Tuesday 21 July 2009

लम्हा-दर-लम्हा जीने का मौसम




नींद की चाशनी को आसमान से बरसती बूँदों ने धो दिया... आ खड़े हुए सावन के मंडवे तले। अदरक घुली, भाप उड़ाती गर्म चाय और पार्श्व में बज रही ठुमरी--घिर-घिर आई बदरिया कारी... नहीं यह ना तो किसी कहानी का हिस्सा है और न ही किसी विजुअल का....ये जीने के मौसम का दस्तावेज है। रात के अँधेरेपन में सुबह की सफेदी घुलने लगी थी, लेकिन प्रपोशन थोड़ा गड़बड़ा गया और सुबह उजली होने की बजाय थोड़ी साँवली ही रह गई। फिर तो यह साँवली-सी सुबह घर में मेहमान बन कर आ गई... जिस कोने में भी देखो मौजूद मिली। आसमान से ओस की बूँदों सा सावन बरस रहा है, इस मौसम में छुट्टी लेने का मकसद तो कुछ पढ़ना, कुछ लिखना और कुछ सुनना था, लेकिन छिटपुट कहानी पढ़ने और लिखने के लिए माहौल बनाने के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं पाया।
हाल ही में कहीं पढ़ा था कि या तो आप अच्छा लिख लें या फिर अच्छे से जी लें। अच्छे से जी कर अच्छा लिख भी लें ऐसा संभव नहीं होता है, इस पर बहुत लंबी बहस हुई तो एक सवाल और खड़ा हो गया कि क्या ज्यादा जरूरी है? अच्छा लिखना या फिर अच्छे से जीना.... सवाल थो़ड़ा पेचीदा है, क्योंकि यदि कोई दोनों ही करना चाहे तो....? यदि आपके पास इस सवाल का जवाब है या फिर दूसरी पहेली का हल है तो फिर मुझे दोनों की ही बहुत जरूरत है। फिलहाल तो सावन है, बूँद-दर-बूँद भर रहा जीवन का प्याला है और नहीं है तो कुछ भी नहीं छूटने का मलाल.... तो बस कभी-कभी मौसम का इंतजार जीवन को हरा-भरा करने के लिए भी किया जाता है।
शेष शुभ

2 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर लम्हा होता है सावन की झडी लगी हो तो .......अच्छा जीना ..जरुरी है पर अच्छा लिखना भी सम्भव हो सकता है यह निर्भर करता है कि आपकितना सम्वेदनशील है .......मुझे ऐसा ही लगता है ........ यह भी सही है कि हालत जब ठीक न हो तो इंसान के अन्दर से जो अनुभव निकलता है वह बिल्कुल सत्य और सहज होत्ता है ....... एक अच्छी पोस्ट

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  2. वाह जी एक सवाल में उलझा कर चल दिए

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