Thursday 26 August 2010

जीवन की संजीवनी, छोटी-सी खुशी


हर बार ये निर्भरता अखरती थी, लेकिन बहुत ज्यादा असुविधा नहीं होने पर इसे नजरअंदाज कर दिया जाता रहा। यूँ कह लें एडजस्टमेंट करने की बजाए निर्भरता को चुन लिया था। कहीं आना-जाना हो तो ड्रायवर के भरोसे... ड्रायवर भी कर्तव्य परायण... बीमारी, समस्या और त्योहारों की एकाध छुट्टी के अतिरिक्त छुट्टी लेता नहीं, इसलिए भी गाड़ी सीखने के बारे में सोचा तो कई बार लेकिन हर बार तमाम तरह के बहाने बनाकर इस विचार को खारिज कर दिया। कभी ये सोचकर कि कहाँ जाकर सीखेंगे, कभी दोस्तों ने सुझाव दिया कि ड्रायवर ही सीखा देगा (अब चूँकि वो तो हर दिन ही आता है, इसलिए उससे तो कभी भी सीख ही लेंगे), समय कैसे मैनेज करेंगे, जरूरत क्या है, इस शहर में गाड़ी चलाना यूँ भी जोखिम भरा है, जब तक पीछे की सीट पर बैठो तभी तक आनंद है, ड्रायविंग कोई बहुत आनंददायक चीज नहीं है... आदि-आदि... तो लब्बोलुआब यूँ कि ड्रायविंग सीखने को टालते रहे। ड्रायवर कई बार गाड़ी सीखने के लिए कह चुका है... सिखाने की बात पर भी उसने हाँ कर दी, लेकिन समय तो आपको ही निकालना पड़ेगा... पुछल्ला जोड़ा ... अब यही तो गड़बड़ है... समय की ही तो किल्लत है (क्यों नहीं... ओबामा, मनमोहनसिंह, सोनिया गाँधी, अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान, मुकेश-अनिल अंबानी और रतन टाटा के बाद हमारा ही तो नंबर है मसरूफ़ियत में...!)।
फिर एक दिन ड्रायवर ने डरते-डरते खुद ही पूछा – आपके ऑफिस के पीछे है एक कार ड्रायविंग स्कूल, क्या मैं उससे बात कर आऊँ?
सोचा चलो, शायद यही निमित्त हो और हाँ कर दी। शाम को पूरी तफ्सील के साथ वो हाजिर था। तो अगले ही दिन से सीखने का क्रम शुरू हुआ। पहले ही दिन स्टेयरिंग के कॉम्प्लीकेशन से मूड उखड़ गया... तीन दिन मन मार कर गए तो लगा कुछ-कुछ पकड़ा है, उसने चौथे दिन गियर, क्लच और एक्सीलरेटर सभी थमा दिए... भगवान एक साथ चार-चार चीजें कैसे संभाली जाएगी...? साथ में हिदायत ये भी कि सामने की तरफ तो ध्यान रखना ही है, पीछे से और दोनों तरफ से आती गाड़ियों का भी ध्यान रखना पड़ेगा... अरे... दो ही आँखें हैं और वो भी सामने की ओर... इतना सारा कैसे ध्यान रखेंगे? हर सुबह खुद को ठेलठाल कर ड्रायवर की सीट पर बैठाते और जैसे ही उतरते तो यूँ लगता जैसे नर्क से बाहर आ गए हैं... अभी तो ब्रेक का किस्सा बाकी था। हफ्ते भर बाद उसने ब्रेक भी थमा दिया, एक और का इजाफा... सुनसान में तो गाड़ी दौड़ा लो, लेकिन जरा भी भीड़ नजर आई कि हाथ-पैर फूलने लगते, वो जब ब्रेक लगाने को कहता, गाड़ी रूकती औऱ बंद हो जाती .... फिर वही कवायद... लेकिन पहले गियर में एक्सीलरेटर दबाओ तो गाड़ी बंद... फिर घबराहट। हर दिन सिखाने वाला ड्रायवर से पूछता, प्रेक्टिस कराई?
तो धीरे-धीरे गाड़ी चलाना शुरू किया। ड्रायवर हिदायत देता जाता और हम उस पर अमल करते जाते... यहाँ एक अच्छी बात है कि यदि सीखना हो तो पूरी तरह से जिज्ञासु विद्यार्थी हो जाते हैं, तो गाड़ी चलाते जाते और ड्रायवर से पूछते जाते...। उस दिन बिना ड्रायवर की हिदायत के चौथे गियर में गाड़ी चला रहे थे और ब्रेक लगाने की जरूरत लगी तो तुरंत ब्रेक ठोंका, गाड़ी पहले गियर में डाली और आगे बढ़ा ली... आश्चर्य गाड़ी बंद नहीं हुई... खुशी इतनी कि हमारे साथ-साथ गाड़ी भी लहराई... इतना सारा लिखने के पीछे का सबक बड़ा अहम है कि इस बेहद मामूली-सी उपलब्धि ने खुशी का अहसास कराया ... और इस अहसास को हमने दर्ज भी किया (क्योंकि ये अहसास होता तो रहा ही है, लेकिन कभी उस तरह से पकड़ा नहीं) कि पाना दरअसल हमेशा कुछ बड़ा, भौतिक, सार्वजनिक या ऐसा नहीं होता है, जिससे रातों-रात जिंदगी बदल जाती है, फिर ऐसा हर दिन नहीं होता है, हर दिन पाने का एहसास छोटी-छोटी चीजों से होता है। छोटा-छोटा कुछ सीखना, छोटी-मोटी खुशियाँ बस इतना ही पाना है और यही है खुशी... शायद यही जीवन के लिए संजीवनी भी है।
बहुत दिनों पहले उठे सवाल कि ‘पाना क्या है?’ का लगे हाथों जवाब भी मिला... हर वो चीज जो आपमें कुछ ‘एड’ करती हो, पाना है। ये आपके हाथ से बनी स्वादिष्ट दाल से लेकर कोई अच्छी लिखी कहानी तक, किचन में किए गए नए प्रयोग के सफल होने से लेकर किसी नए और खूबसूरत विचार के पैदा होने तक, किसी अच्छी किताब को पढ़ने से लेकर गाड़ी चलाना सीख लेने तक, किसी दोस्त की परेशानी में उसे राहत देने वाली राय देने से लेकर दुनिया के किसी कोने में पैदा हुए किसी विचार को महज जान लेने तक... या फिर किसी खूबसूरत बंदिश को सुनने और किसी सरल से गाने को ठीकठाक सुर के साथ गा लेने जैसी बेहद मामूली और छोटी-छोटी चीजें पाने के दायरे में आती है, तो फिर जीवंतता के साथ जीने के लिए हर दिन कुछ छोटा-छोटा सीख कर जीवन को सरस करने का नुस्खा मजेदार नहीं है...?

Monday 16 August 2010

छोड़ो कल की बातें...


स्वतंत्रता दिवस का हैंग ओवर उतर चुका है... हम फिर से वही हो गए हैं और इस बात से बहुत राहत हुई है। क्योंकि अभिनय... आखिर अभिनय ही हो है... चाहे वह कृत्रिम रूप पैदा हुई भावनाएँ ही क्यों न हो...? तो एक बार फिर अपने खालिस रूप में आ खड़े हुए हैं, वैसे ही निस्संग, उदासीन और आत्म-केंद्रीत... यही तो हैं हम... वो तो एक उबाल था... उस दौरान एक तो बारिश नहीं हो रही है, उस पर दो दिन से लगातार देशभक्ति की बातें, गाने और इतिहास के गौरव-गान को सुन-सुनकर पकने लगे थे। हर साल इन दो और गणतंत्र दिवस के दो दिन यही सब कुछ चलता है… कभी कोई खिलाड़ी किसी खेल में विदेश में जाकर देश का झंडा गाड़ आता है, तब भी भावनाओं का ऐसा ही उबाल देखने में आता है। कारगिल युद्ध के समय भी ऐसा ही कुछ हुआ था। 62, 65 और 71 के युद्धों में भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा... कभी-कभी आज पर भी बातें हो जाती है, बाजार झंडों, बैनरों और तीन रंग के कपड़ों से पटा पड़ा है, राजनेता इसका उपयोग घोषणा करने और जनता पर उनके द्वारा (!) किए गए एहसानों का हिसाब दिखाने में करते हैं... अब तो इस कवायद में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ, मॉल और शो-रूम भी कूद पड़े हैं... लगे हैं सारे 64 साल पहले मिली आज़ादी को आज भुनाने में... आज़ादी पर छूट के विज्ञापन दे रहे हैं, अखबारों के पन्ने काले हो रहे हैं, आज़ाद देश की उपलब्धियों और चुनौतियों के साथ इतिहास पर से धूल साफ करने में ... टीवी चैनलों के पास तो दिखाने की सीमा ही नहीं है, सेना का जीवन, विदेशों में भारतीयों द्वारा मनाए जा रहे आज़ादी के जश्न को दिखाने में... सेलिब्रिटी के लिए आज़ादी का मतलब (होता सब प्रायोजित है, लेकिन...) और स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास तो खैर है कि कबाड़े में कि जब चाहो तब धूल साफ कर चमकाओ और फिर दिखा दो... इन्हीं दिनों में बँटवारे की कड़वी यादें भी ताज़ा कर दी जाती है.... हाँ ये भी तो माध्यम हो सकता है कथित ‘देशभक्ति’ के ज्वार को उभारने में... हमारी देशभक्ति तो यूँ भी नकारात्मकता में ही पुष्पित-पल्लवित होती है... जब कोई दुश्मन-सा दिखे और हम उसे गाली दें... तब ही तो होंगे हम देशभक्त... पाकिस्तान के खिलाफ देखिए कैसे हम सारे एक हो जाते हैं और खुद को देशभक्त कहलाने लगते हैं? लगे रहते हैं, पाकिस्तान से अपनी तुलना करने में... कभी-कभी तो लगता है कि हमारी देशभक्ति भी सापेक्षिक है...बिना दुश्मन, बिना विपदा हमें कभी याद ही नहीं आता कि देश जैसी कोई शै भी है, जिसके प्रति हमारी जिम्मेदारी है... रेडियो तो खैर इन सबका अगुआ रहा ही है... इसमें फरमाइशी गानों के प्रोग्राम में सारी फरमाइशें भी तो देशभक्ति के गीतों की ही होती है... आखिरकार हमें देश याद ही इन दिनों आता है... तो सब तरफ आजादी की धूम नजर आ रही है और इस बात पर गहरी कोफ़्त हो रही है... तो सवाल ये उठता है कि कब तक हम प्रतीकों के माध्यम से अपनी देशभक्ति को परिभाषित करेंगे और न्यायसंगत ठहराएँगें? हर साल यही सब करते हैं और अगले दिन हम वही हो जाते हैं, हमारे कर्म, विचार और भावना में कहीं देश होता ही नहीं है। फिर देश क्या है, और देशभक्ति का मतलब क्या? हर साल हम एक रस्म निभा कर सोचते हैं कि देश के प्रति हमने अपना कर्तव्य पूरा किया... और अगले दिन हम वही हो जाते हैं, स्वार्थी, गैर-जिम्मेदार, असंवेदनशील और मक्कार...।
समय आ गया है कि हम शहीदों का पीछा छोड़े, छोड़ दें इसकी जुगाली करना कि उन्होंने इस देश का आज़ाद कराने के लिए क्या-क्या कुर्बानियाँ दी, इतिहास को विराम दे दें... शहीदों की कुर्बानियों के एवज में हम क्या कर सकते हैं, उस पर विचार करें, हम वर्तमान को कैसे खूबसूरत बनाएँ ताकि आने वाली पीढ़ी अपने इतिहास पर गर्व करें... कुछ भविष्य के लिए करें... कुछ आज को सुधारने के लिए करें....।

Saturday 14 August 2010

मुट्ठी में बँधे सपनों का सच – 1




थर्ड सेम की क्लासेस शुरु हो चुकी थी। बारिश के ही दिन थे... कैंपस हरे रंग की पृष्ठभूमि पर चटख रंगों से बनी एक बड़ी-सी पैंटिंग-सा खूबसूरत और दिलफरेब नजर आ रहा था। आज का बकरा यूँ तो तय था... सुधीर... वो कल सीधे जेएनयू कैंपस से आया था, आज वो बदला हुआ दिख भी रहा था... लेकिन, उसे बकरा बनाने में मजा नहीं है... बस यही सोचकर कुछ उदासी थी और कुछ खलबली भी... कारण बहुत स्पष्ट था, उस बकरे को हलाल करने में क्या मजा जो अपनी गर्दन खुद ही हमारे छुरे के नीचे रख दें, तो आज इससे काम चलना नहीं था, इससे से न तो समोसे का स्वाद आएगा और न ही कॉफी से ताज़गी मिलेगी (अपना घोषित फंडा था, खुद पेमैंट करेंगे तो चाय और कोई दूसरा पिलाएगा तो कॉफी... चाय उन दिनों 3 रुपए की और कॉफी 5 की मिलती थी) तो हर हाल में किसी दूसरे को ढूँढना होगा। चौकड़ी बेर की झाड़ी के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर अभी इस विचार पर मंथन कर ही रही थी कि दूर तक फैली हुई हरी-हरी घास के बीच की पगडंडी पर नींबू पीले रंग का टी-शर्ट पहने आता प्रभु नजर आ गया। बबली चिल्लाई ... हुर्रे बकरा... नजर गई और सभी के चेहरे खिल गए।
प्रभु के पास आते ही एक से बढ़कर एक तारीफ के शब्द उसे मिलने लगे... ये...!!! नई टी-शर्ट... या बहुत अच्छी लग रही है... या कितना अच्छा रंग पहना है प्रभु... या आज तो जम रहे हो.. उसने भी अपनी झेंपी-सी मुस्कुराहट चमकाई और सफाई दी – इट्स नॉट न्यू...। लहजा वही दक्षिण भारतीय... आय वोर इट ऑन वेलकम पार्टी ऑलरेडी...।
ऊँह... दैट डे वी डिड नॉट नोटिस दिस...।
कैंटीन बंद – चलताऊ हिंदी में उसने संकेत समझने के संकेत देने शुरू कर दिए।
दीप्ति ने कहा नहीं खुल गई है। थोड़ी बहुत खींचतान और नोंकझोंक के बाद बात बन गई... बननी ही थी। हर कोई जानता था कि यदि ये चौकड़ी पीछे पड़ जाएगी तो फिर कोई भी बच नहीं सकता है, तभी प्रोफेसर क्लास में जाते दिखे और सभा विसर्जित हो गई। शीत-युद्ध पढ़ाया जा रहा था, अभी तक हम तो यही समझे बैठे थे कि शीत-युद्ध विचारधारा की लड़ाई है और इसलिए सोवियत संघ और चीन दोनों एक ही खेमे में हैं, लेकिन उस दिन जो चैप्टर पढ़ाया जा रहा था, उसमें सोवियत संघ और चीन के बीच खऱाब रिश्तों पर बात हो रही थी।
जब सुधीर ने प्रोफेसर से सवाल किया कि यहाँ विचारधारा कहाँ हैं? यहाँ तो वर्चस्व और हित का संघर्ष है? तो ऐसा लगा जैसे टॉप गियर में चल रही गाड़ी पर एकाएक ब्रेक लग गया और गियर बदल नहीं पाने से वो खड़ी हो गई। खून का प्रवाह नीचे की ओर होता महसूस हुआ और, एक तीखी जलन नीचे से उपर तक दौड़ गई। इतना सादा सा सवाल सुधीर ने पूछा, हमारे अंदर क्यों नहीं आया? चाहे पूछें या ना पूछें... सवाल तो पैदा होना चाहिए ना! बस सारी केमिस्ट्री का कबाड़ा हो गया। कैंटीन में पहले चाय की ट्रे आई तो बेखुदी इतनी ज्यादा थी कि वो ही कप उठा लिया... रजनी फुसफुसाई भी कि चाय है, लेकिन फ्यूज पूरी तरह से उड़ चुका था। बस ऐसे ही कब और कैसे घर पहुँचे पता नहीं चला। पहुँच कर हर दिन की तरह कमरा बंद कर लिया। दिन अभी सुनहरा था, कब साँवला और फिर सुरमई हो गया पता नहीं चला, जबकि खिड़की से तकिया लगाए, गज़ल पर गज़ल सुनते शब्द और सुर के साथ आँसुओं में अवसाद को धोते रहे थे... खुद को समझाया था, इंसान हो... हो जाता है, हर वक्त इस तरह का तना-खींचापन क्यों? और फिर ये तो कोई बात नहीं ना कि किसी के भी अंदर उठा सवाल तुम्हारे अंदर भी पैदा होना चाहिए... धीरे-धीरे सब गुज़र गया...।

Thursday 5 August 2010

शब्द व्यर्थ हैं, मगर शब्दातीत अर्थ है


अज्ञेय ने लिखा है – शब्द माना व्यर्थ हैं, इसीलिए कि इनमें शब्दातीत कुछ अर्थ है।
दुनिया तेजी से बदल रही है, शब्दों ने लंबा रास्ता तय किया... कहे गए, लिखे गए, छपे, फिर इनमें ध्वनि जुड़ी और अंत में दृश्य जुड़े... दृश्य जुड़ते ही शब्द सिहरने-काँपने लगे... अपने वजूद को लेकर आशंकित वे अपने संसार को समेटने लगे.... दृश्य लुभाते है, ध्वनियाँ डुबाती है, लेकिन शब्द... वे हमें जहाँ ले जाते हैं, वह बीहड़ है... हम वहाँ नहीं जाना चाहते हैं, क्योंकि बीहड़ को हम साध नहीं सकते हैं। ये चैतन्य है, गूँज देते हैं, लंबी... दूर तक.... साध लें तो साधू बना देते हैं। दृश्य का दौर है, शब्द पार्श्व में कहीं चले गए हैं। शब्द की सत्ता खतरे में है, तभी तो उनका जो जैसे चाहे वैसा उपयोग कर रहा है। खोखले हो चुके हैं, अर्थ खो चुके हैं, तभी तो इनकी व्यर्थता उभरती है और दृश्य महत्वपूर्ण हो उठते हैं। दृश्य जो कुंद करते हैं, पंगु बनाते हैं, ‘मैं’ को छीन लेते हैं उसे श्रीहीन बना देते हैं, फिर भी आकर्षित करते हैं। दृश्य अफीम की तरह सपनों की दुनिया देते हैं, लेकिन बदले में कल्पनाएँ हर लेते हैं। तभी तो कलम अब हथियार नहीं रही, फुटेज हथियार हो गए हैं। डिस्पोजेबल का दौर है... यही उपभोक्तावाद का सार भी...। जब तक उपयोगी है, है, जब उपयोग नहीं रहा, जंक...., लेकिन ये सब निर्जीव के साथ तो किया जा सकता है, चैतन्य के साथ नहीं किया जा सकता... दृश्य जब तक आकर्षक है तब तक ही देखे और दिखाए जा सकते हैं, जहाँ आकर्षण खत्म, दृश्यों का वजूद भी खत्म... शब्द लेकिन अपनी सत्ता के साथ कोई समझौता नहीं करते हैं, इसलिए वे हाशिए पर चले गए हैं।
तो एक बार फिर से अज्ञेय की शरण – शब्द तो व्यर्थ है
... लेकिन जब उनके शब्दातीत अर्थ उभरते हैं, तो फिर क्रांति होती है। तो माना कि आज उम्मीद नजर नहीं आती, लेकिन प्रकृति का चलन गोलाकार है, इसलिए एक दिन फिर से शब्दातीत अर्थ उभरेंगे.... हम आशान्वित हैं....