Sunday 12 February 2012

पाँच गज़लों का फासला


दिन बड़ा ही अजीब-सा गुजरा था। बेवजह ही बहस हो गई, वो भी महिलाओं की हमारे समाज में दशा और दिशा पर...। यूँ तो महिलाओं को और महिलाओं के दुख कम नहीं है, लेकिन हम पढ़ी-लिखी महिलाओं को अपने दुख का अहसास बड़ी शिद्दत से होता है। हालाँकि ये भी जरूरी नहीं है कि हर पढ़ी-लिखी महिला को हो... सुशील होने का तमगा शायद हर चीज से बड़ा होता होगा... तभी तो... या फिर ग्रूमिंग ही इस तरह से होती है कि उनकी जिंदगी से जुड़ी छोटी-छोटी बातें बहुत महत्वहीन होती है, या फिर उनका ‘स्व’ दुनिया की बाकी सारी छोटी-बड़ी बातों की तुलना में बहुत महत्वहीन होता हो.... तो बात तो महज इतनी सी थी कि महिलाओं को ये तय करना चाहिए कि उनके जीवन की प्राथमिकताएँ क्या हो...? परिवार या फिर वो खुद...। गोया कि उनका होना ही उनके पारिवारक जीवन की सबसे बड़ी बाधा हो.... :-( । नहीं, बहस ऐसे नहीं शुरू हुई थी, लेकिन खत्म इसी नोट पर हुई। इसके बीच इस बात का अहसास भी कि आपका होना समाज के लिए कितना ही अहम क्यों न हो.... हमारे लिए नहीं है, हमारे साथ की शर्तें जैसी हैं, वैसी ही रहेंगी.... इसमें फेरबदल की सूत भर भी गुंजाइश नहीं है, आपको सूट नहीं करता है तो बेहतर है आप शादी ही न करो....। देर तक दिमाग झनझनाता रहा.... फिर दिमाग से इस बात को झटकने की कोशिश भी की, ये सोचकर कि जिस ‘बेचारी’ महिला के लिए मैं बहस कर रही हूँ, शायद उसे तो अपनी स्थिति से कोई शिकायत ही नहीं है और फिर वो बेचारी तो ये जानती तक नहीं है कि कोई एक कितनी शिद्दत से उनके लिए लड़ रहा है... तो फिर सारा उद्वेलन तो बेकार ही है ना...! लेकिन जो कुछ अस्तव्यस्त हुआ है उसे तो व्यवस्थित होने में समय लगेगा ना... इस बीच अपने भी ‘औरत’ होने की बेचारगी फिर उभर आई...। और साथ ही सार्त्र याद आ गए, जो कह गए कि – ‘प्यार में प्रिय पात्र को वस्तु बनाने का षडयंत्र रचा जाता है।‘ काम तो था, लेकिन उद्विग्नता ने एकाग्रता छिन ली थी और आज का काम कल पर छोड़कर घर की राह पकड़ ली थी। स्थिर करने के लिए म्यूजिक प्लेयर ऑन कर लिया था। दफ्तर से घर तक का फासला पाँच गजलों का है, यदि रास्ते के तीनों सिग्नल क्लियर हो तो... नहीं हो तो आधी गज़ल का फासला और बढ़ जाता है।
शुरुआत ही बहुत उदास-सी गज़ल कितनी राहत है दिल टूट जाने के बाद से हुई थी.... गाड़ी रिवर्स की फिर गियर बदला और आगे बढ़ा दी। शाम हो चली थी, बसंत के लिहाज से मौसम थोड़ा ज्यादा ठंडा था। बंद खिड़की से गाड़ी चलाने का अनुभव ठीक सनग्लास लगाने जैसा होता है, इसलिए बहुत मजबूरी के अतिरिक्त गाड़ी का ड्राइविंग सीट वाला शीशा खुला ही होता है। देखना जो आसान होता है। मन तो किया कि कहीं किसी सुनसान में गाड़ी खड़ी करके एक गहरी साँस ली जाए और चीखकर रो लिया जाए... लज़्ज़ते सजदा-ए-संगे दर क्या कहें/ होश ही कब रहा सर झुकाने के बाद... रूलाने के लिए काफी था, लेकिन हाय रे शहर की मजबूरियाँ...। लगा बड़ा मौजूं शेर है... ‘बिचारी’ औरतों के लिए.... । सर झुका लिया है तो अब होश में आने से बाज़ आ जाओ....।
चौराहे पर अगली लेन में जाने के लिए गाड़ी रूकी तो देखा तीन छोटे बच्चे गर्म कपड़े पहने एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए सड़क पार कर रहे हैं। लगा कि ये फोटो का विषय हो सकता है, मोबाइल के कैमरे को ऑन करने से पहले ही तीनों गाड़ी के पास से निकल गए और पीछे खड़ी गाड़ी का कर्कश हॉर्न चीख पड़ा.... अशआर मेरे यूँ तो जमाने के लिए हैं.... गज़ल शुरू हो चुकी थी....। कितनी अच्छी कंपोजिशन है, किसकी होगी और ये मुकेश ने ज्यादा गज़लें क्यों नहीं गाई.... कुछ और बेहतर मिलता सुनने के लिए.... पीछे छूट गया था दिन... अभी घर आगे था... फिलहाल तो सफर था। सोचो तो बड़ी चीज है तहजीब बदन की/ वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं.... शेर कितना खूबसूरत है, लेकिन ये जांनिसार अख्तर के दौर का सच है... अब तो ये पुराना हो गया है। क्या वाकई कोई चीज कालजयी हो सकती है....? कल रात कागज़ के फूल एक बार फिर देखने की कोशिश करने के दौरान उठा सवाल फिर से टकराया... हर रचना का अपना समय होता है, समाज और समाज के मूल्य बदलते ही रचना की प्रासंगिकता भी बदल जाती है। याद आया सुबह आते हुए गाना चल रहा था – एक मुद्दत से तमन्ना थी तुम्हें छूने की... क्या ये आज का सच हो सकता है? जिस दौर में भौतिकता परम धर्म हो....!
सोचते और जागते साँसों का इक दरिया हूँ मैं.... चल रही थी। इत्तफाक से दूसरे सिग्नल पर गाड़ी रोकनी पड़ी... चिढ़ तब आई, जब राइट साइड जाने वाली गाड़ी भी लेफ्ट साइड वाली लेन में खड़ी थी और सिग्नल चालू होते ही, उसकी हड़बड़ी अपनी लेन मे पहुँच जाने की थी, इस हड़बड़ी में वो तो निकल गया और सिग्नल फिर से ऑफ हो गया। गज़ल का आखिरी शेर चल रह था, देखिए मेरी पज़ीराई को अब आता है कौन/ लम्हा भर को वक्त की दहलीज पर आया हूँ मैं... कहाँ से आते हैं ये अहसास और ये अशआर... हताशा की एक लहर, उपर की तरफ चढ़ने लगी। और फिर गुलाम अली ने सरगम शुरू कर दी, दुखती रग में और दर्द उभर आया...। अबकी जैसे ही सिग्नल क्लियर हुआ, तुरंत गाड़ी आगे बढ़ा ली, हालाँकि लेफ्ट साइड से आने वाली सड़क से राइट जाने वाले वाहनों ने आधा रास्ता रोके रखा था, फिर भी हम तो निकल गए... लगा कि सारी दुनिया ही हड़बड़ी में है। वैसे भी अक्सर जब हमें जल्दी होती है तो लगता है कि सारी दुनिया ही आज जल्दी में हैं।
तब तक दिल को ग़म-ए-हयात गवारा है इन दिनों/ पहले जो दर्द था, वही चारा है इन दिनों शुरू हो गई थी। चित्रा की आवाज चाहे जगजीत के साथ सूट नहीं करती हो, लेकिन उनकी गज़लों में भी दर्द तो उभरता ही है...। एकाएक ये तलब उठी कि ये गाड़ी मेरे कमरे में तब्दील हो जाए... ठंडा, अँधेरा-सा कमरा... नए-पुराने, याद आते और भूले हुए, मजाज़ी और हक़ीक़ी सारे दर्द-तकलीफें धुआँ-धुआँ होकर कमरे में बिखर जाए और ऐसे ही दम घुट जाए... इससे बेहतर मौत और क्या हो सकती है...? लेकिन अचानक मौत की याद क्यों आई है...। तीसरा और अंतिम सिग्नल... बस बंद हुआ ही जा रहा था कि हमने गाड़ी को रफ्तार दे डाली। बिना रूके अपनी राह हो लिए... हरिहरन शुरू हो चुके थे, तब तक... खुद को बेहतर है सराबों में भटकता देखूँ/ वरना वो प्यास है मर जाऊँ तो दरिया देखूँ। बस ऐसे ही मौत की याद आई थी। लगा कि सब कुछ एक दिन खत्म हो जाना है, प्रेम-घृणा, अच्छाई-बुराई, सफलता-असफलता, पाप-पुण्य, तेरा-मेरा, खुशी-दुख... रिश्ते-नाते और सारी भौतिकताएँ... एकाएक बड़ी राहत लगी। ठीक वैसे, जैसे एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा... लगा कि बस थोड़ा ही तो सहना है। हालाँकि बहुत बेवकूफाना है, लेकिन बहुत राहत देने वाला था ... एक दिन मैं इस सबसे आजाद हो जाऊँगी, जो आज मुझे तकलीफ दे रहा है... मुक्त... स्वच्छंद...। थोड़ा-सा जाम लगा था... तो जाहिर है कि छठी गज़ल शुरू होनी ही है। आशा का आलाप-सा खत्म हुआ और ... रूदाद-ए-मोहब्बत क्या कहिए/ कुछ याद रही कुछ भूल गए.... सारी उद्विग्नता, बेचैनी, हड़बड़ाहट, चिढ़ और गुस्सा सब कुछ झर गया-सा महसूस हुआ... लगा कि मरने के बाद शायद ऐसी ही मुक्ति का अहसास होगा... :-) हल्कापन हवा में भी महसूस हुआ... घर आ गया था।