Saturday 26 February 2011

आशा-निराशा के बीच मनाली


गहरी ऊहापोह और असमंजस के बाद आखिरकार मनाली जाने की तैयारी हुई। इस बीच वहाँ हिमालय से बर्फबारी की खबरें सुन-सुनकर जाने क्यों दिल बैठ जाता। मौसम के इस रूप से हम वाकिफ़ जो नहीं है, फिर ये सोचकर कि आखिरकार वहाँ भी तो लोग ही बसते हैं, जाने का प्रोग्राम यथावत ही रखा। बुरी आदत है, लेकिन है... तो इसका क्या करें कि ज्यादातर किनारे बैठकर ही लहरों का गुणा-भाग कर लिया जाता है और फिर उतरने का साहस आता है, अब ये अलग बात है कि उतरकर लगता है कि वो सब बेकार था, बेमानी... किनारे बैठकर कोई गणित कभी भी सही नहीं बैठ पाता है, लेकिन दिमाग अपना काम तो करता ही है, हमारी ही तरह उसकी प्रवृत्ति भी तो मजदूरों की-सी है। तो मनाली जाने के लिए की गई सारी तैयारी एक तरफ रह गई... जब वहाँ पहुँचे तो आलम कुछ दूसरा ही था। इससे पहले सुबह जब दिल्ली पहुँचे तो हमें वो धुँधाती और गीली-सीली-सी मिली। तो ये आग़ाज़ है... हमने खुद से कहा।

प्लेन ऑन व्हील
कालका शताब्दी के लक्ज़री कोच में चढ़े तो जैसा कि राजेश ने उपमा दी ‘प्लेन ऑन व्हील’... ठीक वैसा ही पाया। 3 बाय 2के कोच का पूरा लुक ही प्लेन जैसा था। एसी कोच में बड़े-बड़े काँच वाली पारदर्शी खिड़की थी, जिसे खोलने की हमारी मध्यमवर्गीय इच्छा इसलिए पूरी नहीं हो सकी, कि वो फिक्स थी। हर कुर्सी के पीछे एक ट्रे-सी चिपकी थी, जिसे खींच ले तो वह टेबल की तरह स्टैंड का काम देती है। हर कुर्सी पर अखबारों के बंडल पड़ा हुआ था... लेकिन सारे अंग्रेजी... यदि हिंदी पढ़ना है तो अपनी जेब ढीली करनी पड़ेगी, सबसे पहले आई ‘नीर’ पानी की बोतलें... फिर अंग्रेजी ढंग की चाय की ट्रे हाजिर...अरे, ये तो ट्रेन में पहली बार देखा। थोड़ी देर बाद नाश्ता और फिर चाय... यही करते-करते कब चंडीगढ़ पहुँच गए पता ही नहीं चला, लेकिन अब मनाली के लिए बसें रात में मिलेगी।
आशा-निराशा के बीच...
कुल्लु से मनाली के बीच के रास्ते में गंजे पहाड़, गीला मौसम और बस थोड़ी-सी आस जगाती नीचे उतरती, उछलती चलती ब्यास नदी को देखकर हम दोनों ही अपने-आप से सवाल पूछ रहे थे – क्या करने, घर से इतनी दूर आए हैं... ये वीरानी देखने के लिए...? आशा-निराशा की ऊब-डूब के बीच बारिश होने लगी। मनाली, मॉल रोड पर बस रूकी। उतरे और सामान निकालने की जद्दोजहद के बीच बाँह पर जैसे बादल का कोई कतरा उतरा... ओह... ये बर्फ है, हल्की-फुल्की रेशमी... एकदम लगा कि हम भी बर्फ हो रहे हैं। गर्म रहने के अब तक के सारे उपायों की छुट्टी हो गई... जैसे-तैसे रूम में पहुँचे और सीधे रजाई में घुस गए... हे भगवान, यदि ऐसा ही रहा तो हो गया टूर...। थोड़ी देर बाद हिम्मत की... और गरम कपड़े निकाले... उतर आए बर्फ के बीच... लेकिन ठहरिए, कैप के भीतर ‘स्नो’ (कितना मुफ़ीद है ना ये नाम बर्फ की तुलना में और बहुत रूमानी भी...) जब पिघलने लगे तो... तो अब छाते की भी जरूरत है। दस्ताने, कैप और छाते खरीदे... झरते बादल धीरे-धीरे जमीन पर जमने लगे, और लगा कि ये बादल पैरों के रास्ते भीतर चले आएँगें। तलवे और ऊँगलियाँ सुन्न होने लगी, किसी ने कहा – रबर शूज पहनो नहीं तो स्लिप हो जाओगे... रबर शूज खरीदे, तब जाकर लगा कि अब बर्फ में टहल पाएँगें, लेकिन सचमुच प्रकृति जादू जगा रही थी। धीरे-धीरे हर शै का रंग सफेद हो रहा था, कभी निष्कर्ष निकाला था कि – अभाव ही सौंदर्य है... लेकिन फिर समंदर का हरहराता पानी, दूर तक फैली रेत, घने हरे जंगल और अब हर जगह फैली सफेद बर्फ... तो फिर निष्कर्ष निकाला कि – विस्तार का भी अपना सौंदर्य होता है।

धीरे-धीरे पहाड़ों पर ऋषियों की तरह न जाने कितने सालों से तपस्यारत देवदार पर भी बर्फ की सफेदी जमा होने लगी थी। बादल भी पड़ोसी पहाड़ का साथ निभा रहे थे और सूरज को किसी भी सूरत में झाँकने नहीं दे रहे थे। बस सफेद-सी रोशनी थी समय का और कोई निशान बाकी नहीं था।
अगली सुबह जब आँख खुली तो दीवार जितनी बड़ी खिड़की से उस तरफ भूरे-सफेद देवदार से लदे पहाड़ नजर आ रहे थे और कल की तरह सूरज का कोई निशान नहीं था। तो क्या आज फिर...? मतलब मनाली घूमने का सारा प्लान ही चौपट, लेकिन यहाँ ‘स्नोफॉल’ देखने ही तो आए हैं ना...?

क्रमश:

Wednesday 2 February 2011

... और नहीं बच पाए मानसिक प्रदूषण से भी


जैसे हकीकत में दुख और निराशा होती है, वैसे ही काल्पनिक दुख और निराशा भी होती है। अब जैसे एक दुख ये भी है कि आज से लगभग 2300-2400 साल पहले स्थापित प्लेटो की अकादमी में हमारा एडमिशन नहीं हो पाता क्योंकि हमारा गणित में हाथ तंग है। वैसे तो वहाँ एडमिशन के लिए संगीत (इसमें साहित्य भी शामिल है) या दर्शन या गणित में से किसी एक विषय की समझ होना अनिवार्य शर्त थी, औऱ संगीत, साहित्य के साथ-साथ दर्शन भी थोड़ा बहुत तो समझ में आता ही है, लेकिन गणित... वो तो दुखती रग है। तो हुआ ना ये काल्पनिक दुख... फिर सिर्फ गणित में ही क्यों, विज्ञान में भी तो हाथ तंग है। तो जब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे, उसी दौरान सामान्य गणित और सामान्य विज्ञान को पढ़ने की मजबूरी सामने आई थी। उन्हीं दिनों चुनाव, संसद, संविधान, सिद्धांत, इज्म से इतर कुछ पढ़ा गया था, जैसे पर्यावरण और पर्यावरण प्रदूषण... विज्ञान के अनुसार मोटे तौर पर प्रदूषण के चार प्रकार वायु, ध्वनि, मिट्टी और पानी है, ये सब प्राकृतिक जीवन के उलट जीने का परिणाम है, लेकिन पिछले कई दिनों की विचार और अहसास प्रक्रिया से प्रदूषण का एक और प्रकार अन्वेषित किया है, जिसका संबंध अमूर्त विज्ञान से नहीं, बल्कि मनोविज्ञान से है, वो है मानसिक प्रदूषण...।
कहने को एक बार कह गए थे कि – अजीब दौर है ये, यहाँ अच्छाई अविश्वसनीय हो चली है। पता नहीं कैसे ये गफ़लत हो गई थी कि ये दुनिया का सच है, यहाँ अभी ऐसा दौर नहीं आया है, लेकिन जैसा कि होता है, परिवर्तन एक बहुत सुक्ष्म प्रक्रिया है और ये तब महसूस होती है, जब इसके परिणाम आने लगते हैं।
एक प्रकाशक एक विशेष कालखंड में हिंदी साहित्य की प्रकाशित हर विधा की किताबों की समीक्षा की एक पत्रिका निकाल रहे हैं। साहित्य में रूचि होने की वजह से उस पत्रिका की समीक्षा की जिम्मेदारी मिली। मसला ये है कि साहित्यिक समीक्षा के विचार से शुरू से ही असहमति रही है। लगता है, जैसे समीक्षा से किताब के रस की हत्या कर दी जाती है। किताब समीक्षक को कैसी लगी, ये एक अलग मसला है, लेकिन उसकी शैली, कथ्य, भाषा और शिल्प का पोस्टमार्टम यदि गुरुगंभीर साहित्यिक समीक्षक औऱ आलोचक करते हैं तो समीक्षा पढ़ने के बाद अक्सर यूँ लगता है कि इससे बेहतर होता, सीधे किताब ही पढ़ ली जाती। ये ठीक वैसा है जैसे किसी बहुत खूबसूरत गज़ल का विजुवलाइजेशन कर दिया जाए। सुनकर की जा सकने वाली कल्पनाओं की हत्या...(हो सकता है, इसे पुराना विचार करार दिया जाए।) मतलब रेडिमेड कल्पनाएँ। मतलब हमारे अंदर अँकुरित होने वाली कोंपलों पर पाला पड़ गया हो। हाँ पत्रिका की समीक्षा एक अखबारी कर्म है और इसमें ज्यादातर सूचनाएँ ही प्रेषित की जाती है, पोस्टमार्टम जैसी समीक्षा का गंभीर कर्म नहीं किया जाता है तो अखबार के शेड्यूल को साधते हुए अपने काम पर लग गए। जब समीक्षा के लिए पत्रिका को पढ़ना शुरू किया तो ये देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि पत्रिका में सिर्फ अपने ही प्रकाशन-गृह से प्रकाशित किताबों को शामिल नहीं किया गया है, बल्कि हिंदी के लगभग सारे बड़े प्रकाशन-गृहों से प्रकाशित किताबों की समीक्षा को शामिल किया गया है। एकाएक प्रश्न कौंधा... – इससे पत्रिका के प्रकाशक को क्या फायदा है?
इस एक प्रश्न ने हमें ये अहसास दिलाया कि चाहे खुद को बचाने की आपने कितनी ही कोशिशें की हो, लेकिन मानसिक प्रदूषण से फिर भी बचाव नहीं हो पाया है।
मतलब बाजार ने हमें ऐसी नजर दे ही दी है कि बिना नफे-नुकसान के किसी के काम को देख ही नहीं सकते हैं। और जो बहुत सहज मानवीय चीजें हैं, उसे जुनून कह कर सामान्य जीवन से खारिज करने लगे। तो हमें लगा कि दूसरे और तरह के प्रदूषणों की तरह मानसिक प्रदूषण भी सामयिक परिवर्तनों का परिणाम हैं, लेकिन प्रदूषण तो आखिरकार प्रदूषण ही है ना... इसके दुष्परिणाम तो होने ही हुए। तो अब होने ये लगा है कि यदि किसी को प्रचलित इम्प्रेशन से उलट कुछ करता पाते हैं तो अंदर कहीं कुछ भीग जाता है, लेकिन... तुरंत मानसिक प्रदूषण का प्रभाव लहरा जाता है, और उसके कर्म से आगे नीयत के छिलके निकाले जाने लगते हैं... इससे बुरा क्या...? सहज चीजों के प्रति अविश्वास और सकारात्मक ऊर्जा पर अविश्वास का हावी हो जाना... जैसे हम पृथ्वी को वायु और ध्वनि प्रदूषण से नहीं बचा पाए, उसी तरह से हम खुद को मानसिक प्रदूषण से नहीं बचा पाए... यही तो है बाजार का प्रभाव...।