Thursday 4 June 2009

मीडिया की भाषा: औदात्य बनाम डगाल

तेज, तीखी गर्मी और झुलसाने.....जलाने वाली गर्मी के बाद भी नम, नाजुक और खुबसूरत फूल जो अहसास जगाते है वह है प्रकृति की उदारता....उसकी उदात्तता का.....बस अपने पेज पर उस फोटो का शीर्षक दे दिया प्रकृति का औदात्य....अगले दिन जब दफ्तर पहुँच कर अपना अखबार देखा तो शीर्षक बदल दिया गया था.....जैसा हमेशा अच्छे शीर्षकों के साथ होता आया है.....साथ ही शाम को शो-कॉज नोटिस की तरह कहा गया कि औदात्य शब्द को पाँच शब्दकोषों में देखा.... कहीं भी वह शब्द नजर नहीं आया आपके पास कहीं हो तो कृपया दिखाएँ.....। लगा पूरा पढ़ा-लिखा दाँव पर लग गया.....यूँ भाषा के मामले में ज्यादा रूढ़ हूँ। कोशिश रहती है कि जहाँ तक हो सके अंग्रेजी के शब्दों से परहेज करूँ....खासतौर पर जब मामला खबरों का हो.....इसलिए यह तय था कि औदात्य कहीं पढ़ा हुआ शब्द है....खैर आखिरकार वह शब्द अपने विस्तृत अर्थ के साथ मिल गया।
उसी दिन एक हार्ड न्यूज में एक शब्द का प्रयोग हुआ डगाल....इससे कुछ दिन पहले हमारे माली ने जो यूपी का है और नितांत खड़ी भाषा बोलता है यह पूछ कर शर्मिंदा कर दिया था कि भाभीजी आपके अखबार में किस तरह की भाषा लिखी जाती है ट्रक के टल्ले से एक की मौत....? ये टल्ले का क्या मतलब होता है? सो उस दिन हम उससे बचते रहे....अब पता नहीं उसने वह खबर पढ़ी नहीं या फिर यह मान लिया हो कि इस अखबार में तो इसी तरह की भाषा इस्तेमाल होती है.... हम शर्मिंदगी से बच गए। इस मामले में जब वरिष्ठों से चर्चा की तो जवाब मिला कि बड़े-बड़े संपादक अपने संपादकीय में बोली के शब्दों का उपयोग करते हैं। सवाल तो उठा कि क्या न्यूज और व्यूवज अलग-अलग नहीं है? खैर आजकल ज्यादा बहस करना बंद कर दिया है इसलिए चुप हो गए.....लेकिन चुप हो जाने से यदि सवाल उठना ही बंद हो जाते तो दुनिया वहीं की वहीं रहती आगे नहीं बढ़ पाती...।
सवाल तो उठा कि आखिर मीडिया की भाषा कैसी हो?
इस देश में जबकि हर 10 किमी पर बोली बदल जाती हो..... वहाँ तो यह सवाल उठना बहुत जरूरी और लाजिमी है। नहीं उठे तो हो आश्चर्य......। फिर जब बोली बदलती है तो तय है कि भाषा में भी देशज शब्दों का प्रवेश होगा। तो फिर किसी ऐसी भाषा की जरूरत और बढ़ जाती है जिसका सम्प्रेषण असीम हो..... क्योंकि बोली की सम्प्रेषणीयता तो ससीम होती है....( अब बवाल तो ससीम शब्द पर भी उठ सकता है, क्योंकि ये बहुत प्रचलित नहीं है, लेकिन यह अखबार नहीं है, इसलिए कोई डर नहीं है)। यह सही है कि चूँकि अखबार का विस्तार साहित्य से ज्यादा है तो इसकी भाषा सरल और आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाली ही हो....लेकिन इसके साथ क्या इसका स्वरूप मानक भाषा का नहीं होना चाहिए?
अब डगाल और टल्ला टाइप शब्द मप्र के मालवा के पठार क्षेत्र की बोली के शब्द है जो इस भौगोलिक भाग के आसपास के हिस्सों की बोली से प्रभावित है....लेकिन इसकी ग्राह्यता मालवी बोली के दो ही क्षेत्रों तक सीमित है....शेष जगहों के लिए अनजान....। तो फिर क्या अखबार और टीवी की भाषा मानक हिंदी नहीं होनी चाहिए?
कहने को तो और भी बहुत कुछ है, लेकिन हम तो समय के प्रति ससीम हैं।

3 comments:

  1. yeh sahi hai ki hum akhabarwale jo likh dete hain sochate hain wahi log chate hain, lekin aisa katai nahi hai. isliye akhabar main reginal aur bol-chal ki bhash hona chiye.

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  2. na pine ka shaur na pilane ka salika ............................ kuch aise bhi log chale aaye hai mayakhane main.......

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  3. na pine ka shaur na pilane ka salika ............................ kuch aise bhi log chale aaye hai mayakhane main.......

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