Saturday 7 February 2009

फिर सवालों का जंगल है..




दिमाग के घर में दीवार नहीं है.... इसलिए विचारों का पंछी कभी भी बेधड़क आता और जाता रहता है....मायूसी की बात ये है कि समय और सब्र के वो दरख्त ठुठ हो गए है जिन पर कभी अहसासों के पछियों के घोंसले हुआ करते थे....फिर भी कभी-कभी ये पंछी अपने माजी से रूबरू होने के लिए उदासी की गठरी उठाये चले आते हैं.....आज दोपहर भी वह आकर उसी ठूंठ पर अपनी उदासी की गठरी लिए आ बैठा.....सूरज तप रहा था और वह जोगी की तरह ऑंखें मूंदे तप की मुद्रा में बैठा रहा.... धूप ने उसे स्याह कर दिया था....इस स्याही ने उसकी गठरी बहुत भारी कर दी और वह उसे वहीं छोड़ कर उड़ गया....मतलब उसके अवसाद की गठरी मेरे दिमाग के घर में अब पड़ी हुई है.... वह अपना अवसाद मेरे लिए छोड़ गया है....ये अवसाद छूत की बीमारी है और इसका संक्रमण मुझे भी हो गया....किसी शायर ने क्या खूब लिखा है कि---- ना मिला कर उदास लोगों से/ हुस्न तेरा बिखर ना जाए कहीं.....तो अब ये अवसाद फिलहाल मेरा मेहमान है....यूँ ये बिन बुलाया मेहमान ही रहता है.... अक्सर किसी न किसी बहाने से आ ही जाता है ... इन दिनों फिर से अजीब से सवालों ने आ घेरा है....अपनी गठरी छोड़ कर पंछी तो उड़ गया लेकिन उसमें से अवसाद की केंचुल हमारे हाथ रह गई..... अवसाद दौड़ का हिस्सा होने की.... दौड़ते हुए कण-कण क्षरण होते देखने का....इस अनजानी, अनचाही और अपरिचित दौड़ में कई पड़ाव और मंजिलें है.... और हर पड़ाव पर पहुँच कर यूँ लगता है कि कहीं पीछे कुछ रह गया है.... हर मंजिल पर पहुँच कर एक रिक्तता हमारा इंतजार करती है...भोतिक उपलब्धि कहीं न कहीं हमें खोखला कर देती है ...महत्वाकांक्षा अपनी तरफ़ आकर्षित करती है तो जीवन की प्रयोजनहीनता का विचार अपनी और बकौल ग़ालिब --- ईमां मुझे रोके है तो खीचें है मुझे कुफ्र, काबा मेरे पीछे है कलिसा मेरे आगे.......

3 comments:

  1. Waah !! Bhaavpoorn Kavitamay gadya hai...Sundar abhivyakti.

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  2. galib chhuti sharab per ...........ab bhi kabhi kabhi .....

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  3. rah pakad tu ek chalachal, pa jayega madhushala....

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