Wednesday 26 October 2011

पता होता है तो घर खो जाता है...!


तथ्य तो ये है कि कार्तिक आधी उम्र जी चुका है, लेकिन सत्य यह है कि अभी तक तो क्वांर ही नहीं बीता... तो निष्कर्ष यूँ कि जरूरी नहीं है कि जो तथ्य हो वो सत्य हो ही और ये भी जरूरी नहीं है कि जो सत्य हो, उसमें तथ्य हो ही... ऊ हूँ... बात जरा मुश्किल हो रही है। थोड़ा आसान करके समझें... दीपावली से पहले सारे आर्थिक सर्वेक्षण ये गा रहे हैं कि देश में गरीबी कम हुई है लेकिन करीब बन रही कॉलोनी के सारे चौकीदार साल की इस सबसे अँधियारी रात को एक-एक दीए से रोशन करने की कोशिश में लगे हैं... कारण... इससे ज्यादा तेल जलाने की उनकी कुव्वत भी नहीं है और साहस भी नहीं है... तो तथ्य ये कि गरीबी कम हो रही है और सत्य ये कि गरीब तो वहीं के वहीं है, वैसे के वैसे ही... अभी भी कुछ समझ नहीं आ रहा है, छोड़िए... कुछ और बात करते हैं।
हाँ तो कार्तिक की खुनकभरी सुबह-शाम चाय का गर्म प्याला अभी तक खुले में ही मजा दे रहा है। सुबह की चाय अखबार की उबाऊ और अवसाद देने वाली खबरों के साथ और शाम की चाय आखिरी सिरे पर दिन भर की जुगाली के साथ...। तो उस शाम हमारी चाय में परिवार के और लोग भी शामिल हुए... तमाम दुनिया जहान की बातों के बीच न जाने कहाँ से वो रहस्यमयी खुशबू सरसराती हुई घुस गई... अरे... ये तो रातरानी की खुशबू है, हमने आश्चर्य जताया, लेकिन हमने तो अभी तक रातरानी लगाई ही नहीं, तो फिर ये खुशबू कहाँ से आ रही है। हमारे आसपास बहुत किफायती लोग रहते हैं, ना तो जमीन बेकार छोड़ी और न ही किसी मुँडेर पर कोई गमला नजर आता है... पानी की भी किफायत और जमीन की भी... पैसों की तो खैर है ही...। तो फिर ये खुशबू कहाँ से आ रही है...? घर के आसपास लगे पौधों में जाकर सरसरी तौर पर देख भी लिया, लेकिन शाम के धुँधलके और पेड़-पौधों के गुँजलक में क्या रातरानी दिखे, फिर जब अभी तक लगाई ही नहीं है तो होने का तो सवाल ही नहीं उठता है।
किचन में सिंकती रोटी के साथ फिर से वही मादक और जंगली-सी सुगंध... रात के खाने के बाद टहलते हुए भी फिर वही... उफ्...! अब तो कॉलोनी छोड़कर सड़क पर टहलो तो वहाँ भी... जैसे वो सुगंध हमारा ही पीछा कर रही है। मुश्किल ये है कि दिन के उजाले में वो खुशबू नहीं होती कि उस बेल का पता मिले और शाम के धुँधलके में जब खुशबू का पता होता है तो वो घर ही खो जाता है। पिछले 15 दिनों से यही लुकाछिपा का खेल चल रहा है, लेकिन न रातरानी की खुशबू हारी और न ही हमें जीत मिली... फिर एक दिन सोचा कि क्यों न रातरानी को लगा ही लिया जाए, अब उसे लगाया तो है, लेकिन उसे फूलने में वक्त है... पर, ये खुशबू...! उफ्.. तो लब्बोलुआब ये है कि रातरानी हमारे आसपास नहीं है ये तथ्य है, लेकिन उसकी खुशबू सत्य... तो क्यों न उस खुशबूदार सत्य से रिश्ता रखें... रातरानी के तथ्य का फायदा क्या है? शायद अब सत्य-तथ्य की गुत्थी समझ आए...!

Friday 21 October 2011

नींद आ जाए अगर आज तो हम भी सो लें...


पता नहीं वो सपना था या विचार... रात के ऐन बीचोंबीच एक तीखी बेचैनी में मैंने अपने शरीर पर पड़ा कंबल फेंका औऱ उठ बैठी। चेहरे पर हाथ घुमाया तो बालों की तरफ से कनपटी पर आती पसीने की चिपचिपाहट हथेली में उतर आई। सिर उठाकर पंखे की तरफ देखा, फुल स्पीड में चलते पंखे ने अपनी बेचारगी जाहिर कर दी...। सिरहाने से पानी का गिलास उठा लिया, एक ही साँस में उसे पूरा गले में उँडेल लिया... लेकिन कुछ अनजान-सा अटका हुआ है, जो किसी भी सूरत में नीचे नहीं जा रहा है। सुबह-शाम-दिन-रात एक अपरिचित बेचैनी है, बड़ी घुटन। सबकुछ अपनी सहज गति से चल रहा है, लेकिन कहीं-कुछ चुभता है, गड़ता है और परेशान कर रहा है। थोड़ी कोशिश की तो नींद आ ही गई ... हमें भी नींद आ जाएगी हम भी सो ही जाएँगें, अभी कुछ बेकरारी है, सितारों तुम तो सो जाओ...। सुबह फिर उसी बेचैनी में नींद खुली थी, उनींदी आँखों से घड़ी को देखा तो सात बजने में बस कुछ ही देर थी... पंखे की हवा ठंडी लग रही थी, लेकिन सोचा बस बिजली गुल होने ही वाली है... दिमाग के गणित से निजात कहाँ...?
चॉपिंग बोर्ड पर हाथ प्याज काट रहे हैं, लेकिन दिमाग का मेनैजमेंट जारी है। सब्जी छोंकने के दौरान ही दाल पक जाएगी और उसी गैस पर फिर चावल रख दूँगी। सब्जी बनते ही दाल छौंक दूँगी... दस बजे तक सारा काम हो ही जाएगा। फिर दो-चार पन्ने तो किताब के पढ़ ही पाऊँगी, आज नो इंटरनेट... बेकार समय बर्बाद होता है। कड़ाही में मसाला भून रहा है, लेकिन दिमाग में अलग ही तरह की खिचड़ी पक रही है। आज भी पुल से नहीं जाना हो पाएगा... अखबार में ही तो पढ़ा है कि यहाँ किसी पोलिटिकल पार्टी की आमसभा है, तो जाम की स्थिति बनेगी...। रिंग रोड से जाना ही सूट करता है। हालाँकि इस रोड पर बहुत गड्ढे हैं, लेकिन कम से कम जाम... अदिति कहती है कि तुम्हें मेडिटेशन करना चाहिए... लेकिन दिल और दिमाग दोनों को साध पाना क्या आसान है, खासकर तब जब दोनों की गति हवा की तरह हो... वो कहती है कि किसी को इतना हक नहीं देना चाहिए कि वो आपको दुख पहुँचा सके... उफ्! भूल गई... कहीं पानी ओवरफ्लो तो नहीं हो रहा है। दौड़कर देखा, बच गए। आखिरकार हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा पानी, बिजली, ईंधन औऱ पर्यावरण पर...। लेकिन क्या इतने अनुशासन के बाद जीवन में रस बचा रहेगा। तो क्या अनुशासन को उतार फेंके जीवन से...? फिर से सवाल...।अदिति का कहना सच है, जो भी दिल के करीब आता है, जख्म बनके सदा... तो क्या करें...? दिल के दरवाजे बंद कर के रखें! ... कितने दिनों से एक ही किताब पढ़ रही हूँ, आखिर इतनी स्लो कैसे हो सकती हूँ... मसाला तेल छोड़ने लगा है, लेकिन प्रवाह सतत जारी है, मशीन का बजर बज गया। घड़ी ने साढे़ दस बजा दिए। ना तो इंटरनेट हो पाया और न ही किताब के पन्ने पलटे गए। सोचा था आज साड़ी, लेकिन अब समय नहीं है, सूट... पिंक... नहीं यार आज मौसम अच्छा है, कोई तीखा रंग। सिल्क... पागल हो क्या? मौसम कितना खराब है, दिन भर घुटन होती रहेगी... फिर... कोई सूदिंग-सा कपड़ा... कॉटन...। दिमाग ने सारी ऊर्जा सोख ली... अभी तो दिन बाकी है।
यार दो ही भाषा आती है, कितना अच्छा होता पाँच-सात भाषाएँ जानती... तो कितना पढ़ पाती, जान पाती, समझती और महसूस कर पाती...। उफ्...! अदिति कहती है कि - कितनी भूख है यार तेरी... बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...। कहीं तो लगाम लगानी ही पड़ेगी ना...! कोई न कोई नुक्ता तू ढूँढ ही लाती है दुखी होने के लिए... छोड़ इस सबको... जीवन को उसकी संपूर्णता में देख...। काश कि वो मुझे वैसे दिख पाता...। – ओ...ओ... अभी बाइक से टकराती... ये दिमाग पता नहीं कहाँ-कहाँ दौड़ता फिरता है। उफ्... आज फिर किताब घर पर ही रखी रह गई। ले आती तो एकाध पन्ना पढ़ने का तो जुगाड़ भिड़ा ही लेती...। कब तक फिक्शन ही पढ़ती रहूँगी, कभी कुछ ऐसा पढूँगी जो नॉन-फिक्शन हो...। अरे... अभी तो पढ़ी थी वो डायरी...। हाँ, वो है तो नॉन फिक्शन...।

खिड़की से आती स्ट्रीट लाइट ने एक बार फिर ध्यान खींचा और मैंने पर्दा खींचकर उस रोशनी को बाहर ढकेल दिया। आँखों के सामने अँधेरा घिर आया... अंदर-बाहर बस अँधेरा ही अँधेरा... कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। कई-कई रातों से नींद के बीच कुछ-न-कुछ बुनता हुआ-सा महसूस होता है, लगता है जैसे नींद भी कई-कई जालों में फँसी हुई है। लगता है कि कोई ऐसा इंजेक्शन मिल जाए, जिसे सिर में लगाएँ और रात-दो-रात गहरी नींद में उतर जाएँ...। कुछ अजीब से परिवर्तन हैं – संगीत सुहाता नहीं, डुबाता नहीं... सतह पर ही कहीं छोड़ जाता है, प्यासा-सूखा और बेचैन... किताबें साथी हो ही नहीं पा रही है, वो छिटकी-रूठी हुई-सी लगती है। कुछ भी डूबने का वायस नहीं बन रहा है... ना संगीत, ना किताबें और न ही रंग... क्यों आती है, ऐसी बेचैनी, क्यों होता है सब कुछ इतना नीरस और ऊबभरा... ? ऐसी ही बेचैनी में उठकर अपने स्टूडियो में आ खड़ी होती हूँ। जिस कैनवस पर मैं काम कर रही हूँ, उसके रंग देखकर ताज्जुब हुआ... कैसे पेस्टल शेड्स दाखिल हो गए हैं, जीवन में...! हल्के-धूसर रंगों को देखकर हमेशा ही कोफ्त होती रही है, लेकिन मेरे अनजाने ही वे रंग मेरे कैनवस पर फैल रहे हैं... उफ् ये क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है, क्या है जो बस धुँआ-धुँआ सा लगता है, कुछ भी हाथ नहीं आ रहा है।
दिल को शोलों से करती है सैराब, जिंदगी आग भी है पानी भी... आज तो बस शोलें ही शोलें हैं... तपन है तीखी। अदिति कहती है कि तुम्हें बदलाव की जरूरत है... बदलाव कैसा...? कहती है एक ब्रेक ले लो... ब्रेक... किससे... खुद से, यार यही तो नहीं हो पाता है। खुद को ही कभी अलग कर पाऊँ तो फिर समस्या ही क्या है...? कितनी दिशाओं में दौड़ रही हूँ, खींचती ही चली जाऊँगी और अपने लिए कुछ बचूँगी ही नहीं....। कहीं कोई मंजिल नजर नहीं आ रही है... दौड़ना और बस दौड़ना... क्या यही रह गया है जीवन... ? कहीं किसी बिंदू पर आकर निगाह नहीं टिकती है, अजीब बेचैनी है... स्वभाव में, विचार में, जीवन में तो फिर निगाहों में कैसे नहीं होगी? पढ़ने के दौरान कई सारे पैरे पढ़ने के बाद भी मतलब समझ नहीं आता... लगता है कि एकसाथ कई काम करने हैं और फिर तुरंत लगता है कि क्या करना है और क्यों करना है?
रफी गा रहे हैं – तल्खी-ए-मय में जरा तल्खी-ए-दिल भी घोले/ और कुछ देर यहाँ बैठ ले, पी ले, रो ले...। चीख कर रोने की नौबत आने लगी थी... मुँह को हथेली से दबाया और खुद को चीखने की आजादी दे डाली... एक घुटी हुई सी चीख निकली और फिर देर तक सिसकियाँ... गज़ल चल ही रही थी – आह ये दिल की कसक हाय से आँखों की जलन/ नींद आ जाए अगर आज तो हम भी सो ले... गहरी... मौत की तरह की अँधेरी नींद की तलब लगी थी... शायद मैं भी सो गई थी...

Tuesday 4 October 2011

...क्या फिर कारखानों में उत्पादित होगी बेटियाँ...!


कागज के उस छोटे-से टुकड़े ने जैसे पूरे घर में तूफान ला दिया था। टेबल पर पड़े उस कागज को सभी ऐसी नजर से देख रहे थे जैसे वो कोई बम है और उसके फटते ही सब कुछ खत्म हो जाएगा। लक्ष्मी देवी का चेहरा तो जैसे दहक रहा था, राधिका को ये समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्यों लग रहा है कि उससे कोई भारी अपराध हुआ है, लक्ष्मी देवी, सुरेश जी और अमोल सभी जैसे उससे नाराज है और वो खुद भी…, लेकिन बहुत सोचने के बाद भी वो खुद समझ नहीं पा रही है कि आखिर उसका अपराध क्या है?
लक्ष्मी देवी दहाड़ी थी – हमें ये नहीं चाहिए। तू कल ही डॉ. उपाध्याय से मिल और इससे छुटकारे का कोई उपाय कर।
लेकिन माँ…- राधिका के गले में शब्द ही जैसे फँस गए हो। अमोल ने भी बहुत कातर दृष्टि से राधिका की तरफ देखा था। अमोल ये तय नहीं कर पा रहा था कि उसका स्टैंड क्या होना चाहिए। हालाँकि ये तय था कि अमोल लक्ष्मी देवी और सुरेश जी के निर्णय के खिलाफ किसी भी कीमत पर नहीं जा सकता, लेकिन कहीं उसके विचार में ये सवाल जरूर उठता है कि आखिर राधिका की क्या गलती है? आखिर अमोल अपनी माँ से बात करने का साहस जुटा ही लेता है – माँ… ये पहला है। अगली बार इस पर सोचें तो…!
लक्ष्मी देवी चीखीं थी – अगली बार…! अगली बार नहीं इसी बार…। हमें ये झंझट नहीं चाहिए।
राधिका ने डबडबाई आँखों से एक बार लक्ष्मीदेवी की तरफ और एक बार अमोल की तरफ देखा था। अमोल ने बेचैन होकर नजरें चुरा ली थी, जबकि लक्ष्मीदेवी के चेहरे की दृढ़ता से राधिका ने खुद को बहुत बेबस महसूस किया था।
आखिरकार सारी तैयारी हो चुकी थी। राधिका पता नहीं किस उम्मीद में किसी चमत्कार की आस में अडोल बैठी थी कि सुरेशजी की कड़कती आवाज से चौंक गईं – चलो या फिर मुहूर्त निकलवाएँ?
राधिका डर गई थी। उसने सहारे के लिए अमोल की तरफ देखा तो उसने भी नजरें चुरा लीं। राधिका को लगा कि इस पूरी दुनिया में वो नितांत अकेली है, कोई भी उसका साथ देने के लिए नहीं है, जिस इंसान का बहुत विश्वास से हाथ पकड़कर वो इस घर में आई थी, उसने भी उसे मझधार में छोड़ दिया है।
पीली-बेदम राधिका की आँखें लगातार मूँदी जा रही थी। कमरे की रोशनी से उसे बेचैनी होने लगी तो अमोल से गुजारिश कर लाइट बंद करवा दी। एनेस्थिशिया का असर था या रात की अधूरी नींद का, कमजोरी थी या फिर लंबे तनाव के बाद गहरे अपराध बोध का उसे लगने लगा था कि वो लगातार धरती के अंदर धँस रही है… गहरे, गहरे काले अतल में…। उसी नींद-नशे के बीच की सी स्थिति में राधिका को आवाज सुनाई दी… माँ… माँ… माँ…। उसकी चेतना का कोई हिस्सा सक्रिय हुआ। वो बुदबुदाई – हाँ बेटा।
सिसकी की तीखी सीत्कार…। – तूने मुझे दुनिया में आने का अधिकार तक नहीं दिया!
राधिका घिघियाने लगी… – मैंने नहीं चाहा था कि ऐसा हो…
लेकिन… हुआ तो वही ना…! – बच्ची ने तल्खी से कहा। – तू तो माँ थीं ना… सदियों से तेरी कहानी साहित्य, इतिहास और कला में दोहराई जा रही है। खुद भूखे रहकर बच्चों का पेट भरने वाली, खुद जागती रहकर बच्चों को सुलाने की सुविधा देने वाली, अपने खून को बच्चों के पसीने पर लुटा देने वाली ममतामयी, वात्सल्य से भरी हुई माँ…। तूने अपने ही बच्चे की हत्या पर कैसे सहमति दे दी…? वो भी सिर्फ इसलिए कि मैं बेटा न होकर बेटी थी!
राधिका ने फिर अपना बचाव किया – मैं तुझे खोना नहीं चाहती थी… लेकिन मेरे आसपास की दुनिया ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया। मैं बेबस थी।
माँ सच है तू बेबस है, तू लड़ नहीं पाई, लेकिन मैंने तो सुना था कि तुम्हारे यहाँ का इतिहास, धर्म और साहित्य माँओं के बलिदानों की कहानियों से भरे हुए हैं! भरे हुए हैं उन कहानियों से जिनमें माँ ने अपने बच्चों के लिए सारी दुनिया से लड़ाई लड़ी और तू इतनी कमजोर निकली…? मुझे आने तो देती… मैं तेरे आँगन को किलकारी, मुस्कान, अपनेपन और प्यार से भर देती। मैं तेरा अकेलापन दूर करती, जब तुझे जरूरत होती मैं तेरे साथ खड़ी होती। तेरी हिम्मत, तेरी ताकत बनती, तेरा सहारा होती… लेकिन शायद दूसरों की तरह ही तूने भी मुझे इस लायक नहीं समझा…। – उस आवाज ने कहा।
मैं… मैं… मैं भी लड़ना चाहती थी, लेकिन अकेली थी, किसी ने मेरा साथ नहीं दिया। – राधिका ने साफ किया।
तुझे अपने बच्चे को बचाने के लिए साथ की जरूरत थी, सच और न्याय के लिए तू अकेले नहीं लड़ सकती थी! – वो आवाज कुछ क्षण के लिए रूकी – सही किया तूने… अच्छा किया जो मुझे मार डाला, क्योंकि जहाँ सच और न्याय के लिए लड़ाई इसलिए न लड़ी जाए कि हम अकेले हैं, जहाँ स्त्री को देवी का दर्जा दिया जाए और उसकी पूजा का ढोंग तो किया जाता हो, लेकिन उसके जीवन को नकारा जाता हो। जो समाज स्वतंत्र और आधुनिक तो हो, लेकिन स्त्री की सुरक्षा और सम्मान का दायित्व नहीं उठा सकता हो। जहाँ बेटी और बेटे में फर्क किया जाता हो वहाँ मेरे होने का फायदा भी क्या था? क्या हो जाता एक मेरे बच जाने से… यहाँ तो हर घड़ी अजन्मी बेटियाँ मरती हो, जहाँ जीव हत्या तो पाप मानी जाती हो, लेकिन भ्रूण-हत्या पर सब मौन हो… जहाँ हर घड़ी बेटियों को प्रताड़ना, शोषण और अपमान का सामना करना पड़ता हो, वहाँ एक अकेले मेरे जिंदा होने का फायदा भी क्या था? – आवाज थम गई थी, थक गई थी।
बेटा इस समाज में औरत का जीवन बहुत मुश्किल है। हर कदम पर उसे विरोध, प्रताड़ना और शोषण का सामना करना पड़ता है। तू जिन इतिहास, धर्म और साहित्य की बात कर रही है ना, वो भी स्त्री के शोषण की कहानियों, घटनाओं से रंगे पड़े हैं। जन्म से पहले मारे जाने की दास्तां तो क्या नई है। जन्म के बाद भी उसे कई-कई मुसीबतों, परेशानियों और बंधनों में अपना जीवन गुजारती है। खाने, पहनने और पढ़ने के लिए पक्षपात की जो शुरुआती होती है, वो जीवन के अंत तक जारी रहती है। – राधिका ने बचे हुए साहस को बटोरते हुए अपनी बात कही।
हाँ… हाँ शायद इसीलिए तूने मेरे जीवन के लिए संघर्ष नहीं किया? – थकी-बुझी आवाज – सही किया… जो तून मुझे पैदा होने से पहले ही मार दिया। पैदा हो भी जाती तो क्या होता? भाई के आते ही कदम-कदम पर पक्षपात सहती। पढ़ना चाहती, लेकिन पढ़ाया नहीं जाता। तू जो मेरे जीवन-मृत्यु का फैसला तक नहीं कर पाई, तू क्या मेरे भविष्य का फैसला कर पाती… पता नहीं तूने खुद अपने लिए कभी कोई फैसला किया भी है या तेरे सारे फैसले दूसरे लेकर तुझे सुना देते हैं… जैसे ये… कि तेरी कोख में पल रहे बच्चे का क्या किया जाना है? उसे जीने दिया जाना है या फिर मार दिया जाना है। जब ये निर्णय तक तुझसे नहीं हो पाया तो तू क्या मेरी जिंदगी और मेरे भविष्य का निर्णय कर पाती? जिस समाज में औरत के जन्म से लेकर मृत्यु तक का निर्णय कोई और करे, उस समाज में जन्म लेकर भी क्या हो जाता? अब सोचती हूँ तो लगता है कि ठीक ही किया माँ तूने… जो मुझे इस नर्क में आने से पहले ही मार दिया। जिस दुनिया में अपने ही घर में बहन-बेटियाँ सुरक्षित न हो, जिस दुनिया में औरतों को प्यार करने का हक तक नहीं दिया जाता हो, जिस दुनिया में स्त्रियों की कीमत ढोरों से भी कम आँकी जाती हो, जिस दुनिया में माँ को ईश्वर का दर्जा तो दिया जाता है, लेकिन उसके बीज रूप को ही कुचल दिया जाता हो। भला बताओ जब बीज को ही कुचल दिया जाए तो फिर पेड़ कहाँ से आएँगें…? आज तो दौड़ रहे हैं सीमेंट की सड़क पर चार पहियो में बैठकर जब धूप पड़ेगी, तो सिर छुपाने कहाँ जाएँगें…? तब कहाँ जाएँगें, जब बेटों के लिए बहुओं की जरूरत होंगी… भाईयों की सूनी कलाइयों को बहनों के प्यार भरे धागों की जरूरत होगी। तब पेड़ों की छाँह चाहेंगे तो कहाँ से होगी…, तब बेटियों की खेती करेंगे तब भी बेटों के लिए दुल्हनें नहीं ला पाएँगें… । इसे ही तो कहा जाएगा अपनी जड़े खोदना… विज्ञान ने इतनी तरक्की तो कर ली कि ये जान लें कि कोख में पल रहा जीव नर है या मादा… लेकिन अभी तक इतनी तरक्की नहीं की है कि बिना औरत के अपनी दुनिया, अपना वंश बढ़ा सके…। इसके लिए तो औरत की जरूरत पड़ेगी ही… अपने मकान को घर बनाने में, अपनी दुनिया को अपनी जिंदगी बनाने में औरत की ही जरूरत होगी और आपकी दुनिया का ये दुर्भाग्य है कि वो औरत किसी कारखाने में नहीं बनती है, किसी खेत में नहीं उगती है। वो तो पैदा होती है… और बढ़ती है। लेकिन नहीं… बहुत सवाल हो गए, आपकी दुनिया की गज़ालत और जहालत से मैं दूर ही भली। आपने अच्छा ही किया जो मुझे इससे दूर ही रखा… अच्छा किया जो मुझे इस नर्क में आने से पहले ही मुक्त कर दिया। अच्छा किया माँ… जो मुझे तूने जन्म होने से पहले ही मार दिया…। अच्छा किया तूने… मुझे खुद ही तेरी दुनिया में नहीं रहना। बहुत अच्छा किया…।