Sunday 13 June 2010

...मुझे ऐ जिंदगी दीवाना कर दे




उस दिन इयरफोन लगे हुए थे। 14 मिनट 21 सेकंड लंबी इस कव्वाली के आखिरी सिरे पर थी--कई-कई वार चढ़ी कोठे ते नी मैं उतरी कई-कई वारी..... न दिल चैन न सबर यकीं नू.... न भूलदी सूरत प्यारी.... आ जा सजणा.... ना जा सजणा ......तू जितीया ते मैं हारी... छेती आजा ढोलणा.... तैनू अखियाँ उड़ीक दिया.....
विरह..... तड़प, समर्पण और बेबसी का चरम..... डूबने की शुरुआत..... उतर जाने के लिए आँखें बंद की, सिर कुर्सी की पुश्त पर टिका दिया...... उस एक क्षण के लिए..... लेकिन तभी पड़ोस में काम कर रहे साथी को किसी ने आवाज दी। उसने तो नहीं सुनी लेकिन यहाँ सुनाई पड़ गई.... क्षण छूट गया, अब भी कानों में वो लंबी सरगम सुनाई पड़ रही थी, लेकिन आँखें खुली हुई थीं और हमारे सामने खुरदुरी हकीकत फैल गई थी। टेबल-कुर्सी, कम्प्यूटर, फोन, आते-जाते, हँसते-बतियाते लोग...... जागृति के सारे लक्षण फिर से साकार हो उठे थे.... घड़ी भर की निजात का ये क्षण भी हाथ से फिसल गया था।
रविवार की छुट्टी..... सुनहरी से साँवली होती जेठ की सुबह.... जमा होती खूब सारी उम्मीदें..... बादल, बारिश, फुहारों का इंतजार। सारा काम जल्दी-जल्दी निबटाया.... डूब जाने के लिए सारी अनुकूलताएँ...... एक क्षण, सादा.... अनायास-सा आता है, लेकिन उसके लिए कितने-कितने जतन करने पड़ते हैं! दोपहर को हमेशा की तरह केट नैप के बाद की चाय.... कप पड़े हुए थे..... बहुत पुरानी उपेक्षित-सी पड़ी सीडी हाथ आई.....सूरदास का भजन जसराजजी की आवाज.... विरह का दर्द....... कुब्जा के रंग में राचि रहे...... राधा संग अइबो छोड़ दिया...... श्रीकृष्णचंद्र ने मथुरा ते गोकुल को अइबो छोड़ दिया...... फिर से डूबने-डूबने के मुहाने पर...... इस बार तो बस डूब ही चुके थे...... सुरदास प्रभु निठुर भए..... सुरदास प्रभु निठुर भए.... हसबो इठलइबो छोड़ दियो......अभी आलाप चल ही रहा था कि वॉशिंग मशीन का बजर बज उठा.... सब खत्म.....। क्यों होता है, ऐसा?
इतने चौकन्नेपन की जरूरत नहीं है? अब बजर बजा है तो बजा है, लेकिन नहीं वो कहीं अटक गया है। अचानक-से याद आ गया – मैं अपने आप से घबरा गया हूँ, मुझे ऐ जिंदगी दीवाना कर दे......और रूलाई फूट गई.....क्योंकि ये तो सिर्फ एक उदाहरण है.... मसलन – कैसेट का अटक जाना, बाथरूम का टपकता नल या फिर जलती लाइट, प्रेसवाले लड़के की या सब्जी वाले की आवाज.... केलैंडर का फड़फड़ाना या फिर तेज हवा में भड़भड़ाते खिड़की-दरवाजे, चाय नाश्ते के जूठे पड़े बर्तन या फिर जूठे पड़े चाय के कपों में चींटी हो जाना...... फेहरिस्त बहुत लंबी है, कुछ भी हो सकता है, लौटा लाने के लिए.... एक सादे-से अनुभव को पाने के लिए कितने सारे षडयंत्र!
संक्षिप्त में यूँ है कि जाग्रतावस्था में खुद को कभी भी खुद से मुक्त नहीं पाया। हमेशा त्वचा की तरह से चिपकी रहती है ये भौतिक चेतना... बस गहरी नींद में ही इससे मुक्ति है, लेकिन मुश्किल ये है कि नींद में इस मुक्ति का अहसास नहीं होता है। इतनी-सारी सतर्कता, इतना सारा चौकन्नापन क्यों है? क्यों नहीं घड़ी-दो-घड़ी खुद को छोड़ पाती.... अपनी चेतना को समेट कर सुला पाती, कि खुद के पास बैठकर देख पाती कि इस चौकन्नेपन से मुक्ति के बाद कैसा लगता है, कि बाहर से बेखबर होकर भीतर के अँधेरे को देखना, पीना, जीना कैसा लगता है? क्यों बाहर इस कदर चेतना में अटका पड़ा रहता कि भीतर मुड़ने-जुड़ने के लिए अनुष्ठान करना पड़ता है, फिर भी सफल हो गए तो ठीक... आखिर तो बाहर को सहते-सहते कभी-कभी इस सबको झटक कर अलग खड़े हो जाने का..... भौतिक स्व से दूर होकर आंतरिक स्व को टोहने का सुख बहुत सुलभ क्यों नहीं है? क्यों भौतिक जगत हमारे बाहर भी पसरा हुआ है और भीतर भी..... क्यों इसी में सब कुछ अटका पड़ा रहता है, क्यों इससे निजात नहीं है? क्या इस बेचैनी और छटपटाहट की वजह भौतिकता, दृश्य जगत का ये असीम विस्तार ही तो नहीं, जो हमें घेरे हुए हैं, बाहर से और भीतर से भी.....?.

1 comment:

  1. भौतिक स्व से दूर होकर आंतरिक स्व को टोहने का सुख बहुत सुलभ क्यों नहीं है? क्यों भौतिक जगत हमारे बाहर भी पसरा हुआ है और भीतर भी...........
    यह प्रश्न है या उत्तर ? ....अच्छी पोस्ट.....

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