Monday 21 September 2009
ब्रूस अल्माइटी और गॉड
तुम्हारे लिए ईश्वर क्या है?
कॉफी के कोको पावडर वाले झाग को चम्मच से सिप करती लड़की से विश्वविद्यालय के कैंटीन में बैठे लड़के ने पूछा।
इस एकाएक पूछ गए प्रश्न ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया। थोड़ी देर सोचने के बाद लड़की ने कहा। --ही इज लाइक पेरेंट टू मी....।
मतलब....?
मतलब जिससे मैं शिकायत कर सकूँ....डिमांड और जिद्द कर सकूँ..... रूठ सकूँ और अपने अभाव बता सकूँ, उन्हे दूर करने की गुजारिश कर सकूँ और अपने दुखड़े कह सकूँ।
बस...?
हाँ।
कॉफी पी चुकने के बाद अपने कप को टेबल पर रखते हुए लड़के ने बहुत सहानुभूति से कहा तुम्हारा ईश्वर तो बहुत बेचारा है। लड़की ने बहुत आहत होकर उसे देखा..... बेचारा क्यों?
बेचारा इसलिए कि तुम और तुम्हारे जैसे अनगिनत लोग उसके साथ वैसा ही कुछ करते होंगे, लेकिन वह बेचारा अपनी पीड़ा किससे कहता होगा?
वह ईश्वर है उसे कोई दुख नहीं होता है।- लड़की ने कप रखकर कुर्सी से उठते हुए कहा।
क्या वह मानवेत्तर है?- लड़के ने उसी गंभीरता से उससे प्रश्न किया।
हाँ वह देवता है।
तो क्या तुम यह कहना चाहती हो कि देवताओं को कोई दुख नहीं होता। दुख वहाँ नहीं होता मैडम, जहाँ कोई मानवीय भावना और संवेदना नहीं होती, और यदि ऐसा होता है तो वह न मानव होता है और न ही देवता.... वह तो.....।-- उसने अपनी बात अधूरी ही रहने दी। फिर कहना शुरू किया कि --- तुम्हारे इंद्र का सिंहासन विश्वामित्र की तपस्या से डगमगाने लगा तो उसने मेनका को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा था। यदि हम ये माने तुम्हारे कथित ईश्वर देवता की श्रेणी के हैं तब भी उनके पास सुख-दुख, गर्व-अहंकार, असुरक्षा और तमाम मानवीय कमजोरी और भावनाएँ होंगी, तो फिर वह दुख से कैसे बच सकता है?
फागुन की शाम दोनों सूर्य के डूबने की दिशा की ओर ही बढ़ रहे थे। लड़की गुम हो गई थी डूबते सूरज की निष्कलुष मासूमियत और उदारता में.....। ये लड़की का सबसे पसंदीदा समय है। अपने सूरज से विदा होते दिन की उदासी के स्वागत के लिए वह अपने कमरे की सारी खिडकियों और दरवाजों को खोल देती है, जिससे धीरे-धीरे उदास साँवलापन उसके कमरे में आश्रय पा सके। फिर धीरे-धीरे घना होता अंधेरा..... उसे अच्छा लगता है, क्योंकि उसमें कुछ भी और नहीं होता......बस खुद के होने का अशरीरी अहसास होता है। न दुनिया और न अहसास-ए-दुनिया.....। रोशनी में भटकाव होता है.... अंधेरे में एकाग्रता। वह किसी से भी इन बातों को नहीं कहती क्योंकि उसे डर है कि तमसो मा ज्योतिर्गमय की संस्कृति में अंधेरे के प्रति इस तरह का दर्शन कहीं उसे उपहास का पात्र न बना दे....।
15 साल बाद
एक 'सी' सिटी में वह लड़की अपने घर के सामने ढेर सारे शॉपिंग बैग संभाले कार से उतरी। उस लड़के ने जो कि अब उसका पति है उससे कहा कि बाकी बचे हुए बैग्स मैं ले आऊँगा, तुम जाओ....। अपने घर के ड्राईँग रूम में सारे शॉपिंग बैग्स फैला कर वह लड़की देख रही है। अचानक वह उदास हो गई... क्यों..... उसे लगा कि इतने सारे बैग्स के बीच वह कुछ छोड़ आई है, कुछ उससे छूट गया है, फिसल गया है..... उसे खुद पर अचरज हुआ.... जीवन में जिस चीज को उसने अभाव माना था, वो सब मिट गए हैं, वह वो सब कुछ कर सकती है, जो वह शुरू से करना चाहती थी.... फिर भी सब कुछ वैसा नहीं है जिसकी उसने कभी कल्पना की थी.... फिर....! वो सब कुछ मृग तृष्णा थी....? लगा कि ईश्वर ने देर से ही सही उसकी सारी इच्छाएँ पूरी की, फिर कहाँ क्या रिक्त रह गया.... अब वह और क्या चाहती है? तभी वह लड़का भी अंदर आ गया और उसने फैले बैग्स के साथ कुछ और बैग्स रख दिए। उस लड़की की तरफ प्यार से देखते हुए पूछा....खुश....! उसने अपनी आँखों में आए आँसूओं को छुपाते हुए हाँ में सिर हिला दिया.... समझीं कि लड़के ने नहीं देखे, लेकिन उसने देख लिए थे, क्या हुआ.... उसने हँसते हुए लड़की के सामने अपनी बाँहें फैला दी.....और लड़की उसके सीने में अपना सिर गड़ाकर सिसकियाँ भर कर रोने लगी.....। वह कार्तिक की शाम थी.... दीपावली अब करीब थी और लड़की ने मन भर शॉपिंग की थी। लड़की समझ नहीं पाई कि वह क्यों रोई.... लड़का शायद जानता था कि वह क्यों रोई...?
टीवी पर ब्रूस अल्माइटी फिल्म आ रही थी। ब्रूस एक टीवी रिपोर्टर है और लगातार अपनी असफलता से दुखी है, उसे नौकरी से निकाल जा चुका है और वह निराश है, तभी उसके पेजर पर एक मैसेज आता है कि उसे यदि नौकरी की जरूरत है तो वह इस पते पर मिले....। वह उस जगह पहुँचता है, एक बड़ी सी बिल्डिंग में जहाँ कोई नहीं और कुछ भी नहीं होता है, वहाँ एक सज्जन सफाई करते हुए मिलते हैं। थोड़ी देर बाद... वे उसे बताते हैं कि वे गॉड है ब्रूस को विश्वास नहीं होता, वे उसे कुछ चमत्कार दिखाते हैं, फिर उसे विश्वास होता है।
गॉड उसे अपनी शक्तियाँ देते हैं और कहते हैं कि इनके उपयोग दूसरों की भलाई के लिए ही करना है। शक्तियाँ मिलते ही ब्रूस के सपनों को पंख लग जाते हैं और वह तमाम ऊलजुलूल हरकतें करने लगता है, लेकिन शक्तियाँ मिलते ही एकाएक उसे बहुत सारी आवाजें भी सुनाई देने लगती है। जब वह फिर से गॉड से मिलता है तो वह उन आवाजों का जिक्र करता है। गॉड बताते हैं कि वे सारी रिक्वेस्ट की आवाजें है। और यह पूरी दुनिया से नहीं बल्कि सिर्फ बफेलो स्टेट के ही लोग है। ब्रूस एक सिस्टम बनाता है, जिसके तहत उसे कम्प्यूटर पर सारी रिक्वेस्ट मिलती है। रिक्वेस्ट इतनी ज्यादा होती है कि ब्रूस के पास पढ़ने का धैर्य भी नहीं होता है, इसलिए वह सभी को यस कर देता है।
लड़की को पहली बार 15 साल पहले लड़के द्वारा कही गई बात का मतलब समझ में आता है। ईश्वर बहुत बेचारा है, क्योंकि उसके उपर कोई नहीं है, वह अपनी परेशानी किसी से शेयर नहीं कर सकता है। उसे एकाएक ईश्वर से सहानुभूति होने लगी....। लड़का पूरी तन्मयता से फिल्म देख रहा है और लड़की उसे देखते हुए सोच रही है कि क्या उसे याद है कि कभी उसने मुझसे कहा था कि तुम्हारा ईश्वर बेचारा है।
Tuesday 15 September 2009
हिंदी दिवसः कसीदा और मर्सिया
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी" href="http://www.chitthajagat.in/?claim=l9j35zexakju&ping=http://amitaneerav.blogspot.com/">चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी" alt="चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी" src="http://www.chitthajagat.in/chavi/chitthajagatping.png" border=0>
हिंदी दिवस की बरसी मना ली, (यूँ बरसी का शाब्दिक अर्थ बरस से जुड़ता है, लेकिन हमारी परंपरा में इसक शब्द का उपयोग शुभ के लिए नहीं किया जाता है... और यहाँ इसका प्रयोग उसी प्रतीकात्मकता के साथ हुआ है।), कुछ ने हिंदी की प्रसार और लगातार उसकी अच्छी स्थिति को लेकर कसीदे पढ़े तो कुछ ने बदहाली के लिए मर्सिया पढ़ा.... कहीं सप्ताह तो कहीं पखवाड़े का आयोजन किया जा रहा है..... किसी ने दिन मना कर ही अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली। इस पूरे समय में हिंदी को लेकर अखबारों में लेख और टीवी पर चर्चाएँ सुनी गई....किसी के अनुसार बाजारीकरण ने हिंदी के प्रसार-प्रचार में बड़ी भूमिका निभाई है तो कोई हिंदी के हिंग्लिश होने से खफ़ा है। कुल मिलाकर हर साल जो होता है, इस बार भी वही हुआ... फिर भी हिंदी की राष्ट्रभाषा के तौर पर क्या हैसियत है, इस पर सवाल उठाया जाना जरूरी है क्योंकि सवाल होंगे तो ही तो जवाब होंगे।
एक तरफ हिंदी को बाजार ने हाथोंहाथ लिया है.... इसलिए नहीं कि बाजार को इसकी वैज्ञानिकता से प्यार है या फिर हमारी राष्ट्रभाषा होने से आस्था थी, यह बाजार की मजबूरी है... उसे अपना माल ग्राहकों की भाषा में ही बेचना पड़ेगा, यह कोई हमारी भाषा से मुरव्व़त का मामला नहीं है।
हाँ मनोरंजन के माध्यमों में हिंदी की पकड़ ने जरूरी थोड़ी बहुत आशा जगाई है, लेकिन असल मामला है रोजगार पाने का.... जो भाषा रोजगार दिलाने में सक्षम है, बस वही जीवित रह पाएगी...इसमें हिंदी अंग्रेजी से बहुत पीछे नजर आती है, हिंदी की जरूरत है, लेकिन एक वैकल्पिक भाषा के तौर पर.... अंग्रेजी की जानकारी जरूरी है। अनुभव कहते हैं कि आप कुछ नहीं जानते और सिर्फ अंग्रेजी जानते हैं तो आपके सामने अवसरों का भंडार है, लेकिन यदि आप बहुत कुछ जानते हो और अंग्रेजी नहीं जानते हो तो आपका कुछ भी जानना बेकार है। हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी के दैनिक अखबार में काम करते हुए भी लगभग हर दिन अंग्रेजी से भिड़ंत होती है, ट्रेनिंग के दौरान हर दिन हिंदी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की मशक्कत यह साबित करती है कि मात्र हिंदी के ज्ञान से ही जीवन की नैया पार नहीं लगाई जा सकती है। इसलिए जरूरत इस बात है कि अब शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही कर दिया जाए.... क्योंकि अब मामला सम्प्रेषण से आगे जाकर जीवन-शैली, रहन-सहन और उससे भी उपर समाज की समता और विषमता तक पहुँच गया है, तभी तो मजदूर भी अपने बच्चे को हिंदी में नहीं पढ़ाना चाहता है, क्योंकि वह यह जानता है कि मात्र हिंदी पढ़कर वह बेहतर जिंदगी नहीं जी पाएगा। इसलिए अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा कम-अस-कम इस विषमता को कुछ तो कम किया जा सकेगा और फिर इसमें ही प्रतिभा का आकलन भी हो पाएगा, फिलहाल तो वो प्रतिभाशाली है जो अंग्रेजी बोल पाता है.... आप यकीन करें या ना करें.....!
हिंदी दिवस की बरसी मना ली, (यूँ बरसी का शाब्दिक अर्थ बरस से जुड़ता है, लेकिन हमारी परंपरा में इसक शब्द का उपयोग शुभ के लिए नहीं किया जाता है... और यहाँ इसका प्रयोग उसी प्रतीकात्मकता के साथ हुआ है।), कुछ ने हिंदी की प्रसार और लगातार उसकी अच्छी स्थिति को लेकर कसीदे पढ़े तो कुछ ने बदहाली के लिए मर्सिया पढ़ा.... कहीं सप्ताह तो कहीं पखवाड़े का आयोजन किया जा रहा है..... किसी ने दिन मना कर ही अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली। इस पूरे समय में हिंदी को लेकर अखबारों में लेख और टीवी पर चर्चाएँ सुनी गई....किसी के अनुसार बाजारीकरण ने हिंदी के प्रसार-प्रचार में बड़ी भूमिका निभाई है तो कोई हिंदी के हिंग्लिश होने से खफ़ा है। कुल मिलाकर हर साल जो होता है, इस बार भी वही हुआ... फिर भी हिंदी की राष्ट्रभाषा के तौर पर क्या हैसियत है, इस पर सवाल उठाया जाना जरूरी है क्योंकि सवाल होंगे तो ही तो जवाब होंगे।
एक तरफ हिंदी को बाजार ने हाथोंहाथ लिया है.... इसलिए नहीं कि बाजार को इसकी वैज्ञानिकता से प्यार है या फिर हमारी राष्ट्रभाषा होने से आस्था थी, यह बाजार की मजबूरी है... उसे अपना माल ग्राहकों की भाषा में ही बेचना पड़ेगा, यह कोई हमारी भाषा से मुरव्व़त का मामला नहीं है।
हाँ मनोरंजन के माध्यमों में हिंदी की पकड़ ने जरूरी थोड़ी बहुत आशा जगाई है, लेकिन असल मामला है रोजगार पाने का.... जो भाषा रोजगार दिलाने में सक्षम है, बस वही जीवित रह पाएगी...इसमें हिंदी अंग्रेजी से बहुत पीछे नजर आती है, हिंदी की जरूरत है, लेकिन एक वैकल्पिक भाषा के तौर पर.... अंग्रेजी की जानकारी जरूरी है। अनुभव कहते हैं कि आप कुछ नहीं जानते और सिर्फ अंग्रेजी जानते हैं तो आपके सामने अवसरों का भंडार है, लेकिन यदि आप बहुत कुछ जानते हो और अंग्रेजी नहीं जानते हो तो आपका कुछ भी जानना बेकार है। हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी के दैनिक अखबार में काम करते हुए भी लगभग हर दिन अंग्रेजी से भिड़ंत होती है, ट्रेनिंग के दौरान हर दिन हिंदी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की मशक्कत यह साबित करती है कि मात्र हिंदी के ज्ञान से ही जीवन की नैया पार नहीं लगाई जा सकती है। इसलिए जरूरत इस बात है कि अब शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही कर दिया जाए.... क्योंकि अब मामला सम्प्रेषण से आगे जाकर जीवन-शैली, रहन-सहन और उससे भी उपर समाज की समता और विषमता तक पहुँच गया है, तभी तो मजदूर भी अपने बच्चे को हिंदी में नहीं पढ़ाना चाहता है, क्योंकि वह यह जानता है कि मात्र हिंदी पढ़कर वह बेहतर जिंदगी नहीं जी पाएगा। इसलिए अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा कम-अस-कम इस विषमता को कुछ तो कम किया जा सकेगा और फिर इसमें ही प्रतिभा का आकलन भी हो पाएगा, फिलहाल तो वो प्रतिभाशाली है जो अंग्रेजी बोल पाता है.... आप यकीन करें या ना करें.....!
Sunday 13 September 2009
खबरों की चिता पर रोटी सेंकते समाचार माध्यम
सूचना क्रांति के इस दौर में समाचार माध्यम संकट से गुजर रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों के सामने ही अस्तित्व बचाने का संकट खड़ा हुआ है। यह संकट पाठक या दर्शक को उतना नहीं दिखता जितना इस उद्योग के कर्ताओं के समक्ष खुलता है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में यह टीआरपी की शक्ल में और प्रिंट में सर्क्यूलेशन की शक्ल में विद्यमान है। और इस संकट ने इसकी गुणात्मकता को बढ़ाने की बजाय कम कर दिया है। आर्थिक उदारवाद का सिद्धांत तो यह कहता है कि प्रतिस्पर्धा से गुणवत्ता बढ़ती है, लेकिन समाचार माध्यमों में इसका ठीक उलटा हो रहा है और उस पर तुर्रा ये कि कहा ये जा रहा है कि पाठक और दर्शक आजकल यही पसंद करते हैं।
इलेक्ट्रॉनिक में 24 घंटे नई खबरें देने का और प्रिंट में ताजी खबरें देने के संकट के बीच प्रिंट में दोहरी मुश्किल है, एक अपनों के ही बीच में प्रतिद्वंद्विता और दूसरा इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से प्रतिस्पर्धा... दोनों ही स्तर पर खुद को स्थापित करना और फिर बनाए रखना एक दुश्कर टास्क बनता जा रहा है। पाठक फिलहाल तो बस न्यूज और व्यूवज का फर्क ही समझता है और यदि आम पाठक की बात करें तो वह तो बेचारा अखबारों की मैनुपिलेटेड दुनिया को ही सच समझता है। इन दिनों चूँकि अखबार ताजा खबरें दे पाने की चुनौतियों से लड़ रहे हैं, ऐसे में न्यूज और व्यूवज के बीच एक और चीज पनपी है जिसे स्टोरी कहते हैं..... अब पाठकों की समझ में यह नहीं आता कि ये स्टोरी क्या बला है, लेकिन हाँ पत्रकार जानता है कि ये स्टोरी क्या कमाल की चीज है। ये स्टोरी एक पत्रकार को फर्श से उठाकर अर्श तक पहुँचा देती है। ये खबर के एंगेल को बदलती है और फिर इसमें उससे जुड़े विशेषज्ञों से कुछ सनसनीखेज जानकारी ली जाती है और तैयार हो जाती है स्टोरी...। न इसके कुछ आगे सोचने की जरूरत है और न ही पीछे.... दरअसल दिनों-दिन समाचार माध्यमों की दुनिया भयावह होती जा रही है, इसमें कोई सोच, कोई जिम्मेदारी, कोई दूरदृष्टि नजर नहीं आती.... गलाकाट स्पर्धा के दौर में यदि नजर आती हो तो मात्र किसी भी तरह से आगे निकलने की हड़बड़ी..... व्यक्तिगत भी और संस्थागत भी.....और इसके लिए आसान और शॉर्टकट है सनसनी फैलाना...... स्वाइन फ्लू के ही मामले को ले लिजिए...., जितने लोग इस बीमारी से अब तक मरे उससे ज्यादा लोग एक दिन में सड़क दुर्घटना में मर जाते हैं....फिर अभी अखबारों और टीवी चैनलों के लिए यह एक ऐसा मुद्दा था, जिसे कई दिनों तक भुनाया गया। फिर अखबारों के लिए इतना ही काफी नहीं था इसमें बर्ड फ्लू और भी न जाने कौन-कौन से फ्लू का तड़का लगाया और तैयार हो गई एक सनसनाती अखबारी रैसिपी....इसके लिए पत्रकार को ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता.... किसी डॉक्टर से इस सिलसिले का एक बयान दो और छाप दो... अखबार में इसके लिए उसे क्रेडिट भी मिलेगा... ना तो वह पत्रकार यह सोचेगा कि इसका इम्पैक्ट क्या होगा और न ही इसके इम्पैक्ट पर चयन प्रक्रिया में विचार किया जाएगा। इसका परिणाम... बीमारी से दहशत.....क्योंकि आज भी दूरदराज का पाठक इस दुनिया से दूर है और वह इसकी सच्चाई पर विश्वास करेगा। स्वाइन फ्लू से पहले मुम्बई हमलों के दौरान भी टीवी चैनलों ने जिस तरह का कवरेज दिखाया था, उसने हमारे इलक्ट्रॉनिक मीडिया की जिम्मेदारी और भूमिका पर सवाल उठाए थे...। सवाल यह है कि इस माध्यम में आए अधकचरी समझ और गैर-गंभीर लोग इसे कितना समृद्ध कर पाएँगें। फिर इस क्षेत्र में आने वाले नौजवानों से बात करें तो समझ में आएगा कि क्यों जर्नलिज्म का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। सारे नए लोग इस क्षेत्र में इसलिए आना चाहते हैं, क्योंकि यहाँ पॉवर है....कॉटेक्टस हैं... ग्लैमर है.... बस.... न इससे ज्यादा की उनको जरूरत है और ही कुछ इससे ज्यादा सोचना है। तो अब इस सबमें खबरें कहाँ है? यहाँ खबरों की चिता है और उसपर सिंकती मीडिया की रोटियाँ है। खबरों से तथ्यपरकता तो न जाने कहाँ चली गई और इसमें आ गया एंगेल..... अभी तक ये बीमारी सिर्फ इतिहास लेखन तक ही सीमित थी अब इसने समाचार माध्यम को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। कभी-कभी तो समझ में नहीं आता कि इस माध्यम में काम करने वाले नए लोग ऑब्जेक्टिवीटी और सब्जेक्टिवीटी में फर्क भी समझते हैं या नहीं?
Monday 7 September 2009
मैंने जो संग तराशा वो खुदा हो बैठा
इन दिनों अखबार में और ई-पेपर में दोनों ही जगह राशिफल देखा जा रहा है...... अस्थिर मानसिक स्थिति में अमूमन यही होता है... इन दिनों भी... यह पता होने के बाद भी कि कभी भी ये सच नहीं हुई..... कम-अस-कम शुभ होने की सूचना तो बिल्कुल भी नहीं.... फिर भी देखी जा रही है..... क्यों? हम खुद से उपर किसी को चाहते हैं .... कि अपनी असफलता, दुख, कमी या अभाव का ठीकरा उसके सिर फोड़ सके.... उसे भाग्य कह लें, ईश्वर कह लें या फिर बहुत वैज्ञानिक होकर परिस्थिति......।
एक बार फिर से भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा सामने है और लगभग तीसरी दफा पढ़ रही हूँ.... हर बार कोई नया अर्थ मिलता है.... इस बार फिर से.... इसी में कहा गया है कि जिस ईश्वर की हम पूजा करते हैं, उसे हमीं ने बनाया है। इसी तरह की बात कामू की किताब रिबेल में पढ़ी थी---The conception of GOD is the only thing for which man can not be forgiven. दरअसल ईश्वर की हमें जरूरत है, इसलिए वह है.... एक बार पहले भी शायद मैंने लिखा था कि जब तक एक भी सवाल जिंदा है ईश्वर का होना जिंदा है....।
इस तरह से हम 'उसके' होने को कम नहीं कर रहे हैं, महत्व को बढ़ा रहे हैं। इसे प्रतीकात्मक तौर पर हम प्रतिमा के निर्माण और फिर उसके विसर्जन से भी समझ सकते हैं। गणपति की प्रतिमा या फिर दुर्गा प्रतिमा का मिट्टी से निर्माण, स्थापना, प्रतिष्ठा और फिर विसर्जन के पीछे वही सच काम करता है जिसे कामू ने शेख सादी के हवाले से कोट किया है, लेकिन क्या इतना ही...? हमें अपनी असफलता के लिए ही नहीं अपनी खुशी के लिए भी ईश्वर के विचार की जरूरत है। क्योंकि उस विचार की धूरी के आसपास ही सब कुछ घूमता है..... आनंद भी....। तभी तो मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा है... जिसके नशे में हैव्स नॉट अपनी सारी दुख तकलीफों को भूल जाता है.... कभी देखें गणपति के जुलूस या नीचली बस्ती में हो रहे नवरात्र उत्सव को.....उन झूमकर नाचते गाते लोगों के शरीर अभावों की चुगली करेंगे लेकिन चेहरों से टपकता उल्लास उस सबको झूठ साबित कर देगा....तो भौतिक चीजें झूठ है और आनंद ही सबसे बड़ा सच है.... एक बार फिर से ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या....? ये शंकर के दर्शन का अति साधारणीकरण हो सकता है, लेकिन हम स्थूल दुनिया के बाशिंदे तो दर्शन को ऐसे ही समझ सकते हैं.... नहीं ये मजाक नहीं है। दरअसल हर कीमत और हर हाल में परमानंद ही सच है... फिर वो प्रार्थना से मिले या फिर शराब से....लेकिन फिर पाप-पुण्य.... अरे भई यही तो चित्रलेखा भी नहीं समझ पाई.... ना श्वेतांक, न विशालदेव और न ही महाप्रभु रत्नांबर तो फिर हम-तुम किस.....?
Tuesday 1 September 2009
जीना इसी का नाम है
फिर से एक मुश्किल दौर... हरदम भागना.... हर पल को पकड़ कर निचोड़ लेने की बेकार और असफल-सी कोशिश... पता नहीं किस बात की जल्दी... कभी-कभी ये किसी मानसिक समस्या का लक्ष्ण लगता है। हर क्षण को अर्थपूर्ण बनाने के चक्कर में लगातार खुद से दूर...। किसी काम को करने से क्या मिलेगा जैसा प्रश्न हमेशा उठता है (नहीं ये मिलना भौतिक नहीं है, इसलिए ज्यादा घबराने की वजह भी नजर नहीं आती)। कुछ भी हल्का-फुल्का नहीं चाहिए... गहरा विचार, गंभीर लेखन, डूबोने वाला संगीत, गहरी नींद....गहरी अनुभूतियों से पगे पल(जबकि अनुभूतियों तक पहुँचने के लिए धीरज की जरूरत होती है। इस तरह की दौड़ तो झड़ी लगी बारिश की तरह है जो होती तो बहुत तेज है, लेकिन जब पानी ठहरता ही नहीं है तो फिर उतरेगा कैसे? गहरे उतरने के लिए तो उसका रिसना जरूरी है, और इसके लिए बादलों का धीमे-धीमे झरना.... फिर...?) हर पल कुछ ना कुछ करना..... सुनना, सोचना, लिखना, पढ़ना, काम करना, नौकरी करना, सोना....लेकिन इन सबमें हम कहाँ है? हम सबकुछ में खो रहे हैं। घड़ी की सुई पकड़े धीरे-धीरे सरक रहे हैं और समय को हाथ से छूटते देख रहे हैं....महसूस नहीं कर पा रहे है, कभी रूककर समय के सरकने और खुद के बहने को महसूस करने की फुर्सत नहीं पाते या ऐसा करना ही नहीं चाहते, क्योंकि कहीं पढ़ा था कि --- इनर हमेशा इन्टॉलरेबल होता है.....। तो क्या खुद से भागकर कुछ पाया जा सकता है? हाँ बहुत कुछ.... बल्कि यूँ कहे कि खुद से भाग कर ही पाया जा सकता है, जो चाहो....यदि याददाश्त ठीक है तो युंग ने कहा था कि दुनिया का सारा सृजन खुद से भागने की प्रक्रिया है, या फिर शायद ये मेरा ही ईजाद किया सूत्र है, लेकिन ये हमेशा सही लगता है। फिर खुद के पास रहने की इस तड़प का क्या मतलब है? क्या ये पलायन है या फिर तमाम अर्थहीनता की तीखी चेतना.... स्थूल और सुक्ष्म दुनिया में बारी-बारी से डूबने-तैरने का दौर.... भौतिकता और आध्यात्मिकता की साझी भूख.... अंदर और बाहर को भरने और जानने के बीच संतुलन को साधने का प्रयास...जिंदा रहने और जीने के बीच की खूबसूरत संगत.....! शायद जीना इसी का नाम है।
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इसी छीजते जाते जीवन में किसी गहरी अनुभूति के पल में फिर से सूत्र के मोती हाथ आए हैं।
# एक ही समय में कई सच होते हैं, जो एक-दूसरे के विपरीत होते हैं।
# रोना भी सृजन करना ही है।
# सौन्दर्य हमेशा दुर्गम होता है।
# जीवन के हर क्षेत्र में चढ़ाव मुश्किल और ढ़लान आसान होती है।
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