Sunday 24 April 2011

नए-पुराने शहर के बीच... कहीं...

तेज गर्मी में शॉपिंग का प्लान... सुनकर ही पसीना आने लगा था, लेकिन जब मामला जिम्मेदारी का हो तो उससे कन्नी नहीं काट सकते हैं। तो ठंडे होते सूरज का इंतजार करते जब बाजार पहुँचे तो गर्मी का अहसास तो पता नहीं कहाँ बिला गया, और बाजार की भीड़ को देखकर खुद के कुछ ज्यादा सुविधाजीवी होने पर लानत-मलामतें भेजी... हम तो खैर मजबूरी में शॉपिंग बैग उठाए हैं, लेकिन लोग शौकिया शॉपिंग कर रहे हैं... क्या मौसम कभी कोई सीमा-रेखा खींच सकता है? दो-तीन घंटे माथापच्ची करने और पूरी तरह से निचुड़ जाने के बाद जब उस चकमक दुकान से बाहर आए तो एक बारगी लगा कि खुले में आ गए, लेकिन एक-दूसरे को ठेलती-ढकेलती और टकराती भीड़, वाहनों से निकलता दमघोंटू धुआँ, गर्मी और तेज चिल्लपों के बीच लगा कि कैसे भी जल्दी से घर पहुँच जाएँ। अपना रास्ता बनाते सरपट दौड़े जा रहे थे, कि एकाएक एक हाथठेले को देखकर रूक गए... कितने बरसों बाद... खिरनी, शहतूत और फालसे... याद आया हाँ, इसी मौसम के तो फल है।
कितने सालों बाद दिखे इस शहर में... बचपन में तो गर्मियों की लंबी-उबाऊ दोपहर, शाम को घर से निकलकर खेलने के इंतजार में खिरनी खाकर चिपकते होंठों और फालसे की बीजों से चारोली निकालते-निकालते ही तो बीतती थी। अपने बड़ों से सुना था कि बच्चों को मौसमी फल जरूर खाने चाहिए, क्यों...? इसलिए कि वे प्रकृति की देन है... छोड़िए भी, ये पुरानी बातें हो चली है। सारे गुजरे जमाने के शगल... नए शहर में रहते हुए कभी याद ही नहीं आया... खिरनी, शहतूत, फालसे और.... बचपन...।

कैरी-पुदीने की चटनी-सा पुराना शहर
एक पतली-सी दीवार के इस-उस ओर बसी दो घनी और खुली दुनिया, पतली सँकरी गलियों में खुलते, नीची चौखट के दरवाजे जिनसे गुजरने के लिए नवाँना पड़ता है सिर... जैसे नवाँया हो किसी मंदिर के सामने... उन दरवाजों से झाँका जा सकता हो घरों के अंदर, ली जा सकती हो, घर में बनाए जा रहे किसी देशी-ठेठ पकवान की खूशबू। सिर जोड़े खड़ी छत की मुँडेंरे... एक छत पर चढ़ो तो चलते-चलते पहुँच जाओ गली की आखिरी छत तक। अपने-अपने घरों के दरवाजों पर खड़ी माँ-भाभियाँ जो एक दूसरे से हँसी-ठिठौली करती है, यहाँ-वहाँ की बातों के बीच रानू-चीनू के जीतू-टीनू से चलते ‘चक्करों’ की बतकही... तो कभी पानी जैसी ‘मामूली’ चीज पर झगड़ भी पड़ती है, फिर कभी चुन्नू-मुन्नू के बीच की दोस्ती की नाजुक-सी डोर के सहारे रिश्तों के सिरों को फिर से लपक लेती है। खिड़कियों से कभी चीनी तो कभी अचार की कटोरियाँ यहाँ से वहाँ होती है। शर्माजी के दरवाजे पर पड़े अखबार को वर्माजी जल्दी उठकर लपक लेते हैं और जब शर्माजी जागते हैं तो वर्माजी के पूरे पढ़ लिए जाने का बड़ी कसक के साथ इंतजार करते हैं, लेकिन किसी भी सूरत में उनके हाथ से अखबार छीन नहीं सकते हैं। किसी एक घर में आए मेहमान की पहुँच गली के सारे घरों तक होती है। यहाँ कुछ भी निजी नहीं है। सबकुछ सबका साझा है, सुख है तो दुख भी।
एक पूरी दुनिया, संस्कृति और जीवन दर्शन है यहाँ... कम हो रहा है, लेकिन अभी भी जिंदा है... यूँ ही कहीं दिख जाता है, शहतूत, खिरनी, फालसे के ठेलों पर तो कभी गोल-गप्पे की रेहड़ी या फिर बर्फ के गोले के खुशनुमा मीठे रंगों सी दुनिया, आत्मीय, खुली हुई, रंग-बिरंगी और स्वादिष्ट, ठीक वैसी, जैसी गर्मियों में स्वाद देती है केरी-पुदीने की चटनी... फिर भी त्याज्य है ये दुनिया, जरा पैसा आया नहीं कि भागते हैं कॉलोनी की तरफ... होना चाहते हैं ‘आधुनिक’, और चाहने लगते हैं प्रायवेसी.... क्यों?
पित्ज़ा, बर्गर-सा नया शहर
‘कॉलोनी’ बचपन में सुने कुछ ऐसे शब्दों में से एक है, जिसका असल अर्थ बहुत सालों बाद, थोड़ा बहुत पढ़ने के बाद समझ आया था। बचपन में तो बस शहर से बाहर बसी बस्तियों के लिए कॉलोनी नाम का इस्तेमाल हुआ करता था। बड़ा ग्लैमरस और एच-एस ... जिससे खौफ भी हुआ करता था। बड़े हुए थोड़ा इतिहास और थोड़ी राजनीति पढ़ी तो समझ आया कि असल में कॉलोनी का मतलब क्या है? .... उपनिवेश.... राजनीतिक रूप से परतंत्र इकाई... जीती हुई टैरेटरी, जिस पर राजनीतिक अधिपत्य है, जैसा 47 से पहले हम थे। आज... आज कॉलोनी मूल शहर/बस्ती से दूर एक नई बस्ती... ज्यादा खुली, ज्यादा आधुनिक, प्राइवेट और बहुत हद तक उदासीन...।
ऐसा शायद हर शहर में ही होता होगा कि एक पुरानी बस्ती होती है और एक नई... उपनिवेश... कॉलोनी। अरे हाँ... यहाँ जो कॉलोनियाँ होती है, वे भी परंपरागत अर्थों में उपनिवेश ही है, यहाँ के मूल निवासी वे वंचित लोग हैं, जो अच्छे दाम के लालच में अपनी जमीन बेचकर या तो कहीं और दूर चले जाते हैं या फिर वहीं कहीं सिमट कर रह जाते हैं। बाहरी लोग यहाँ बसते हैं... वही अधिपत्य...। हाँ तो पुराने शहर से नए शहर की तरफ लौटे तो ये जगह चौंधियाएगी... काँच के शो-रूमों से झाँकती, लुभाती, रंग-बिरंगी चीजें। खुली-चौड़ी सड़कें, इतने खुले-खुले मकान कि एक ही घर में रहने वाले लोग अपनों से इंटरकॉम पर बात करें तो आस-पड़ोस के लोगों से बातें तो खैर यूँ भी यहाँ मीडिलक्लास मेंटेलिटी का पर्याय है। यहाँ पानी तो नहीं हाँ, पैप्सी-कोला-मिरिन्डा की पेट बॉटलें मिल जाएँगी। इमली, फालसा या खरबूजा तो नहीं दिखेगा हाँ, कीवी, किन्नू, चेरी जरूर अपने रंगों से आपको लुभाएँगे। सड़कों पर लोग नहीं होंगे, बस वाहन ही वाहन होंगे (हाँ वाहन तो लोग ही चलाएँगे, पर...)। एक बड़े से घेरे में बने बंद घरों की दीवारों को छेद कर सिर्फ टीवी की आवाजें आएँगी।
दरअसल ये दो दुनिया है, दो संस्कृतियों, दो जीवन दर्शन की तरह.... एक बिदांस, बिना कुंठा के एकदम खुली हुई और दूसरी... हर कदम पर सावधान, अपने अहं को सींचती, अपने में कैद... एक देशी और दूसरी विदेशी... एक अपनी और दूसरी उधार की... ठीक वैसे ही जैसे कि उपनिवेशों की सुविधाएँ, चाहे हम उठाए, लेकिन वो है तो दूसरों की देन ना...!
शायद इसीलिए इस खुशहाल वर्तमान में रहने के बाद भी बार-बार मन लौटता है, अतीत में, बचपन के मौसम में.... इमली, सत्तू, धानी, खिरनी, शहतूत, बेर और गु़ड के स्वाद में... यहाँ मौजूद पित्ज़ा-पास्ता, बर्गर, कीवी, किन्नू और चेरी के स्वाद से ऊबकर... सुविधाओं से अभाव की ओर... व्यक्तिगत से सार्वजनिकता की ओर... तर्क से भावना की ओर... क्या इसे ही जड़ों की तरफ लौटना कहते हैं?

Sunday 17 April 2011

लहरों के हवाले है मन...


हर वक्त का लड़ाई-झगड़ा अच्छा नहीं है। ये सीख हरेक को अपने बचपन में मिलती रही है और यदि आप घर में बड़े हो तो आपको तो इसके साथ ये भी सुनने को मिलेगा कि तुम बड़े हो ना! समझदार हो, वो बच्चा है या बच्ची है उसकी बात सुन लो...। बड़े होने पर कई बार ऐसा होता है कि हम इसके उलट काम करने लगते हैं और कई बार उसी लीक को पकड़कर आगे का जीवन तय करते हैं। कुछ स्वभाव से लड़ाकू हो जाते हैं और कुछ समझदार...। औऱ कुछ ऐसे भी होते हैं, जो समय-समय पर सुविधानुसार बदलते रहते हैं... जैसे हम...। इसे प्रयोग भी कह सकते हैं और सुविधा भी। यूँ हर वक्त समझौतावादी होना या फिर हर वक्त हथियार लेकर लड़ना दोनों ही प्रवृत्ति ठीक नहीं है। मौका देखकर अपनी रणनीति तय करना ही अक्लमंदी मानी जाती है, लेकिन जब मामला अक्ल तक पहुँचने से पहले ही मन पर अटक जाए तो...? मुश्किलें संभाले नहीं संभलती है।
पता नहीं ये ग्रह-नक्षत्रों के परिवर्तन के प्रति मन की संवेदनशीलता है, रोजमर्रा के जीवन के प्रति उदासीनता या फिर लक्ष्यहीनता से पैदा हुई ऊब है। गर्मी के तपते दिनों और बेचैन करती रातों में अंदर भी कुछ उबलता, तपता-तपाता रहता है। जीवन अपनी गति और प्रवाह के साथ सहज है, लेकिन मन नहीं...। कहीं अटका, कहीं भटका, उदास, निराश और हताश, किसी बिंदू पर टिकता नहीं है, इसलिए हल तक हाथ पहुँचे ये हो नहीं सकता... तो फिर...? क्या किया जाए? सहा जाए या फिर लड़ा जाए...?
सवाल ये भी उठता है कि क्यों हर वक्त हथियार तान कर लड़ने के लिए तैयार रहे। कई बार बिना लड़े भी तो मसले हल होते हैं। तो क्या ऐसे ही हथियार डाल दें? लिजिए संघर्ष से संघर्ष करने के तरीके पर ही संघर्ष शुरू हो गया।
अज्ञेय को पढ़ते हुए लगा कि लड़ा जाए... क्योंकि शोधन करने पर ही परिष्कार हो सकता है। लड़ते रहे.... लड़ते रहे.... ना जीत मिली ना हार। संघर्ष घना होता चला गया। बेचैनी बढ़ती रही, अनिश्चय से पैदा होता तनाव भी... कुछ परिणाम नहीं। कब तक ये संघर्ष, कब तक ये बेचैनी और तनाव, जवाब... मौन। बचपन की सीख याद भी आ गई... हर वक्त का लड़ाई-झगड़ा... फिर फायदा भी क्या है?
कहा ना! प्रयोग करने की आदत है या फिर कह लें सनक... टेस्ट चेंज करने लिए ओशो को पढ़ा तो लगा कि कभी-कभी खुद को छोड़ देना भी काम कर सकता है। छोड़ दिया बहने और डूबने के लिए... देख रहे हैं, किनारे खड़े होकर... मरेंगे नहीं ये विश्वास है। उबरेंगे, कुछ लेकर, कुछ नए होकर...।