Wednesday 21 April 2010

डुबोया मुझको होने ने....


हम हर वक्त होना चाहते हैं, बल्कि होने के अलावा हम और कुछ चाह भी नहीं सकते हैं, एक साथ पैसा, शोहरत, इज्जत, नाम, खुबसूरती, तंदुरूस्ती और पता नहीं क्या-क्या.... चाहते हैं.... होना और होना.... होने की दौड़ में हैं हम सब... पूरी जिंदगी इस होने के नाम कुर्बान करते हैं, फिर आखिर में क्या हो पाते हैं हम? हममें से हरेक लगता है होने के लिए ही पैदा हुआ है। होना ही सब चेतना, क्रिया, विचार, संवेदना और भावना के मूल में हैं। सपने इसका स्रोत हैं। यूँ हर कोई कुछ-न-कुछ तो हो ही जाता है, लेकिन जो हकीकत में होना चाहते हैं, वह कितने हो पाते हैं। कुछ ही वहाँ तक पहुँच पाते हैं, जहाँ वे होना चाहते हैं, शेष तो बस घिसटते हुए कुछ भी हो जाते हैं। फिर भी कुछ न कुछ तो होना ही होता है। हम भी हुए कुछ.... वो तो नहीं जो चाहा था, लेकिन फिर भी होने जैसे कुछ तो हुए ही.... (अब होना तो मजबूरी है ना) फिर होना हर पल होता है, तो होते ही रहते हैं। होना अच्छा भी लगता है, कहीं कुछ हमें दूसरों से उपर करता लगता है, कभी हम दूसरों से कम भी होते है, फिर भी होते तो हैं ही, ये लगातार चलती रहती है, मरने तक.... होने के लिए ही जो जन्मे हैं....।
ज्यादातर तो ये होना अच्छा ही लगता है। यदि मन का हो जाए तो सातवें आसमान पर होते हैं, नहीं हो तो भी कुछ दिन दुखी होकर भी जो है, उसी में मन लगाने लगते हैं और होने का उत्सव जीवन भर मनाते हैं। होना नशा है.... गहरा..... जीने का सहारा भी, इसलिए होना जरूरी है, लेकिन कभी-कभी मन यूँ भी करता है, काश ये होना थोड़े दिन के लिए ही स्थगित हो जाए.... होने की चेतना, उसका अहसास हवा हो जाए..... रूह भाप बनकर उड़ जाए, जहन बादल होकर बरस जाए.... बदन रेत की तरह भुरभुरा जाए.... और हम होने से न-कुछ हो जाए।
ग़ाल़िब ने लिखा था
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
अभी हम इस दर्शन में नहीं पड़ रहे हैं कि खुदा के होने से पहले क्या था, और खुदा के न होने पर क्या होगा? यहाँ मामला अपनी संवेदनाओं का, अपनी चाहतों का है तो बेचारे खुदा को क्यों घसीटे? हाँ तो चाहते हैं, न हों...... उस प्रेम की गली में गर्क़ हो जाए जो बहुत सँकरी है.... जिसमें या तो हम हो या फिर वो..... फिर हम ही रल जाए, गल जाएँ, खत्म हो जाए.... लेकिन.... अपने होने के भारी-भरकम अहसास को कहाँ लेकर जाएँ? फिर कुछ हो जाने के बाद भी क्या है? कोई खुशी.... कोई संतुष्टि.... कोई अर्थ नहीं है.... तो फिर क्या यही सही है
रास आया नहीं तस्कीन का साहिल कोई
फिर मुझे प्यास के दरिया में उतारा जाए

Sunday 18 April 2010

मैं ही कश्ती हूँ, मुझीं में है समंदर मेरा




निदा फ़ाज़ली का शेर है
हर घड़ी खुद से उलझना है मुकद्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ, मुझीं में है समंदर मेरा
बस कुछ ऐसे ही हाल है, इन दिनों.... ऊब के साथ अरूचि का संयोग है, न सूफी पसंद आ रहा है, न गज़लें, न शास्त्रीय.... न फिक्शन भा रहा है, न फैक्चुअल... न फिलॉसफी और न ही लिट्रेचर.... न दौड़ना अच्छा लग रहा है न ही रूकना... बैठना.... क्या करें कुछ समझ ही नहीं आ रहा है। कहाँ जाना है, क्यों जाना है और पहुँच कर क्या करना है, ऐसे सवाल फिर से उछल रहे हैं। हर सुबह ऊब के साथ शुरू होती है, हर दिन एक-सा क्यों है? इस सवाल से दिन शुरू होता है, काम के दौरान यह सवाल ओझल तो हो चुका होता है, लेकिन उसके होने का अहसास बना रहता है और फुर्सत पाते ही वह फिर लहराने लगता है। कोई काम करना नहीं भा रहा है। यूँ लगता है दिन बस गुजार रहे हैं। सपनों की मौत हो जाने से शायद ऐसी त्रासद स्थिति बन जाती है। जीवन से अपेक्षा खत्म हो जाए... चाहना स्थगित हो जाए और आकर्षण कहीं गुम हो जाए तो.... यूँ भी गाहे-ब-गाहे सवाल तो उठता ही है, कि जो कुछ है जीते जी ही है, मरने के बाद क्या है? तो फिर बहुत सारा कुछ करने से हासिल क्या है? हमारे बाद यदि महफिल में अफसाने बयां होंगे तो हमारे लिए क्या है?
हमारे होने का मतलब क्या है? हम नहीं हों तो भी इस दुनिया में क्या बदल जाएगा? फिर से वैसे ही सवाल.... उलझाव घना है, और दुनिया के चलते चले जाने पर गहरा आश्चर्य भी.... क्यों है इतनी दौड़.... क्या सवालों की आग यहीं सुलगती है और कहीं नहीं, यदि कहीं और भी सुलगती है तो उसकी लपटें क्यों नहीं दिखती.... ? क्यों नहीं समझ पातें कि ये दुनिया ऐसी और हम वैसे क्यों हैं?
सवाल वही है.... जवाब नहीं है.... होगा, ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं हैं..... बस लेकिन क्या करें कि समझ नहीं पाते हैं। शायद ये थोड़ा मुश्किल है किसी ओर के लिए समझना, क्योंकि
ये अक्ल वाले नहीं एहले दिल समझते हैं
कि क्यूँ शराब से पहले वज़ू जरूरी है