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Friday, 16 March 2012

जीवन का रहस्य.... रंग


होली गुजरे चार दिन हो चुके हैं, लेकिन मालवा-निमाड़वासियों का जैसे मन ही नहीं भरता होली के गुलाल-अबीर से, तभी तो चौथे दिन रंगपंचमी मनाते हैं और गुलाबी-हरा-नीला-काला-सुनहरी रंग पोते हुए रंग-बिरंगी होकर पूरी दुनिया को रंगीन करने निकल पड़ते हैं।
जहाँ होली को पूरी शालीनता और सभ्यता से सूखे रंगों के साथ मनाते हैं, वहीं रंगपंचमी पर जैसे साल भर की मस्ती का कैथार्सिस होता है। कोई भी रंग चलेगा... रंगने के लिए भी कोई भी चलेगा और लगाने के लिए भी। मस्ती का आलम यूँ होता है कि बाजार-सड़क तक रंगीन हो जाया करती है। इसी दिन गेर निकालने की परंपरा है... परंपरा क्या है सामूहिक मस्ती का आयोजन है। खूब रंग-गुलाल साथ लिए... बड़ी-बड़ी मिसाइलों से सबपर उड़ाते पूरे माहौल को रंगमय करते चलता बड़ा-सा हुजूम... और इसमें शामिल होते जाते और... और.... और.....।
अपने बचपन में गेर में बनेठी घुमाते बच्चों और युवाओं को देखा करते थे, अब इसका स्वरूप सिर्फ जुलूस की तरह हो चला है। या फिर जैसे रंगों की बारात... हर तरफ रंग, मस्ती, बेखयाली, तरंग, नशा... बस। बेतरतीब रंगों से रंगोली की रचना होती है, और गुजरने के बाद सड़कें उस अनगढ़ रंगोली से जैसे मौसम की मस्ती-मिजाजी का भी पता देती है.... जिस जगह से ये गेर या अब इसे फाग यात्रा नाम दे दिया गया है गुजरती है ऐसा लगता है जैसे पूरी कायनात को रंगने निकली हो...। शामिल होने वाला मस्त देखने वाला भी मस्त... बस ऐसा लगने लगता है कि ये मस्ती ही स्थायी हो जाए, क्योंकि यही तो रहस्य है, सार है... जीने का, जीवन का....।

Friday, 11 November 2011

अभिभूत करते लोग... पार्ट – 1


आजकल मुझे वो चीजें अभिभूत करती है, जो हकीकत में कुछ है ही नहीं। चमचमाती गाड़ियाँ, खूबसूरत कपड़े, महँगे गैजेट्स, चौंधियाती पार्टियाँ, खूबसूरत चेहरे, डुबाता संगीत या फिर गहरी किताबें अभिभूत नहीं करती। करते हैं जमीन से जुड़े लोग, स्वार्थ को दरकिनार कर दूसरों के लिए सुविधा जुटाते, हँसते हुए संघर्ष करते, अपने दुख-दर्द को बहुत करीने से सहेजते-सहते, सीखने के लिए खुले हुए, नया करने के लिए राह बनाते-निकालते लोग, छोटे-छोटे, नाजुक और मासूम-से जैस्चर्स और मीठे-मीठे रिश्ते... कहीं ठहर जाते हैं, भीतर और उस तरह उतरते चले जाते हैं जैसे बारिश की फुहारों का पानी उतरता रहता है जमीन के अंदर.... गहरे.... गहरे और गहरे...। अजीब है, लेकिन है... इन दिनों ऐसा ही कुछ अभिभूत करता है। पिछले कुछ दिनों से कुछ ऐसे ही लोग आसपास से गुजर रहे हैं और जीने का उनका तरीका, परिस्थितियों से लड़ने का साहस और जीवट मेरी यादों की किताब में दर्ज हो रहे हैं, उनके जीवन के गहरे अर्थ खुलते हैं और नया जीवन दर्शन भी मिलता है।
दीपक - वो हमारे घर पुताई करने के लिए आया था। रैक की किताबों को बहुत गौर से देख रहा था। यूँ ही पूछ लिया पढ़ते हो...। उसने बड़ी विनम्रता से नजरें झुकाकर गर्दन हाँ में हिला दी। हमने बड़े आश्चर्य से फिर से अपना सवाल दोहराया – पढ़ते हो?
इस बार उसने बहुत आत्मविश्वास से हमारी आँखों में आँखें डालकर जवाब दिया – हाँ... पढ़ रहा हूँ।
उसके विनम्र आत्मविश्वास ने हमें चौंकाया – कौन-सी क्लास में...?
10 वीं में – उसने जवाब दिया।
कौन से स्कूल में ...?
उसने शहर के एक बड़े प्राइवेट स्कूल का नाम लिया...। हमने अपनी आँखों को थोड़ा फैलाया... – उसकी फीस तो बहुत ज्यादा है।
हाँ...- अबकी उसने आत्मविश्वास से मुस्कुरा कर जवाब दिया – तभी तो छुट्टी-छुट्टी काम करके फीस जमा करता हूँ। पिता मजदूरी करते हैं, वो हमें रोटी देते हैं। फीस की उम्मीद उनसे नहीं की जा सकती है। पढ़ना चाहता हूँ, इसलिए अपनी फीस का इंतजाम मुझे खुद ही करना चाहिए। बस... टुकड़ों-टुकड़ों में थोड़ा-थोड़ा काम करके साल भर में इतना पैसा जमा कर लेता हूँ कि स्कूल की फीस निकल जाए।
तीन दिन उसने बहुत मेहनत और लगन से काम किया। उसके काम का तरीका देखकर महसूस हुआ कि ये काम उसके पढ़ने के जुनून का हिस्सा है और उसके जुनून का इंप्रेशन भी...। वो काम कर जा चुका है, लेकिन जीवन के अनुभवों पर उसका नक्श हमेशा के लिए अंकित हो गया।
लक्ष्मी – पता नहीं कैसे वो हमारी झोली में आ गिरी थी। हरफनमौला... यूँ काम तो करती थी खाना बनाने का, लेकिन जो काम बताओ उसे पूरे उत्साह से अंजाम देती थी। खाना बनाने से लेकर कपड़ों को ठीक करना, छोटा-मोटा सामान खरीद कर ला देना, बालों में मेंहदी लगा देना या फिर मौका-बे-मौका फेशियल ही कर देना। दीपावली की सफाई की कल्पना तो उसके बिना की ही नहीं जा सकती थी। पिता मंडी में हम्माली करते हैं और माँ प्राइवेट स्कूल में खाना बनाती है। वो खाना बनाने का काम इसलिए करती है ताकि पैसा जमा करके ब्यूटीशियन का कोर्स कर सकें। अभी उसका टारगेट पूरा नहीं हुआ था... भागती हुई हमारे यहाँ खाना बनाने आती थी, यहीं से ट्रेनिंग के लिए... शाम को ट्रेनिंग से लौटते हुए घर आकर खाना बनाती थी और फिर अपने घर जाकर खाना बनाती थी। पिछले दिनों बस का इंतजार करते हुए मिली तो बिल्कुल बदली हुई...। धूप से बचने के लिए आँखों पर काला चश्मा था, जींस पर कुर्ता और छाता लेकर खड़ी थी। हमने पहचान कर लिफ्ट दी तो उसने बताया कि जहाँ उसने ट्रेनिंग की वहीं पर नौकरी भी करने लगी है। महीने भर की तनख्वाह के साथ ही हर फेशियल पर कमीशन अलग...। वो खुश है, क्योंकि उसने अपनी राह तलाशी और मंजिल भी पाई है।
यूँ ये लिस्ट बहुत लंबी है, लेकिन फिलहाल इसमें सिर्फ दो ही लोगों को शामिल किया है। जैसे-जैसे लिखती जाऊँगी इसे विस्तार दूँगी। चूँकि हरेक किरदार अपने-आप में एक पूरी कहानी कहता है, इसलिए ये जरूरी नहीं है कि इसे शृंखलाबद्ध तरीके से ही लिखा जाए। इसलिए इस कड़ी में बस इतना ही... अगली कब होगी, कहा नहीं जा सकता...।

Sunday, 17 April 2011

लहरों के हवाले है मन...


हर वक्त का लड़ाई-झगड़ा अच्छा नहीं है। ये सीख हरेक को अपने बचपन में मिलती रही है और यदि आप घर में बड़े हो तो आपको तो इसके साथ ये भी सुनने को मिलेगा कि तुम बड़े हो ना! समझदार हो, वो बच्चा है या बच्ची है उसकी बात सुन लो...। बड़े होने पर कई बार ऐसा होता है कि हम इसके उलट काम करने लगते हैं और कई बार उसी लीक को पकड़कर आगे का जीवन तय करते हैं। कुछ स्वभाव से लड़ाकू हो जाते हैं और कुछ समझदार...। औऱ कुछ ऐसे भी होते हैं, जो समय-समय पर सुविधानुसार बदलते रहते हैं... जैसे हम...। इसे प्रयोग भी कह सकते हैं और सुविधा भी। यूँ हर वक्त समझौतावादी होना या फिर हर वक्त हथियार लेकर लड़ना दोनों ही प्रवृत्ति ठीक नहीं है। मौका देखकर अपनी रणनीति तय करना ही अक्लमंदी मानी जाती है, लेकिन जब मामला अक्ल तक पहुँचने से पहले ही मन पर अटक जाए तो...? मुश्किलें संभाले नहीं संभलती है।
पता नहीं ये ग्रह-नक्षत्रों के परिवर्तन के प्रति मन की संवेदनशीलता है, रोजमर्रा के जीवन के प्रति उदासीनता या फिर लक्ष्यहीनता से पैदा हुई ऊब है। गर्मी के तपते दिनों और बेचैन करती रातों में अंदर भी कुछ उबलता, तपता-तपाता रहता है। जीवन अपनी गति और प्रवाह के साथ सहज है, लेकिन मन नहीं...। कहीं अटका, कहीं भटका, उदास, निराश और हताश, किसी बिंदू पर टिकता नहीं है, इसलिए हल तक हाथ पहुँचे ये हो नहीं सकता... तो फिर...? क्या किया जाए? सहा जाए या फिर लड़ा जाए...?
सवाल ये भी उठता है कि क्यों हर वक्त हथियार तान कर लड़ने के लिए तैयार रहे। कई बार बिना लड़े भी तो मसले हल होते हैं। तो क्या ऐसे ही हथियार डाल दें? लिजिए संघर्ष से संघर्ष करने के तरीके पर ही संघर्ष शुरू हो गया।
अज्ञेय को पढ़ते हुए लगा कि लड़ा जाए... क्योंकि शोधन करने पर ही परिष्कार हो सकता है। लड़ते रहे.... लड़ते रहे.... ना जीत मिली ना हार। संघर्ष घना होता चला गया। बेचैनी बढ़ती रही, अनिश्चय से पैदा होता तनाव भी... कुछ परिणाम नहीं। कब तक ये संघर्ष, कब तक ये बेचैनी और तनाव, जवाब... मौन। बचपन की सीख याद भी आ गई... हर वक्त का लड़ाई-झगड़ा... फिर फायदा भी क्या है?
कहा ना! प्रयोग करने की आदत है या फिर कह लें सनक... टेस्ट चेंज करने लिए ओशो को पढ़ा तो लगा कि कभी-कभी खुद को छोड़ देना भी काम कर सकता है। छोड़ दिया बहने और डूबने के लिए... देख रहे हैं, किनारे खड़े होकर... मरेंगे नहीं ये विश्वास है। उबरेंगे, कुछ लेकर, कुछ नए होकर...।

Thursday, 25 November 2010

कुछ भी तो व्यर्थ नहीं...


कार्तिक की आखिरी शाम... आसमान पर बादलों की हल्की परतों के पीछे चाँद यूँ नजर आ रहा था, जैसे उसने भूरे-सफेद रंग का दुपट्टा डाल रखा हो... फिर हर दिन बादलों, फुहारों और बारिश के बीच निकलता रहा... अगहन में सर्दी की तरफ बढ़ते और सावन-सा आभास देते दिन... अखबार बताते हैं कि ये गुजरात में आए चक्रवात का असर है... देश में कहीं कुछ होता है तो असर हमें महसूस होता है, कभी हिमालय पर गिरी बर्फ से शहर ठिठुरने लगता है तो कभी दक्षिण में आए तूफान से यहाँ बरसात होती है। और इन सबके पीछे भी दुनिया के किसी सुदूर कोने में हुआ कोई प्राकृतिक परिवर्तन होता है, तो क्या पूरी सृष्टि... ये चर-अचर जगत किसी अदृश्य सूत्र, कोई तार... किसी तंतु... या फिर किसी तरंग से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है? होगा ही तभी तो कहाँ क्या घटन-अघटन होता है और उसका असर कहाँ पड़ता दिखाई देता है, चाहे दिखाई दे या न दें... । ये बहुत सुक्ष्म परिवर्तन हैं और लगातार स्थूलता की तरफ बढ़ती हमारी दुनिया इन सुक्ष्म परिवर्तनों को देख तो क्या महसूस भी कर पाएगी... ? ... हम तो रोजमर्रा में हमारे आसपास होते बारीक और बड़े परिवर्तनों के प्रति ही अनजान होते हैं... या फिर उन्हें देखकर अनदेखा कर देते हैं, तो ये सृष्टि की विराटता में घटित होता है, जिसकी एक बूँद का 100 वाँ हिस्सा ही हम तक पहुँचता होगा।
कभी ये फितूर-सा रहा था कि अपने हर कर्म के अर्थ तक पहुँचें... लेकिन फिर वही... अपनी संवेदनाओं, समझ, समय और ज्ञान की सीमा आड़े आ गईं और धीरे-धीरे तेज रफ्तार जिंदगी का हिस्सा होते चले गए। फिर भूल ही गए कि यूँ हर चीज के होने का एक अर्थ है, उद्देश्य है, महत्व है, अब ये अलग बात है कि हमें वो नजर नहीं आता है।
फिर भी प्रवाह का हिस्सा होने के बाद भी जैसा बार-बार महसूस होता है, कि आकंठ डूबने के बाद भी हमारे अंदर कुछ ऐसा होता है, जो खुद को सूखा बचा लेता है.... पाता है तो वो हमें ‘वॉर्न’ करता रहता है कि दुनिया की हर चीज हम देखें ना देखें, महसूस करें ना करें हमें, हमारे जीवन, हमारे कर्म... अनुभव और आखिर में हमारे स्व को प्रभावित करता है... इस दृष्टि से हर साँस, हर घटना, अनुभूति, हर वो इंसान जो हमारे संपर्क में आता है... हमें कुछ सिखाता है... कुछ समझाता है... समृद्ध करता है, चाहे उसका होना... घटना क्षणिक क्यों न दिखता हो, उसकी प्रक्रिया बहुत लंबी और प्रभाव बहुत स्थायी होते हैं।
याद आते हैं... सिलिगुड़ी से दार्जिलिंग की यात्रा में मिले वे कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे... तीन दिन की यात्रा की थकान... सुबह से फिर ट्रेन का सफर... खाने का सामान खत्म और तेज भूख... हर स्टेशन पर खाने जैसे ‘खाने’ की तलाश... नहीं मिलने पर निराशा ... और फिर सामने आई पराँठें-सब्जी को वो प्लेट.... कहीं कौंधा था – इस दुनिया में हमारा लेना-देना स्थायी रहता है, किसी-न-किसी रूप में फिर से हमारे सामने होता है, समय और देश की सीमा के परे... चाहे अगले-पिछले जन्म पर विश्वास न हो, लेकिन ऐसे किसी समय में महसूस होता है, कि ये जो अजनबी हैं, जिनसे हम पहले कभी नहीं मिले... शायद कभी नहीं मिलेंगे, हमारे जीवन में किसी भी रूप में आए हैं तो इसका कोई सूत्र कोई सिरा कहीं न कहीं हमसे जुड़ा है, हमारे जीवन, हमारे अनुभव या फिर हमारे भूत-भविष्य से, न मानें फिर भी अगले-पिछले जन्म से भी जुड़ा हो सकता है... ये अलग बात है कि वो हमें नजर नहीं आता है। तो कहीं कुछ भी होना बेकार नहीं होता, चाहे वो बुरा हो... वो हर अनुभव, सुख-दुख, पीड़ा, घटना, परिवेश, सपने, चाहत, ठोकरें, उपलब्धि हो या फिर कोई इंसान... जो कुछ भी सकारात्मक या नकारात्मक होता है, घटता है... हरेक चीज का एक अर्थ होता है, यदि दुख होता है तो भी और सुख होता है तो भी... हमें समझाता है, बचकर चलना, डूबकर जीना सिखाता है... समृद्ध करता है, वक्ती उत्तेजना या टूटन के बाद भी हम खुद को कदम-दो-कदम आगे की ओर पाते हैं... खासतौर पर दुख... पीड़ा... वेदना.... क्योंकि जैसा कि धर्मवीर भारती ने लिखा है
सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यही पीड़ा, यह कुंठा, ये शामें, ये घड़ियाँ
इनमें से क्या है
जिसका कोई अर्थ नहीं।
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं

Sunday, 10 October 2010

जीवन के प्रवाह की रूकावट है लक्ष्य...!



महाकाल उत्सव के दौरान सोनल मानसिंह के ओड़िसी नृत्य का कार्यक्रम होना था और उसे देखने के लिए छुट्टी माँगी तो सुझाव आया कि -क्यों न कार्यक्रम की रिपोर्टिंग भी आप ही कर लें...!
पत्रकारिता के शुरुआती दिन थे, बाय लाइन का लालच और ग्लैमर दोनों ही था... डेस्क पर काम करने वालों को तो बाय लाइन का यूँ भी चांस नहीं था, तो उत्साह में हाँ कर दी। सावन के महीने में हर सोमवार को शास्त्रीय नृत्य और संगीत की महफिल की दावत महाकाल के दरबार में हुआ करती है। उज्जैन किसी जमाने में ग्वालियर रियासत का हिस्सा रहा, जहाँ सिंधियाओं ने शासन किया तो उत्तर वालों और दक्षिण वालों के महीने के हिसाब से यहाँ 30 दिन का सावन 45 दिन का हो जाता है (यूँ तो हर महीना ही)। तो कम-से-कम 6 सोमवार की दोहरी दावत...। बारिश होने के बीच भी समय पर पहुँच गए। ज्यादा लोग नहीं थे, अब शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम था, लोग ज्यादा होंगे भी कैसे? कार्यक्रम शुरू हुआ तो सारी चेतना संचालक के बोलने पर ठहर गई, आखिर रिपोर्टिंग करनी है तो संगतकारों के नाम, प्रस्तुति का क्रम, ताल, राग सबका ही तो ध्यान रखना है... इसके साथ ही आस-पास पर भी नजर बनाए रखनी है, कोई उल्लेखनीय घटना... कहीं कुछ छूट नहीं जाए...तथ्य... तथ्य... और तथ्य...। दो घंटे लगभग बैठने के बाद भी डूबने का संयोग नहीं बन पाया, फिर बार-बार ध्यान घड़ी की तरफ... रिपोर्ट फाइल करने का समय, रिपोर्ट पहले एडिशन से जो जानी है। आखिर आधा कार्यक्रम छोड़कर ही उठना पड़ा...। जैसे गए थे, वैसे ही सूखे-साखे लौट आए। रिपोर्ट फाइल की... और सब खत्म...।
उसके बाद कई मौके आए रिपोर्टिंग के, लेकिन तौबा कर ली... आनंद और तथ्य दोनों साथ-साथ नहीं साध सकते... जो कर सकते हो, वे करें, यहाँ तो नहीं होने वाला। तब जाना कि जहाँ तथ्य हैं, वहाँ आनंद नहीं, वहाँ डूबना भी संभव नहीं है। ठीक जिंदगी की तरह... ये आज इसलिए याद आ रहा है कि एकाएक एक पत्रिका में ओशो को पढ़ा कि – ‘जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, जिस तरह नदी और हवा के बहने, फूलों के खिलने, सुबह-शाम होने, चाँद-सूरज के निकलने, डूबने, छिप जाने, बादलों के आने-जाने-बरसने के साथ ही दूसरे जीवों के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है, उसी तरह इंसान के जीवन का भी अपना कोई लक्ष्य नहीं है।’
ठीक है कहा जा सकता है कि इंसान इन सबसे अलग है, क्योंकि उसके पास दिमाग है, इसलिए उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन जरा ठहरें... और सोचें... क्या लक्ष्य जीवन के प्रवाह की रूकावट नहीं है। अपने जीवन को एक विशेष दिशा की तरफ ले जाना, उस प्रवाह को प्रभावित करना नहीं है? नहीं इसका ये कतई मतलब नहीं है कि हम कुछ भी नहीं करें... कुछ करने से तो निजात ही नहीं है, करने के लिए अभिशप्त जो ठहरे, लेकिन हम जो कुछ भी करें, उसे डूबकर, आनंद के साथ, शिद्दत से करें... क्षण को जिएँ... ठीक वैसे ही जैसे बिरजू महाराज के कथक को देखा... बिना ये जानें कि ताल क्या थी, संगतकार कौन थे, प्रस्तुति का क्रम क्या था और तोड़े कौन-से सुनाए... क्योंकि आनंद तो इसके बिना ही है, डूबना तो तभी हो सकता है ना, जब कोई सहारा न हो...। कुल मिलाकर यहाँ गीता अपने कर्म के सिद्धांत में खुलती है, हमने तो अभी तक कर्म के सिद्धांत को ऐसे ही जाना है, जो करें, इतनी शिद्दत से करें कि करना ही लक्ष्य हो जाए... मतलब फल की चिंता तक पहुँच ही न पाएँ, भविष्य का बोध ही गुम जाए... बस आज, अभी जो कर रहे हैं, वही रहे...।
इस विचार का एक सिरा फिर से एक प्रश्न से टकराता है – कला जीवन के लिए है या जीवन कला के लिए...? इस पर विचार करना बाकी है...!

Saturday, 14 August 2010

मुट्ठी में बँधे सपनों का सच – 1




थर्ड सेम की क्लासेस शुरु हो चुकी थी। बारिश के ही दिन थे... कैंपस हरे रंग की पृष्ठभूमि पर चटख रंगों से बनी एक बड़ी-सी पैंटिंग-सा खूबसूरत और दिलफरेब नजर आ रहा था। आज का बकरा यूँ तो तय था... सुधीर... वो कल सीधे जेएनयू कैंपस से आया था, आज वो बदला हुआ दिख भी रहा था... लेकिन, उसे बकरा बनाने में मजा नहीं है... बस यही सोचकर कुछ उदासी थी और कुछ खलबली भी... कारण बहुत स्पष्ट था, उस बकरे को हलाल करने में क्या मजा जो अपनी गर्दन खुद ही हमारे छुरे के नीचे रख दें, तो आज इससे काम चलना नहीं था, इससे से न तो समोसे का स्वाद आएगा और न ही कॉफी से ताज़गी मिलेगी (अपना घोषित फंडा था, खुद पेमैंट करेंगे तो चाय और कोई दूसरा पिलाएगा तो कॉफी... चाय उन दिनों 3 रुपए की और कॉफी 5 की मिलती थी) तो हर हाल में किसी दूसरे को ढूँढना होगा। चौकड़ी बेर की झाड़ी के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर अभी इस विचार पर मंथन कर ही रही थी कि दूर तक फैली हुई हरी-हरी घास के बीच की पगडंडी पर नींबू पीले रंग का टी-शर्ट पहने आता प्रभु नजर आ गया। बबली चिल्लाई ... हुर्रे बकरा... नजर गई और सभी के चेहरे खिल गए।
प्रभु के पास आते ही एक से बढ़कर एक तारीफ के शब्द उसे मिलने लगे... ये...!!! नई टी-शर्ट... या बहुत अच्छी लग रही है... या कितना अच्छा रंग पहना है प्रभु... या आज तो जम रहे हो.. उसने भी अपनी झेंपी-सी मुस्कुराहट चमकाई और सफाई दी – इट्स नॉट न्यू...। लहजा वही दक्षिण भारतीय... आय वोर इट ऑन वेलकम पार्टी ऑलरेडी...।
ऊँह... दैट डे वी डिड नॉट नोटिस दिस...।
कैंटीन बंद – चलताऊ हिंदी में उसने संकेत समझने के संकेत देने शुरू कर दिए।
दीप्ति ने कहा नहीं खुल गई है। थोड़ी बहुत खींचतान और नोंकझोंक के बाद बात बन गई... बननी ही थी। हर कोई जानता था कि यदि ये चौकड़ी पीछे पड़ जाएगी तो फिर कोई भी बच नहीं सकता है, तभी प्रोफेसर क्लास में जाते दिखे और सभा विसर्जित हो गई। शीत-युद्ध पढ़ाया जा रहा था, अभी तक हम तो यही समझे बैठे थे कि शीत-युद्ध विचारधारा की लड़ाई है और इसलिए सोवियत संघ और चीन दोनों एक ही खेमे में हैं, लेकिन उस दिन जो चैप्टर पढ़ाया जा रहा था, उसमें सोवियत संघ और चीन के बीच खऱाब रिश्तों पर बात हो रही थी।
जब सुधीर ने प्रोफेसर से सवाल किया कि यहाँ विचारधारा कहाँ हैं? यहाँ तो वर्चस्व और हित का संघर्ष है? तो ऐसा लगा जैसे टॉप गियर में चल रही गाड़ी पर एकाएक ब्रेक लग गया और गियर बदल नहीं पाने से वो खड़ी हो गई। खून का प्रवाह नीचे की ओर होता महसूस हुआ और, एक तीखी जलन नीचे से उपर तक दौड़ गई। इतना सादा सा सवाल सुधीर ने पूछा, हमारे अंदर क्यों नहीं आया? चाहे पूछें या ना पूछें... सवाल तो पैदा होना चाहिए ना! बस सारी केमिस्ट्री का कबाड़ा हो गया। कैंटीन में पहले चाय की ट्रे आई तो बेखुदी इतनी ज्यादा थी कि वो ही कप उठा लिया... रजनी फुसफुसाई भी कि चाय है, लेकिन फ्यूज पूरी तरह से उड़ चुका था। बस ऐसे ही कब और कैसे घर पहुँचे पता नहीं चला। पहुँच कर हर दिन की तरह कमरा बंद कर लिया। दिन अभी सुनहरा था, कब साँवला और फिर सुरमई हो गया पता नहीं चला, जबकि खिड़की से तकिया लगाए, गज़ल पर गज़ल सुनते शब्द और सुर के साथ आँसुओं में अवसाद को धोते रहे थे... खुद को समझाया था, इंसान हो... हो जाता है, हर वक्त इस तरह का तना-खींचापन क्यों? और फिर ये तो कोई बात नहीं ना कि किसी के भी अंदर उठा सवाल तुम्हारे अंदर भी पैदा होना चाहिए... धीरे-धीरे सब गुज़र गया...।