Wednesday, 23 May 2012

सुविधा में क्या सुख है!

उस सुबह, जबकि थोड़ी फुर्सत थी और मन खुला हुआ, यूँ ही पूछ लिया – क्या तुम्हारे बचपन में संघर्ष थे।
संघर्ष... नहीं... किस तरह के...?
मतलब स्कूल पहुँचने के लिए लंबा चलना पड़ा हो या फिर रोडवेज की बस से स्कूल जाना पड़ा हो या लालटेन की रोशनी में पढ़ना पड़ा हो! – मैंने स्पष्ट किया।
हाँ, जब बच्चे थे, तब रोडवेज की बसों से स्कूल जाया करते थे, बाद में जब बड़े हुए तो साइकल से जाने लगे। लेकिन इसमें संघर्ष कहाँ से आया? ये तो मजेदार था।
तुम्हारा स्कूल कितना दूर था? यही कोई सात-आठ किमी... तो इतनी दूर साइकल चला कर जाते थे। - आखिर मैंने संघर्ष का सूत्र ढूँढ ही लिया।
ऊँ...ह तो क्या? दोस्तों के साथ साइकल चलाते हुए मजे से स्कूल पहुँचते थे और लौटते हुए मस्ती करते, रास्ते में पड़ती नदी में नहाते, बेर, इमली, शहतूत, अमरूद तोड़ते खाते घर लौटते थे। वो तो पूरी मस्ती थी।
तो फिर बचपन के संघर्ष कैसे हुआ करते हैं? – ये सवाल पूछ तो नहीं पाई, लेकिन बस अटक गया।

ननिहाल में जबकि सारे बच्चे गर्मियों में इकट्ठा हुआ करते थे, पानी की बड़ी किल्लत हुआ करती थी। १०-१२ फुट गहरा गड्ढा खोदकर पाइप लाइन खोली जाती, एक व्यक्ति वहाँ से पानी भरता और उपर खड़े व्यक्ति को देता, वो टंकी के आधे रास्ते तक पहुँचाता वहाँ से दूसरा उसे थाम लेता, ओलंपिक की मशाल की तरह, फिर वो उस व्यक्ति के हाथ में थमाता जो जरा हाईटेड टंकी के पास एक स्टूल पर पानी डालने के लिए खड़ा हुआ करता था। हर सुबह जल्दी उठकर पानी भरने के इस यज्ञ में हरेक बच्चा अपनी समिधा देने के लिए तत्पर... इसके उलट माँ के घर पर पाइप यहाँ से वहाँ किया और पानी भर लिया जाता था, जब कुछ किया ही नहीं जाए तो फिर मजा किस चीज में आए...!

पापा बताते रहे हैं, हमेशा से अपने स्कूल के दिनों के बारे में। लाइट नहीं हुआ करती थी, उन दिनों तो या तो कभी रात में स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ते थे या फिर मोमबत्ती या लालटेन की रोशनी में। स्कूल की फीस वैसे तो ज्यादा नहीं थी, लेकिन वो जमा करना भी भारी हुआ करता था सो फीस माफ कराने के लिए चक्कर लगाते थे। कहीं होजयरी की फेक्टरी में जाकर बुनाई कर पैसा कमाते थे।
उन दिनों भी कबड्डी , खो-खो, टेबल-टेनिस खेलते थे, तैराकी करते थे और दोस्तों के साथ सारे मजे करते थे। उनके बचपन के किस्सों को याद करते हुए लगता है कि ये कैसे मान लिया था - कि असुविधा में इंसान खुश नहीं रह सकता है? वे जब बताते थे कि किस तरह वे आधी-आधी रात तक दोस्तों के साथ आवारागर्दी किया करते थे, भाँग खाने के उनके क्या अनुभव थे। कॉलेज के एन्यूएल फंक्शन से लेकर गर्मियों की रातें और दिन में सारा-सारा दिन नदी में तैरना...। बताते हुए कैसे उनकी आँखें चमकती हैं, लगता है जैसे वो कहते हुए अपना बचपन रिकलेक्ट कर रहे हैं। और हम कैसी हसरत से उनके बचपन को विजुवलाइज करते रहते हैं।

.... और हमारा बचपन.... पानी-बिजली की इफरात, कपड़ों की कोई कमी नहीं। फीस की चिंता क्या होती है, पता नहीं। पढ़ने के लिए किताबें तो ठीक, ट्यूशन टीचर तक की व्यवस्था थी (चाहे लक्ष्य किसी की मदद करना रहा हो)। स्कूल सारे पाँच सौ कदमों से लेकर आठ सौ कदम के फासले पर हुआ करते थे। च्च... कोई संघर्ष, कोई अभाव, कोई असुविधा नहीं। कॉलेज तक यही स्थिति बनी रही। हाँ यूनिवर्सिटी जरूर घर से ९-१० किमी दूर थी। शुरुआत में टेम्पो से ही आया-जाया करते थे... याद आता है लौटते हुए अक्सर दोस्तों के साथ ठिलवई करते हुए आधे से ज्यादा रास्ता पैदल ही तय किया जाता था, जब तक कि ज्यादातर दोस्तों के घर आ जाया करते थे, तो क्या वो संघर्ष था!

बाद के सालों में जब कभी बारिश की रातों में बिजली गुल हुआ करती थी, तब जरूरत न होने पर भी मोमबत्ती या फिर लालटेन की रोशनी में पढ़ा करती थी, आज सोचती हूँ क्यों? शायद ये सोचकर कि हम भी अपने बचपन में संघर्ष के कुछ दिन `इंसर्ट` करके देखें। सच में बड़ा अच्छा लगता था, लगता था कि पापा के स्ट्रीट लाइट की रोशनी में पढ़ने के ‘संघर्ष’ में कुछ हिस्सा हमने भी बँटा लिया...। हालाँकि ऐसा कुल जमा ४-६ बार ही हुआ होगा।


अरे हाँ याद आया। एक बार सिंहस्थ के दौरान शहर में पानी की किल्लत हुई… घर में लगे नगरनिगम के नलों से पानी आना बंद हो गया। मोहल्लों के बोरिंगों से कनेक्शन लेकर पानी की सप्लाई की जाती, उसका भी समय तय और परिवार का हरेक सदस्य अपनी-अपनी क्षमता से बर्तन लेकर लाइन में हाजिर... हँसी-ठिठौली करते, कभी-कभी झगड़ते हुए भी पानी लेकर आना, लगता कि कुछ महत्त किया जा रहा है, किया गया। तो फिर बात वही.... क्या असुविधा संघर्ष है! और क्या सुविधा में ही सुख है...!

Sunday, 13 May 2012

.... यहाँ सबके सर पे सलीब है


एक संघर्ष चल रहा है या फिर ... ये चलता ही रहता है, लगातार हम सबके भीतर... मेरे-आपके। इसका कोई सिद्धांत नहीं, कोई असहमति नहीं, कोई समर्थक नहीं, कोई विरोधी नहीं। कोई दोस्त नहीं, कोई दुश्मन भी नहीं। मेरे औऱ मेरे होने के बीच या फिर मेरे चाहने और न कर पाने के बीच। अपने आदर्श और अपने यथार्थ के बीच, बस संघर्ष है, सतत, निःशब्द, गहरा, त्रासद... न जाने कितने युगों से चलता है, चल रहा है, चलेगा। न इसमें कभी कोई जीतेगा और न ही कोई हारेगा। ये युद्ध भी नहीं है, जिसका परिणाम हो, ये बस संघर्ष है, बेवजह, बेसबब, लक्ष्यहीन, इसीलिए इससे निजात नहीं है। ये संघर्ष है आदिम और सभ्य मान्यताओं के बीच, ख्वाहिशों और मर्यादाओं के बीच...। हर मोड़ पर खड़ा होता है, हर वक्त एक चुनौती है, हर वक्त इस संघर्ष से बचा ले जाने का संघर्ष है। यूँ ही-सा एक विचार आता है – ‘हम वस्तु हो जाने के लिए ... एक विशिष्ट ढाँचे में ढ़लने के लिए अभिशप्त है।’ सार्त्र जागते हैं, लेकिन कोई हल वो भी नहीं दे पाते हैं। पता नहीं क्यों लगता तो ये है कि ये संघर्ष हरेक का नसीब है, लेकिन कोई इस तरह लड़ता, लहूलुहान होता नजर नहीं आता...! तो क्या मैं आती हूँ?
क्या कोई ये जान पाता है, कोई कभी ये जान पाएगा कि लगातार हँसते-मुस्कुराते, सँवरते-चमकते से मानवीय ढाँचे के भीतर कोई संग्राम लड़ा जा रहा है, अनंत काल से और लड़ा जाता रहेगा अनंत काल तक...। आप चाहें तो कह सकते हैं, हवा में तलवार घुमाने जैसा कोई जुमला, लेकिन यहाँ तलवार भी कहाँ है। बस एक रणक्षेत्र है और दोनों ओर लहूलुहान होती ईकाईयाँ... भौतिक नहीं है, दिखायी नहीं देती, इसलिए न सहानुभूति है और न ही करूणा। बस अनुभूत होती है, उसे ही जिसके भीतर ये लड़ा जा रहा है। चाहे कोई कितना भी अपना हो, उस पीड़ा तक नहीं पहुँच पाता जो होती है, जो साक्षात टीसती है, रिसती है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि दुख को समझना अलग बात है और दुख को महसूस करना अलग। मेरा दुख मेरा और तुम्हारा दुख, तुम्हारा है। तुम्हारे और मेरे दुख के बीच कोई संवाद नहीं है, कोई पगडंडी नहीं है, कोई सेतु, कोई सिरा नहीं है। तुम्हें मेरे दुख और उससे उत्पन्न दर्द का अंदाजा नहीं हो सकता है, ठीक वैसे ही तुम्हारी पीड़ा की कोई बूँद मुझ तक पहुँच नहीं पाती।
कोई किसी के रण का भागीदार हो भी कैसे सकता है, कोई भी एक वक्त में दो-दो संघर्ष का हिस्सेदार कैसे हो सकता है... उम्मीद भी क्यों हो – मैं किसे कहूँ मेरे साथ चल/ यहाँ सबके सर पे सलीब है।
.... और हरेक को अपनी-अपनी सलीब खुद ही ढोनी पड़ती है :-c