Monday 22 February 2010

ये वक्त गुज़र जाएगा


जब सब कुछ सामान्य और अपनी गति से चलते हुए एकरस हो रहा हो... तब एकाएक कुछ ऐसा हो, जिसकी प्रत्याशा न हो और अनचाहे मेहमान की तरह आ टपके अकेलापन.... तब...? कल शाम से ऐसे ही अकेलेपन से जूझ रहे हैं। रात को सोने तक का सारा वक्त गर्क़ किया टीवी और कम्प्यूटर पर.... कोशिश की, लेकिन पढ़ना भी नहीं भाया...। बहुत सारा समय यूँ ही सामने बिखरा पड़ा... आम दिनों में क्षण-क्षण को झरते हुए देखते और सहेज नहीं पाने की स्थायी कसक के साथ रहते हम आज इतने क्षण यूँ ही आसपास फैले हुए हैं और समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इनका आखिर किया क्या जाए? सुबह उठे को चाय के कप के साथ सामने पड़े थे अखबार... सरसरी तौर पर देखा (याद भी नहीं कि क्या देखा) कुछ को पढ़ने की कोशिश भी की.... 'छूटती नहीं है ज़ालिम मुँह से लगी हुई की तरह'... लेकिन फिर यूँ ही एक सवाल मन में सरसराया (ये सवाल शायद पहली बार) दुनिया जहान के बारे में जानकारी पा लेने से क्या बदल जाएगा... और जानने के बाद क्या हो जाएगा...?
सवाल शायद सही नहीं है, हमने बरसों बरस इस जानने की हवस को दिए हैं, अब भी देंगे... लेकिन आज यह है। एकाएक दिमाग को खंगाला तो पाया कि इसमें कितनी बेकार की जानकारी और सूचनाएँ पड़ी है, कुछ ऐसी भी जिसका कभी-कहीं उपयोग नहीं होगा, फिर भी है। एक बार फिर वह चाह जागी कि काश! दिमाग में से भी काम-काम का रख कर बाकी सबको रद्दी की तरह निकाल पाते, लेकिन यहाँ यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। कभी सोचे तो पाएँगें कि हम दुनिया को जितना जानते चले जाते हैं, खुद से उतना ही दूर होते चले जाते हैं। खुद से भागने के लिए ही शायद हम दुनिया को जानते हैं, लेकिन इससे हम हासिल क्या कर पाते हैं? बेकार का उद्वेलन.... उलझन... ज्यादातर बेबसी... औऱ आखिर में एब्सर्ड का अहसास... क्योंकि जो कुछ है, वह है, हम उसे बदलने के लिए कुछ नहीं कर पाते हैं और यदि करेंगे भी तो क्या औऱ कितना बदल पाएँगें? तो फिर इस बेकार की कवायद का क्या मूल्य? सारी दुनियावी चीजों से 'अंतर' न तो बहला है और न बहलेगा, फिर भी हम खुद को सालोंसाल इसी में गर्क़ किए रहते हैं। किस प्रत्याशा से....? हम सब कुछ इसलिए करते हैं कि खुद को खुश रख सके... शायद ऐसी चीजों की खोज करते रहते हैं, जो हमें सबसे ज्यादा खुश रख करें, लेकिन क्या हम ऐसा कर पाते हैं? पूरा जीवन हम इसी प्रयोग को दे देते हैं, और फिर हमारे हाथ क्या आता है? यह महज एक सवाल है, जिसका उत्तर अब तक तो नहीं मिला। यह भी सही है कि कल शायद यह सवाल नहीं होगा.... और कल से फिर हम जानने के जुनून में खाक़ होने लगेंगे... यह सवाल आज है।
हाल ही में एक खूबसूरत एसएमएस आया
अकबर ने बीरबल से कहा - कोई ऐसी बात बताओ, जिसे खुशी में सुनो तो ग़म हो और ग़म में सुनो तो खुशी हो।
बीरबल ने जवाब दिया - ये वक्त गुज़र जाएगा....
कुछ समझे....?

Thursday 18 February 2010

अंधा कर देने वाली चकाचौंध


अमेरिका से आर्किटेक्चर का कोर्स कर भारत आया लड़का शादी कर रहा था और दुर्भाग्य से हम साग्रह आमंत्रित थे... छुट्टी की शाम को शहर से 20 किमी दूर शादी का वैन्यू था और जाना जरूरी... मन-बेमन था लेकिन पहुँचे। आधा किमी दूर गाड़ी पार्क कर पैदल ही विवाह-स्थल पर पहुँचे तो दुल्हा महँगी शेरवानी-साफा पहने डिजायनर लहँगा और ब्राईडल मेकअप किए अपनी दुल्हन के साथ खड़ा था। सिर पर फूलों की चादर तनी थी आगे ढोली ढोल बजा रहा था और दुल्हे के साथी-भाई मस्ती में नाच रहे थे। अमेरिका से उच्च शिक्षा लेकर आए लड़के के इस रूप को देखकर बेहद-बेहद निराशा हुई।
एक दौर था जब आधुनिकता एक मूल्य था और हर विचारशील युवा उस सबको जो उसकी जिज्ञासा को शांत नहीं कर पाता था, या जो उसके तर्कों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता था, उसे तोड़ने पर उतारू रहता था। हाँ...इसमें कुछ अच्छी चीजें भी पीछे छूट जाती थी, लेकिन हम समझते ही हैं कि गेहूँ से साथ घुन तो पिसता ही है, फिर भी एक दरवाजा तो होता था, जो चेंज फॉर गुड के लिए कम-अस-कम रास्ता तो खोलता ही था, लेकिन अब तो उम्मीदें तक राख में तब्दील होती नजर आ रही है। युवा यदि भेड़चाल का हिस्सा ही होने जा रहे हैं तो फिर जो सड़ रहा है... गया है, उसका क्या होगा, जो खराब हो गया है, उसे धक्का देकर कौन गिराएगा (बकौल नीत्शे)।
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हमारे शहर में भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा है, और क्षेत्रिय अखबार यूँ ही दीवाने हुए जा रहे हैं। यूँ लग रहा है कि इन दिनों शहर की सारी समस्याएँ, सारी परेशानियाँ छुट्टी पर चली गईं हो। हमने आपत्ति दर्ज कराई तो जवाब मिला कि पाठकों को सूचना दी जा रही है। सूचना....! क्या ये कि नाश्ते में क्या खाया, खाना क्या दिया गया और सोए कैसे.... इस सूचना का कोई औचित्य है? लेकिन क्या करें क्योंकि जो मुद्दे की बात थी, वहाँ तक तो पत्रकार पहुँच ही नहीं पा रहे हैं। तो जो गौण और पूरी तरह से महत्वहीन चीजें थी, उसे ही पाठकों के सामने परोसा दें... फिर इस अधिवेशन का आम जनता से क्या लेना-देना.... पार्टी ऐसे कौन-से निर्णय करने जा रही है जिसका निकट या दूर भविष्य में जनता से कोई संबंध होगा...? ये तो बिल्कुल वैसा है, जैसे लक्ष्मी मित्तल की बेटी की शादी को पूरा मीडिया कवरेज दे... यूँ भी आजकल मीडिया खबरों के साथ काफी समानता का व्यवहार करता है, मामला चाहे आतंकवादी हमलों से जुड़ा हुआ हो या फिर राजनीतिक आयोजन उसी भावना और शिद्दत से कवरेज होता है। खबरें देने वाले इस सवाल को लगता है, कभी उठाते ही नहीं है कि कोई खबर हम क्यों दें? इतना सोचने की फुर्सत ही किसे है? होगी कभी पत्रकारिता की नैतिक जिम्मेदारियाँ, अब तो यह मात्र व्यापार है, साबुन, तेल या फिर टूथपेस्ट बेचने की तरह ही खबरें बेची जाती है। जो क्षमता रखता है, वह इसे बखूबी इस्तेमाल कर सकता है, क्योंकि इसका कोई दीनो-ईमान नहीं है।
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दोनों ही मामले एक ही निर्ष्कष पर पहुँचाते हैं, हम जड़ होते जा रहे हैं, जबसे दुनिया से मार्क्सवाद (अब आप हँसना चाहे तो हँस ले, लेकिन इसके साथ थोड़ा सा सोच भी लेंगे तो शायद लगेगा कि हाँ सच....हमने भी कितने साल हुए कुछ सोचा नहीं) खत्म हुआ है, तब से लगता है प्रतिक्रिया ही खत्म हो गई है, उसके साथ ही बदलाव की सहज प्रक्रिया भी.... क्योंकि जब प्रतिक्रिया ही नहीं होगी तो फिर बदलाव क्या होगा? हम जो कुछ है, उसे सहज भाव से ग्रहण कर रहे हैं, क्योंकि हममें विरोध करने का माद्दा ही खत्म हो गया है। वो साहस ही नहीं रहा कि हम प्रवाह के विरूद्ध खड़े हों.... बाजार ने जहाँ से भी सवाल आ सकते थे, वो सारे दरवाजे बंद कर दिए हैं। उसने इतनी चकाचौंध पैदा कर दी है, कि समाज अंधत्व की तरह बढ़ रहा है, वह कुंद हो रहा है। इस दुनिया में अब कभी भी, कहीं भी क्रांति नहीं होगी..... क्योंकि हमें लगातार सोने (gold) का जहर दिया जा रहा है, बदलाव की ज्वाला पर पैसों के छींटे मारे जा रहे हैं और इसलिए हमारी आत्मा बौनी होती जा रही है...

Sunday 14 February 2010

प्रतीकों के बीच गुमा प्रेम


फागुन की गुलाबी-सुनहरी सी सुबह...और रविवार का दिन...हफ्ते भर से प्रेम को लेकर की गई माथापच्ची के बाद आई छुट्टी....। प्रेम को विषय बनाकर उसकी बाल की खाल निकाली.... एंगल ढूँढें ( गोया प्रेम नहीं कोई खबर हो, फिर पत्रकार सिवा एंगेल ढूँढने के और कुछ जानता भी तो नहीं है, उससे न तो इससे ज्यादा की उम्मीद की जाती है और न ही वह इससे ज्यादा करना चाहता है, क्योंकि उसके पास प्रेम-व्रेम जैसी निखालिस भावना को जीने का न तो समय होता है और धैर्य...बाकी चीजें तो खैर....छोड़िए)। कहीं पढ़ा था कि इस दौर में युवा प्रेम नहीं करता, क्योंकि वह दुख नहीं पाना चाहता, अब बताइए प्रेम हो और दुख न हो ये कैसे संभव है तो फिर प्रेम हो ही क्यों? जब प्रेम न हो तो फिर वेलैंटाइन-डे भी क्यों हो? लेकिन इसे तो खैर होना ही था, क्योंकि जो प्रेम नहीं कर पाते, या नहीं करना चाहते हैं, कम से कम यह उन्हें प्रेमजन्य खुशी दिलाने का आभास तो देता ही है, क्योंकि ढ़ेर सारे प्रतीकों के बीच कहीं न कहीं यह गफ़लत पल ही जाती है, कि हाँ यही प्यार है।
दरअसल हम प्रतीकों के दौर में जी रहे हैं। फूल, हीरा, कैंडल-लाइट डिनर, सरप्राइज पार्टी, गिफ्ट, बुके, कार्ड और भी पता नहीं क्या-क्या प्रेम के प्रतीक, धर्म के प्रतीक मंदिर, मस्जिद, गुरु-उपदेशक, कर्मकांड और भी बहुत कुछ, हमारे समाज में हर जीच के प्रतीक हैं, साम्प्रदायिकता के, धर्मनिरपेक्षता के, आध्यात्म के, क्षेत्रियता और अखंडता के सब चीजों के प्रतीक हैं, क्योंकि ये ज्यादा सुविधाजनक हैं। हर तरफ प्रतीक ही प्रतीक... बस नहीं है तो मूल भावना...क्योंकि उसके बिना भी हमारा काम बहुत आराम से चलता है।
प्रेम चाहे हो या न हो वेलैंटाइन-डे आपको उसके प्रदर्शन करने का अवसर देता है, और बिना अहसास के आप प्रेमी हो जाते हैं, दरअसल यह एक आसान रास्ता है, इस जमात का हिस्सा होने का, इसमें आपका कोई योगदान नहीं है, न उन अनजान संत वेलैंटाइन का, सारा किया कराया बाजार का है। आप हैं उसके आसान टारगेट... बाजार तो ढूँढता ही रहता है टारगेट पीपल....आज आप है कल कोई ओर होगा, आज यह दिन है कल कोई ओर दिन होगा। इस बार वेलैंटाइन-डे पर मीडिया ने ज्यादा हंगाना नहीं किया, क्योंकि उसके पास इससे भी ज्यादा हॉट स्टोरी थी, बाल, राज और उद्धव ठाकरे हैं, शरद पँवार है, शाहरूख खान है और है उसकी फिल्म और बचा-खुचा कोटा पूरा किया पुणे बम ब्लास्ट ने...हाँ प्रिंट के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे और दुर्भाग्य से रविवार का दिन था तो एक सप्लीमेंट में तो वेलैंटाइन के अतिरिक्त और कुछ जा ही नहीं सकता, भई बाजार की माँग जो हैं।
इस मरे वेलैंटाइन ने प्यार जो नहीं है, उसे वह बना दिया है, और यह जो है, उसे पता नहीं कहाँ गुमा दिया। प्यार एक बहुत व्यक्तिगत और गोपनीय भावना है, जो खुद से भी नहीं कही जाती है, कम से कम हमने तो यही जाना है, यह भी सही है कि पल्ले विच अग दे अंगारे नहीं लुकते हो, लेकिन उसे दुनिया को बताया तो जाता ही नहीं है। यह शब्द नहीं है, लेकिन बाजार ने उसे महज शब्द बना दिए हैं। प्यार अनिर्वचनीय है, लेकिन यहाँ तो तमाम प्रतीकों से इसे वर्णनीय बना दिया गया है। इस दौर ने प्रतीकों को अहम बना दिया है और इसके पीछे की भावना को कहीं उड़ा दिया है। प्यार के लिए एक दिन... कितना हास्यास्पद है, जो जीवन है, उसके लिए एक दिन...! क्या भेड़ चाल है। इसे किसी भी दिन कहो, दिल एक जैसा ही धड़कता है, डर भी वैसा ही लगता है। तो फिर एक विशेष दिन क्यों हो... यदि प्यार किया है तो कोई भी दिन हो, क्या फर्क पड़ता है।
तो उनके लिए जिन्हें प्यार को महसूस करने, व्यक्त करने और जीने के लिए किसी वेलैंटाइन-डे की जरूरत है, उन्हें हैप्पी वेलैंटाइन-डे और उनके लिए जिनके लिए प्यार ही जीवन है, पूरे जीवन के लिए ढेरों-ढेर शुभकामनाएँ....क्योंकि प्यार प्रतीकों के सहारे नहीं किया जाता है, प्यार हो जाता है....यह होता है, बस....।