Monday 29 March 2010

ट्रेडमिल पर सभ्यता...



सप्ताह की शुरुआत में ज्यादातर काम रविवार को आए अखबारों और पत्रिकाओं को देखने का ही होता है... इस तरह से अपने दिमाग में कुछ और कूड़ा जमा हो जाता है..., लेकिन ये बेवजह नहीं होता है, क्योंकि इन सूचनाओं से ही किसी विचार तक पहुँचा जाता है। तो एक तरह से यह एक अच्छी एक्सरसाइज ही है। खैर... तो सप्ताह का पहला गर्म दिन... पत्रिकाओं का ढेर... अंग्रेजी में हाथ थोड़ा तंग है, इसलिए पहले वहीं से शुरुआत... एक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका की एक छोटी-सी स्टोरी पर नजर गई। इंटरनेशनल अडाप्शन को केंद्र में रखकर कुछ सूचनाएँ और बहुत सारी आशंकाएँ.... इंटरनेशनल अडाप्शन के गोरखधंधे के पीछे ह्युमन ट्रैफिकिंग की चर्चा और इसी के मद्देनजर यह सूचना कि दुनिया भर के 13 देशों में इंटरनेशनल अडाप्शन को प्रतिबंधित कर दिया गया है।
जब भी हम घर से निकलते हैं, तो आसपास नजरें दौड़ाते चलते हैं, यूँ लगता है कि हमारी तरह हरेक जल्दी में है। सबको कहीं न कहीं पहुँचना होता है, न सिर्फ पहुँचना होता है, बल्कि जल्दी पहुँचना होता है, लगता है कि हर जगह जल्दी पहुँचने की प्रतिस्पर्धा सी है। यह जल्दी पहुँचना दरअसल इस दौर का एक सांकेतिक लक्षण है... इसके पीछे बहुत गहरे संदर्भ है। हम एक दूसरे के कंधों पर और यदि जरूरत हुई तो लाशों पर भी पैर रखकर आगे बढ़ते जाएँगें। आखिर को यदि डार्विन का survival of the fittest ही हमारा मूल्य है तो फिर यह तो होना ही हुआ ना! तो आखिर हम सभ्यता नुमा एक गर्व के साथ यहाँ तक पहुँचे तो हैं, लेकिन हमारे मूल्य तो वही है, हमारा लक्ष्य भी वही है तो उस मूल्य और लक्ष्य को लेकर हम पहुँच भी कहाँ सकते हैं?
ऐसे ही एक सवाल उठा कि हम (मानवीय सभ्यता ने कितना सफर तय किया) कितना चले.... लेकिन पहुँचे कहाँ? कहीँ पहुँचे भी है या वहीं खड़े हुए हैं। फ्रायड ने अपने विश्लेषण में कहा था कि भय, भूख और सेक्स से इंसान संचालित होता है। जहाँ तक मेरी समझ जाती है, भूख का संदर्भ भूख (hunger) से ही लिया गया होगा, क्योंकि फ्रायड आखिर में मनःविश्लेषक ही थे, भविष्यदृष्टा तो नहीं ही थे। वे शायद ही समझ पाए होंगे कि भविष्य में भूख का संदर्भ बहुत व्यापक होगा.... इतना कि उससे बाहर और कुछ नहीं होगा... हकीकत में भूख (hunger) छोड़कर.... बाकी सब कुछ भूख का हिस्सा ही होगा। इतिहास फ्रायड के विश्लेषण को सही सिद्ध करता है, वह बताता है कि सभ्यता के प्रारंभ में इन्हीं तीनों संवेगों के चलते, युद्ध भी हुए, हिंसा भी और परिवार भी आगे बढ़े... हमारे ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक स्तर पर सभ्यता के विकास को लेकर बहुत सारी स्थापनाएँ हैं, सिद्धांत है.... आखिरकार हम प्रगति की राह के राही हो गए...। भूख का अस्तित्व अब भी है.... फ्रायड की भूख पता नहीं, किस-किस रूप में कहाँ-कहाँ छुपी हुई है, लेकिन इसका भी स्वरूप सभ्यता की शुरुआती भूख की तरह का नहीं बचा है। इतिहास सभ्यता के इस सफर पर इन तीनों पर विजय पाने और नियंत्रित करने के मिशन पर रहा है, ( यूँ तो यह भी कहा जा सकता है कि दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये खयाल अच्छा है), क्योंकि सभ्यता के प्रारंभिक दौर के बाद का सारा इतिहास... इससे उबरने के बाद एक नई तरह की भूख (हवस) को पूरा करने का रहा है।
बरसों बरस हमने इस गफलत में निकाल दिए कि हमने पृथ्वी अब रहने लायक बना ली है। हमने मानव की आदिम प्रवृत्तियों पर विजय पा ली है। हम बर्बर दौर से निकल गए है, इसके उदाहरण के तौर पर हम तरक्की के सारे पैमानों को रखते हैं, लेकिन फिर भी कहीं कुछ रह जाता है, कुछ अटक जाता है, जो हमसे पूछता है कि क्या हम वाकई उस बर्बर दौर से निकल आए हैं या फिर अपने आसपास इसका मात्र आभास पैदा कर लिया है।
देखिए ना... अपनी हवस को पूरा करने के लिए हम क्या-क्या कर सकते हैं? किसी की हत्या इसका आखिर उदाहरण है, लेकिन वह हर जगह मौजूद है, तो फिर हम आदिम दौर से कितना आगे आए हैं? इंसान मूलतः तो वही है, वहीं है, क्योंकि हम यदि उससे थोड़ा भी आगे बढ़े होते तो फिर कानून और पुलिस की व्यवस्था कहीं तो अप्रासंगिक होती, कहीं तो इसकी जरूरत कम होती.... बजाए इसके कम होने के यह तो लगातार बढ़ती ही जा रही है। तो एक कृत्रिम संतोष के साथ कि हम सभ्य हो गए हैं, हम लगातार भुलावे में हैं। लाखों साल के सफर के बाद भी इंसान के तौर पर हम वहीं है। विज्ञान, तकनीक, कला और संस्कृति ने चाहे तरक्की कर ली हो, लेकिन इंसान अब तक अपनी बर्बरता से मुक्ति नहीं पा सका है। अब तक वह अपनी भूख को समेटे हुए सभ्य होने का दिखावा कर रहा है। या यह कि अब उसने अपनी भूख को इतना फैला लिया है कि उसकी ज़द में सब कुछ आ गया है और मजे की बात यह है कि उसने इस एक भूख को इतने नाम दे दिए हैं कि उसे पहचान पाना भी मुश्किल हो रहा है। बात तो महज इतनी सी ही है कि सभ्यता लाखों साल से ट्रेडमिल पर है, वह वहाँ से एक सूत भर भी आगे नहीं गई है, हाँ लेकिन लगातार ट्रेडमिल पर होने से वह पतली हो चली है....thin….thin….thiner
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कुछ दिन पहले एक एसएमएस आया...चूँकि इसका मतलब अंग्रेजी में ज्यादा असरदार नजर आया तो जस का तस.... आपके लिए
A world wide survey conducted by the U N. The only question asked was – Would u please give your honest opinion about solutions to the food shortage in the rest of the world? The survey was a huge failure, because in AFRICA they didn’t know what FOOD meant, in INDIA they didn’t know what HONEST meant, in EUROPE they didn’t know what SHORTAGE meant, in CHINA they didn’t know what OPINION meant, in MIDDLE EAST they didn’t know what SOLUTION meant, in SOUTH AMERICA they didn’t know what PLEASE meant and in AMERICA they didn’t know what the REST OF THE WORLD meant.
क्या ट्रेडमिल पर सभ्यता के प्रकाश में इस एसएमएस के कुछ निहितार्थ खुलते हैं?

Thursday 25 March 2010

बुरे से अच्छा हो तो भी मुश्किल..... बदलाव


जीवन में बहु प्रतिक्षित बदलाव आया , लेकिन फिर भी पसरी हुई है गहरी उदासीनता... विचार नहीं, विचारहीनता भी नहीं...मगर कुछ तो है जिसे नहीं होना चाहिए ...। दौड़ थमी, रफ्तार पर ब्रेक लगा, चुनौती मद्धम हो गई...। चाहा हुआ पाया....संतोष होना था, नहीं हुआ...सतह पर काई की तरह जमी हुई है उदासीनता...। कोई बहुप्रतिक्षित परिवर्तन उदासीन कर देगा पता नहीं था। कहीं पढ़ा था - change is not made without inconvenience even from worst to better.... जब असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था, तब एक छोटी-सी घटना को कारण बताकर गाँधीजी ने आंदोलन वापस लेने की घोषणा की तो दूसरे लोगों की ही तरह नेहरूजी ने भी निराश होकर कहा था कि-- इस तरह से होता है दुनिया का अंत...विस्फोट से साथ नहीं रिरियाकर...। कभी-कभी यूँ महसूस होता है कि सिर्फ दुर्घटनाएँ ही एकाएक घटती है, बाकी जीवन सामान्य होता है, बिना उत्तेजना के... रूके हुए पानी की तरह, जिसमें
कभी-कभी बहती हवा... थोड़ा स्पंदन पैदा कर देती है... बस..।
कभी-कभी अपना होना कई सवाल और कई संदेह पैदा करता है। कहीं कोई मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट या फिर कोई केमिकल लोचा जैसा कुछ तो नहीं है?...कुछ भी हो जाए सहजता दुर्लभ ही हो। सृजनात्मकता हो तो भी ऊब से निजात नहीं....ऊब मनचाहा पा लेने से तो असंतोष मनचाहा न मिल पाने से... मनचाहा मिल जाने के बाद भी असंतोष खुद से आँखें नहीं मिला पाने का... कभी-कभी यूँ लगता है कि अपनी मुश्किलों को व्यक्त करने के लिए शब्द तक का अकाल हो गया है... या शायद एक-ही से सवाल... रूप बदल-बदल कर आते रहते हैं... इन दिनों असंतोष कुछ नया नहीं कर पाने का, कुछ नया रच नहीं पाने का.....क्या है, जो लगातार बहता है, लावे की तरह....। इन दिनों एक विचार यूँ भी आता रहता है कि जब एक दिन सबकुछ छोड़कर चल ही देना है तो फिर सारे खटकर्म करने का मतलब क्या है? कुछ पा लिया या कुछ छूट गया... आखिर किसको हिसाब देना हैं... कौन-सा बहीखाता है? घुम-फिर कर वही प्रश्न हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, कुछ भी करने का हासिल क्या है, अर्थहीनता की तीखी चेतना है या फिर खुद के चुके जाने का संदेह...कुछ तो है जो बेचैन किए रहता है। इस बेचैनी का कोई आकार भी नहीं, कोई स्रोत भी नहीं.... कि उसे दुनियावी चिमटे से पकड़कर जीवन से उसे अलग कर दें या फिर उस जगह से
जहाँ से ये बहकर या रिसकर आ रही है, वहीं लगा दें सीमेंट और उसे ही बूर दें...। क्यों है ये जीवन के साथ.... या कि यही है जीवन का अर्थ... कोरी अर्थहीनता.... सब कुछ का एक दिन बेमतलब... बेकार हो जाना.... क्या यही है जीवन?

Monday 15 March 2010

सृष्टि के गर्भाधान का उत्सव गुड़ी पड़वा


फागुन के गुजरते-गुजरते आसमान साफ हो जाता है, दिन का आँचल सुनहरा, शाम लंबी, सुरमई और रात जब बहुत उदार और उदात्त होकर उतरती है तो सिर पर तारों का थाल झिलमिलाने लगता है। होली आ धमकती है, चाहे इसे आप धर्म से जोड़े या अर्थ से... सारा मामला आखिरकार मौसम और मन पर आकर टिक जाता है। इन्हीं दिनों वसंत जैसे आसमान और जमीन के बीच होली के रंगों की दुकान सजाए बैठता है.... अपने आँगन में जब गहरी गुलाबी हो रही बोगनविलिया, पीले झूमर से लटकते अमलतास और सिंदूर-से दहकते पलाश को देखते हैं, तो लगता है कि प्रकृति गहरे-मादक रंगों से शृंगार कर हमारे मन को मौसम के साथ समरस करने में लगी हैं, न जाने कहाँ से ये अनुभूति आती है कि प्रकृति का सारा कार्य व्यापार हमें (इंसानों को) खुश करने के लिए होता है... (हम जानते हैं यह सही नहीं हैं, हमारे, सभ्यता से पहले से ही प्रकृति का यही रंग-रूप रहा होगा...).. और हम खुश हो जाते हैं।
हाँ तो वसंत का आना हमेशा ही मन को उमंग से भर देता है, पता नहीं क्या है, इस मौसम में कि पूरे मौसम में हम आनंद-सागर में खुद को तैरता हुआ महसूस करते हैं। तो फिर क्यों न हमें वसंत भाए? लेकिन इसका संबंध जीवन के दर्शन से भी है, पत्तों का गिरना और कोंपलों के फूटने से पुराने के अवसान और नए के आगमन का संदेश हमें जीवन का अर्थ समझाता है। पतझड़ के साथ ही बहार के आने के अपने गहरे अर्थ हैं। एक साथ पतझड़ और बहार के आने से हम जीवन का उत्सव मना रहे होते हैं, तब कहीं रंग होता है, कहीं उमंग, बस इसी मोड़ पर एक और साल गुजरता है। गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा के साथ एक नया साल वसंत के मौसम में नीम पर आईं भूरी-लाल-हरी कोंपलों की तरह बहुत सारी संभावनाओं की पिटारी लेकर हमारे घरों में आ धमकता है। जब वसंत अपने शबाब पर है तो फिर इतिहास और पुराण कैसे इस मधुमौसम से अलग हो सकते हैं।
पुराणों में खासतौर पर ब्रह्मपुराण, अर्थववेद और शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख हैं कि गुड़ी पड़वा पर ब्रह्मा ने सृष्टि के सृजन की शुरुआत की थी। तो इस तरह हम गुड़ी पड़वा पर सृष्टि के गर्भाधान का उत्सव मनाते हैं। आखिरकार वसंत को नवजीवन के आरंभ के अतिरिक्त और किसी तरह से, कैसे मनाया जा सकता है? वसंत के संदेश को गुड़ी पड़वा की मान्यता से बेहतर और किसी भी तरह से भला परिभाषित किया जा सकता है?
तो नए साल के लिए आप सभी को ढ़ेर सारी शुभकामनाएँ....

Sunday 7 March 2010

अबला और दुर्गा के बीच


महिला दिवस पर सप्लीमेंट निकालने की तैयारी से पहले विभागीय मिटिंग चल रही थी...क्या दिया जा सकता है महिला दिवस पर... सब अपने-अपने विचार रख रहे थे, लेकिन एक बात पर सारे सहमत थे कि सप्लीमेंट में न तो महिला की बुरी स्थिति को लेकर ‘स्यापा’ किया जाएगा और न ही उसकी उपलब्धि को लेकर ‘ढोल’ पीटा जाएगा... कारण साफ है दोनों ही दो विपरित और अतिरेकी ध्रुव हैं और दोनों ही सही नहीं है। इस तैयारी के लिए स्त्री-विमर्श पर अब तक जितना भी पढ़ा गया उसे फिर से खंगाला गया। एक बार फिर यह इत्तेफाक रहा कि फरवरी की हंस का संपादकीय मार्च के पहले सप्ताह में पढ़ा। राजेंद्र यादव धुरंधर बुद्धिजीवी हैं और बहुत सारे मामले में उनसे असहमत होते हुए भी उनकी विचारशीलता और वैचारिक प्रतिबद्धता की कायल हूँ...लेकिन स्त्री विमर्श के मामले में उनकी नीयत को समझ नहीं पाती हूँ... इस बार के संपादकीय में भी उन्होंने इस मुद्दे को छुआ... और इसमें फिर से स्त्री-देह पर जाकर उनकी सुईँ अटक गईं....। अरे भाई जिस दैहिक दासतां के खिलाफ जद्दोजहद की जा रही है, उसमें ही उसे माध्यम कैसे बनाया जा सकता है? यहाँ लड़ाई उसे उसकी दैहिकता से मुक्ति दिला कर उसे व्यक्ति के तौर पर स्थापित करने की है.... खैर.... इस कथित साहित्यिक स्त्री विमर्श का आम स्त्री से कोई लेना-देना नहीं है आम मध्यमवर्गीय महिलाओं की लड़ाई, उसका संघर्ष और उसकी जद्दोजहद... स्त्री-विमर्श नहीं है... स्त्री-विमर्श नामक चिड़िया मात्र साहित्यिक श्रेणी की जुगाली है... यह इससे ज्यादा कुछ नहीं है। साहित्य में स्त्री विमर्श का मामला वैसा ही हुआ कि उसे एक कारा से निकालकर दुसरे पिंजरे में डाल दें.... स्त्री की लड़ाई अपनी दैहिकता से उठ कर मानवीय गुणों से पहचाने जाने की है। उसकी देह और रोजमर्रा में एक ऐसा कारागार है, जो उसे कभी भी मुक्ति नहीं देता... सार्त्र वस्तु के लिए कहते हैं कि – पहले वह होती है, बाद में यह विचार होता है कि वह कैसी है?
वस्तु के लिए तो बाद में यह विचार भी होता है, लेकिन स्त्री के लिए समाज इस विचार की जगह ही नहीं छोड़ता है, यदि वह सुंदर है तो फिर बस वह इतनी ही है... इससे ज्यादा होने पर भी उसे वहीं बंद कर दिया जाता है, क्योंकि समाज के लिए इससे ज्यादा सुविधाजनक और कुछ नहीं होता है। एक बार उसे सौंदर्य का अहसास करा दें फिर वह कुछ होना भी चाहेगी तो नहीं हो पाएगी और यदि वह होगी तो भी पुरुष के किसी काम की नहीं होगी.... आखिर खुद से बेहतर दास किसे पसंद आएगा...। यदि वह बदसूरत है तो फिर वह और कुछ यूँ भी नहीं हो सकती है, क्योंकि उसे उसकी बदसूरती के खाँचे में ही सड़ा दिया जाएगा.... दोनों ही स्थितियों में उसे मानसिक रूप से बीमार बना दिया जाएगा और हाँ खुबसूरती और बदसूरती के सारे मापदंड
पुरुष के बनाए होते हैं... जैसे कि नैतिकता के सारे नियम उसी के हैं। तो फिर उसे मुक्ति कैसे मिलेगी....?
फिर मुद्दा साहित्यिक मुक्ति का नहीं है, हकीकत में ‘मुक्ति’ का है.... रोजमर्रा के शोषण और दलन से मुक्ति का है.... अपने लिए स्थापित मूल्यों से उलट यदि स्त्री व्यवहार करती है तो उसे उसके स्त्रीत्व से ही खारिज कर दिया जाता है, लड़ाई यहाँ से शुरू होती है। हमारी व्यवस्था में उसे या तो देवी के रूप में पूजा जाता है, या फिर कमजोर मानकर उस पर शासन किया जाता है, इन दोनों ही स्थितियों ने स्त्री की सत्ता का जितना नुकसान किया है, उतना और किसी भी व्यवस्था में नहीं हुआ है। हमारी लड़ाई ‘विदेह’ होकर मानव से रूप में स्वीकृत होने की है.... हमारी माँग समानता नहीं न्याय है, हम पूजा नहीं स्वतंत्रता चाहती हैं, प्रशंसा नहीं स्वीकरण चाहतीं है.... हमे सहानुभूति की दरकार नहीं हैं, हमारे होने पर विश्वास हमारी माँग हैं।