Sunday 31 January 2010

क्या है हम ....?


रविवार की छुट्टी....हाथ पसारे खड़ा खुला-खुला सा दिन... लिहाफ का भला लगने वाला गुनगुनापन...मीठी सरसराती वासंती बयार...खिड़की से उड़कर अंदर आते धूप के कतरे....मखमली-सा अहसास...उन्माद के तूफान के गुज़र जाने के बाद की शांति...पार्श्व में गुलाम अली का गाना...गर्दिश-ए-दौरा का शिकवा था मगर इतना न था....फिर से अहसासों का समंदर लहराने लगा...बस एक ही रात में ये कायापलट....!
कल रात चाँद पृथ्वी के सबसे पास....अमूमन जितना रहता है उससे 50 हजार किमी करीब था (खगोलीय भाषा में पेरिजी)...खूब बड़ा...साफ शफ़्फ़ाक...सफेद और चमकीला चाँद...देखा तो लगा देखते ही रहें.....लेकिन उसके पहले के बेचैनी....ऊब...त्रास और तकलीफ से भरे...बेहद उदास-से वे दिन...क्या है यह सब...? पता नहीं कब का पढ़ा-सुना याद आ गया कि पूरे चाँद की रातों में दुनिया में सबसे ज्यादा आत्महत्याएँ होती है...खुद के अंदर की बेचैनी का सबब कहीं यह चाँद तो नहीं....एक विचार और अब खुद हो गए 'अंडर-ऑब्जर्वेशन'...क्या चाँद का असर है...? ज्योतिषी कहते हैं कि जिसमें भी जल तत्व की प्रधानता होती है...वह चाँद बढ़ने से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता...बिल्कुल ऐसा तो नहीं फिर भी इससे मिलता-जुलता सा ही कुछ मार्सेल या फिर शायद जैस्पर्स ने कहा था (शब्दशः याद नहीं...वो कभी भी नहीं रह पाता है...सिर्फ भाव है) कि इस पूरी सृष्टि में इंसान का होना धूल के एक कण के समान है।
हम खुद से सवाल पूछे कि जब हमारे मन पर, हमारे तन पर, व्यवहार, परिस्थितियों और आखिरकार जीवन पर हमारा नियंत्रण नहीं है तो फिर हम है क्या चीज़....हम क्यों हैं? इस सृष्टि में हमारे होने से क्या बदला है और हमारे नहीं होने से क्या बदल जाएगा...हमारे होने का यहाँ कोई मतलब नहीं है...तो फिर हमारा होना इतना महत्वपूर्ण कैसे हैं? हमारे कर्म, विचार, आचार, सिद्धांत, जीवन, उपलब्धि, असफलता, सुख-दुख, संबंध, भावना, इच्छा, सपने, अनुभव इस सबका मतलब क्या है?
फिर सवाल...सवाल और सवालों का ढेर...। जब हम इस सृष्टि में अंदर और बाहर के न जाने किन-किन तत्वों से प्रभावित, नियंत्रित होते रहते हैं, तो क्या हम खुद को एक इकाई कह सकते हैं...? फिर हम सिर्फ 'हम' बचे भी हैं? और बचे भी है तो कितने...कहाँ....? फिर हमारे 'अहं' का, 'अहंकार' का कोई वजूद है, क्या वजूद होना चाहिए...? क्योंकि हम तो कुछ हैं ही नहीं....हमारा सारा 'अहं' धूल का मात्र एक कण......बस...। एक बार फिर से सोचें हम क्या हैं और यदि 'हम' कुछ भी नहीं है तो फिर क्यों हैं? यहाँ तो सवालों का अंबार है और जवाब.....!
कोई नहीं.......

Tuesday 19 January 2010

हवाओं में महका बसंत


इस बार न तो कोयल कूकी, न बयार बही, न आम बौराया और न ही पलाश दहका....बहुत दबे पाँव बसंत आया...दिन-रात की तीखी खुनक के बीच दोपहर थोड़ी बहुत मुलायम हो रही है। आहट सुनाई पड़ रही है...वह अभी आया तो नहीं ही है, बस कहीं किसी पलाश पर बसंत की छाया दिखती है, बाकी तो बस हरे-कच पत्तों के साथ बसंत की प्रतीक्षा में है। बुधवार को सरस्वती पूजन के साथ ही बसंत उत्सव मनाना शुरू कर देगा। शहरों में तो सिर पर तने आसमान को देखना तक जहाँ एक घटना होती हो, वहाँ पलाश के दहकने को कहाँ ढूँढा जाएँ... फिर भी बसंत का आना एक घटना है। हम चाहे उसे ना देखें, ना महसूस करें, हवाएँ उसका पता देती है। सूरज के आने से सुनहरा होता आसमान...हल्की हवा से उड़ती पीली धूल....डूबते सूरज की किरणों से सतरंगी होता आसमान और रात के खुलते जूड़े में टँके सितारों का झरना...क्या ये सब बसंत का संदेश नहीं है? जब संदेश आ ही गया तो वह कहाँ रूकने वाला है, आएगा ही, चाहे एक-दो दिन इंतजार के बाद आए...आज तो हम बुद्धि, मेधा और सृजन की देवी सरस्वती को मनाए...बेहतर, सुंदर और मंगलकारी दुनिया को रचने का साहस पाएँ.....जिएँ....प्रकृति के आनंदोत्सव को मनाएँ, उसे प्यार करें, उसे बचाए...तभी तो बसंत के आने का.......वर्षा, ग्रीष्म, शरद और शिशिर को पहचान पाने के संकेत पाएँगें...फिलहाल तो सिंदूर-सी सुबह, सरसों की फूलों सी पीली दोपहर, गुड़हल सी लाल-सुर्ख शाम और सुरीली सुरमई रात का स्वागत करें....बसंत को गाएँ, गुनगुनाएँ....मनाएँ...।

Wednesday 13 January 2010

मकर संक्रांति की शुभकामना


माघ का मध्य है...पारंपरिक रूप से सर्दी की विदाई का समय आ पहुँचा है। अब यदि क्लाइमेट चेंज का असर हो तो हो सकता है लगातार सींक होता जा रहा सर्दी का मौसम थोड़ा-सा फैल जाए और होली तक अपने पंडाल को खींच ले जाए.....लेकिन....हमेशा ऐसा नहीं होता है। फिर यदि ऐसा हुआ तो वैज्ञानिक इसे हिमयुग की शुरूआत कहने लगेंगे। जैसा कि दो साल पहले जब जनवरी के तीसरे सप्ताह से शुरू हुई सर्दी फरवरी के अंत तक चली और इसी दौरान पूरे यूरोप में भी भारी बर्फबारी हुई थी। असल में प्रकृति हमारे लिए अभी भी एक बड़ा रहस्य है। तभी तो कभी कहा जाता है कि पृथ्वी गर्म हो रही तो कभी माना जाने लगता है कि हिमयुग की शुरूआत हो रही है।
खैर विज्ञान हमारे विचार का विषय नहीं है। थोड़ी खुनक भरी रात है, आसपास से आ रहे लोहड़ी के खनक भरे उल्लास की ताल है....तो तिल के सिंकने की तेज खुशबू भी.... चाहे हम जानें या न जानें....त्योहार का उल्लास सुबह के मुखड़े पर नजर आ ही जाता है। कल धरती एक नए एंगल से सूरज का सामना करेगी। कल से सूरज कुछ ज्यादा उदात्त होगा... सुबह सुनहरी, दिन रेशमी और शाम सतरंगी होगी....रात थोड़ी सिकुड़ेगी....सूरज उत्तरायण जो होगा....। थोडा़ मौसम भी करवट लेगा....प्रकृति अपना आवरण बदलेगी... शहरों में तो आसमान ही नहीं देखा जाता है, लेकिन कस्बों और गाँवों में मकर संक्रांति पर आसमान के विस्तृत कैनवास पर रंग-बिरंगी पतंगों का मेला सजेगा.... ऊँगलियों की ताल पर पतंगें थाप देंगी। बच्चे पतंगों के लोच के साथ किलकारी मारेंगे...।
मकर संक्रांति हिंदुओं का एकमात्र ऐसा पर्व होगा, जिसका खगोलीय महत्व तो है, लेकिन इससे कोई पौराणिक आख्यान नहीं जुड़ा हुआ है। सूर्य की आराधना का यह पर्व सृष्टि के कल्याण की कामना से मनाया जाता है। यदि हम आस्तिक हैं तब भी और नहीं है तब भी सूर्य के जीवित देवता होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। एक बार फिर से विज्ञान की शरण....क्योंकि यह हमें बताता है कि सृष्टि में एक ऐसा दौर भी रहा है, जिसे हिमयुग कहा जाता है। संक्षेप में ऊर्जा है तभी तो जीवन है....। सूरज हमारे जीवन का आधार है, उसकी धुरी, कारण और केंद्र भी है। सूर्य प्रारंभ है....दिन का...जीवन का....। तो उसकी आराधना के साथ मानव कल्याण की कामना करें...। सभी को मकर संक्रांति, पोंगल, लोहड़ी, संकरात संक्षेप में सूर्य के उत्तरायण होने की शुभकामना....