दोस्तों,
पिछली पोस्ट पर आई टिप्पणियों के लिए धन्यवाद....। दरअसल इन सवालों को सही संदर्भों में समझा नहीं गया। आशा-निराशा जैसे नितांत भौतिक दुनिया के भावों से इन प्रश्नों का दूर से भी वास्ता नहीं है। हम कर्म करने के लिए अभिशप्त हैं....इसे किसी भी रूप में कहें प्रकारांतर से मतलब इनका वही होगा, लेकिन यह अभिशाप भौतिक या कह लें स्थूल दुनिया का तथ्य है...यहाँ के सच भी बड़े उलझाने वाले और सापेक्ष होते हैं। दरअसल ये एक समानांतर दुनिया है। कभी इसकी आँधी से हम बेचैन हो जाते है तो कभी हम ही इसके आकर्षण में बँधे हुए वहाँ पहुँच जाते है। उस दुनिया के सारे प्रश्न हमारी दुनिया में घुसपैठिए हैं। जरा सी दरार दिखी कि घुस आए...। अंदर आने के बाद ये अंतर में ऐसी भट्टी सुलगाते हैं कि उसकी तपन सही नहीं जाती है, लेकिन जो सह लेता है, वह भटकाव के सच को जान लेता है और कुंदन होकर निकलता है...उसे आध्यात्मिक दुनिया में स्थिरता.... संतत्व की प्राप्ति होती है.... वह किनारे बैठ कर निरंतर दौड़ने वालों की निरर्थक कवायद को निर्विकार भाव से देखता रहता है। वह सारी दौड़ और प्रतिस्पर्धा से बाहर आ जाता है... और सदा शांति की स्थिति में रहता है....लेकिन यह रास्ता बीहड़ है और इसमें मन को साधना पड़ता है। मन जो हवा की तरह चंचल है, जिसे साधना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है उसे साधने से कम यहाँ कुछ नहीं चल सकता है। हम तो भटकते-भटकते यहाँ पहुँचे हैं और जल्द ही यहाँ से घबराकर निकल भी जाएँगें.... लेकिन फिर आएँगें क्योंकि ये हमारी दुनिया के अब्सर्ड और इसका अर्थहीन होना हमें फिर यहाँ ले आता है। इसलिए ये आशा-निराशा से आगे के प्रश्न हैं। दोस्तों जिनका वास्ता इन प्रश्नों से नहीं है वे इस आग से दूर रहें....( ये अलग बात है कि दूर रहना ना रहना आपके बस की बात नहीं होती है) ये विषबीज है जो किसी-किसी में ही होता है और यदि होता है तो जरा सी अनुकूलता पाते ही विकसित भी होने लगता है.....। लेकिन वे सौभाग्यशाली है जिनमें यह विषबीज नहीं है। उनके लिए ये प्रश्न... ये सारी कवायद बेकार है वे ही इसे भौतिक दुनिया के कसौटी पर कसते हैं....उनके लिए एक शेर है (फिलहाल शायर का नाम नहीं याद आ रहा है)
खुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शऊर आ जाएगा
तुम वहाँ तक आ तो जाओ हम जहाँ तक आ गए
शेष शुभ...
हम तो भटकते-भटकते यहाँ पहुँचे हैं और जल्द ही यहाँ से घबराकर निकल भी जाएँगें.... लेकिन फिर आएँगें क्योंकि ये हमारी दुनिया के अब्सर्ड और इसका अर्थहीन होना हमें फिर यहाँ ले आता है।
ReplyDeleteबिलकुल सच । सिर्फ वहीं का हो जाना संभव नही हो पाता क्यूं कि हम कर्म करने को बाध्य जो हैं ।
हम कर्म करने के लिए अभिशप्त हैं....
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शानदार आलेख के लिये बधाई
yah tan ko rabab kar, virah bajaye nitya aur na koi sun sake ke sai ke chitya
ReplyDeleteaap ke raay durust hai. Yah manav man ke ajeeb uljhav bhari sthiti hai. Eis uljhaav se sakshatkar karwane ke liye shukriya.
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