... । लेकिन हमारे झुठलाने से भी न तो इसकी प्रकृति बदलती है और न ही तासीर... ।

कभी तमाम दुनियादारी औऱ पूर्वाग्रहों से दूर होकर सोचें तो लगेगा कि दरअसल हमारा जन्म ही कदम-दर-कदम मौत की तरफ बढ़ने के लिए हुआ है, क्योंकि उससे अलग हमारे होने की कोई औऱ परिणति हो ही नहीं सकती है। दुनिया के सारे दर्शन और अध्यात्म का अस्तित्व ही इस बात पर है कि आखिरकार हमें सब कुछ से ‘कुछ नहीं’ हो जाना है, हमें मर जाना है, सिर्फ याद बन कर रह जाना है... लेकिन यही सबसे महत्वपूर्ण सत्य को हम भूल जाते हैं। कभी-कभी तो यूँ लगता है जैसे इसी वजह से सारी दुनिया चल रही है। शायद सृष्टि के गतिमान रहने का रहस्य ही ये भ्रम है कि हम कभी मरने वाले नहीं है...

भौतिकता में आकंठ डूबे हुए प्राणियों तक मौत का विचार पहुँचता ही नहीं है, लेकिन जब कभी ये चेतना जागती है यही वो बिंदू होता है, जहाँ से आध्यात्मिकता हमारे जीवन में प्रवेश करती है। और सवाल उठता है कि इस दुनिया का हमारे लिए मतलब ही क्या है? फिर भी हम इस विचार, इस शाश्वत सच से विलग होकर अपना जीवन गुज़ारते हैं। हम भूले रहते हैं कि दरअसल हम उस मंजिल की ओर बढ़ रहे हैं जिसका कोई विकल्प नहीं है, जिसमें चुनाव की स्वतंत्रता भी नहीं है और जिससे निजात भी नहीं है। हम इस भुलावे में रहते हैं कि हमारी राह हमें किसी दूसरी मंजिल की तरफ ले जा रही है, मौत का रास्ता कोई दूसरा है। हम इस भ्रम में जीते हैं... जीना चाहते हैं कि ये भयावह सच्चाई हमें और हमारे अपनों को छोड़कर शेष बची दुनिया के लिए है, बस यही इस सच्चाई की खूबसूरती है और यही दौड़ते रहने का अभिशाप भी... इसी की वजह से जीवन की दौड़ का अस्तित्व है... और इसी के होने से जीवन के अर्थहीन होने की चेतना भी... हम सब इस सच के साथ जीते हैं, लेकिन उसके अहसास से दूरी बनाए रखते हैं। कितना अजीब है कि हम लगातार मृत्यु के साए में जीते हैं, लेकिन लगातार उससे बहुत दूर होने के भ्रम को पाले रहते हैं। हर वक्त हमारे साथ चलते इस साए को हम महसूस तक नहीं करते हैं। हम दौड़ में हैं, लगातार, एक-दूसरे को धकियाकर आगे जाने की दौड़ में... सबसे आगे होने, होना चाहने की दौड़ में। एक मंजिल को पाकर दूसरी कई-कई मंजिल को पाने की दौड़ में, इस सच के बाद भी कि एक दिन यहीं सब कुछ छूट जाना है, एक... भ्रम... एक झूठ... जिंदगी को संचालित करता है और हमें वो खूबसूरत लगती है... कितना अजीब है ना...!

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