Sunday 18 April 2010

मैं ही कश्ती हूँ, मुझीं में है समंदर मेरा




निदा फ़ाज़ली का शेर है
हर घड़ी खुद से उलझना है मुकद्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ, मुझीं में है समंदर मेरा
बस कुछ ऐसे ही हाल है, इन दिनों.... ऊब के साथ अरूचि का संयोग है, न सूफी पसंद आ रहा है, न गज़लें, न शास्त्रीय.... न फिक्शन भा रहा है, न फैक्चुअल... न फिलॉसफी और न ही लिट्रेचर.... न दौड़ना अच्छा लग रहा है न ही रूकना... बैठना.... क्या करें कुछ समझ ही नहीं आ रहा है। कहाँ जाना है, क्यों जाना है और पहुँच कर क्या करना है, ऐसे सवाल फिर से उछल रहे हैं। हर सुबह ऊब के साथ शुरू होती है, हर दिन एक-सा क्यों है? इस सवाल से दिन शुरू होता है, काम के दौरान यह सवाल ओझल तो हो चुका होता है, लेकिन उसके होने का अहसास बना रहता है और फुर्सत पाते ही वह फिर लहराने लगता है। कोई काम करना नहीं भा रहा है। यूँ लगता है दिन बस गुजार रहे हैं। सपनों की मौत हो जाने से शायद ऐसी त्रासद स्थिति बन जाती है। जीवन से अपेक्षा खत्म हो जाए... चाहना स्थगित हो जाए और आकर्षण कहीं गुम हो जाए तो.... यूँ भी गाहे-ब-गाहे सवाल तो उठता ही है, कि जो कुछ है जीते जी ही है, मरने के बाद क्या है? तो फिर बहुत सारा कुछ करने से हासिल क्या है? हमारे बाद यदि महफिल में अफसाने बयां होंगे तो हमारे लिए क्या है?
हमारे होने का मतलब क्या है? हम नहीं हों तो भी इस दुनिया में क्या बदल जाएगा? फिर से वैसे ही सवाल.... उलझाव घना है, और दुनिया के चलते चले जाने पर गहरा आश्चर्य भी.... क्यों है इतनी दौड़.... क्या सवालों की आग यहीं सुलगती है और कहीं नहीं, यदि कहीं और भी सुलगती है तो उसकी लपटें क्यों नहीं दिखती.... ? क्यों नहीं समझ पातें कि ये दुनिया ऐसी और हम वैसे क्यों हैं?
सवाल वही है.... जवाब नहीं है.... होगा, ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं हैं..... बस लेकिन क्या करें कि समझ नहीं पाते हैं। शायद ये थोड़ा मुश्किल है किसी ओर के लिए समझना, क्योंकि
ये अक्ल वाले नहीं एहले दिल समझते हैं
कि क्यूँ शराब से पहले वज़ू जरूरी है

3 comments:

  1. bahut khub

    http://kavyawani.blogspot.com


    shekhar kumawat

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  2. कहीं ये राईटर्स ब्लाक जैसा तो कुछ नहीं है -पर यह सहज है ,होता है कभी कभी ऐसा भी -पास हो जायेगा ..!

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  3. हर घड़ी खुद से उलझना है मुकद्दर मेरा
    मैं ही कश्ती हूँ, मुझीं में है समंदर मेरा
    बहुत ख़ूब....

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