Sunday 5 September 2010

कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण और मौला, मौला, मौला, मेरे मौला


10-12 दिन लंबे चले तनाव के खत्म होने के अगले ही दिन इत्तफाक से कृष्ण जन्माष्टमी की छुट्टी पड़ी, अब अखबार वालों को तो छुट्टी होती नहीं, लेकिन उस तनाव के दौरान की गई भाग-दौड़ के बाद शरीर को तो कम, मन को आराम की तलब ज्यादा महसूस हुई, फिर घर में तो छुट्टी थी ही, सो एक छुट्टी और...। सुबह नींद खुली तो आसपास का बिखरापन, बेतरतीबी नजर आई... सोचा छुट्टी का सदुपयोग किया जाए और लग गए... उसी बिखरेपन से मिली एक नायाब कैसेट... अवसर के अनुकूल वृंदावन... जन्माष्टमी, जसराज जी, वृंदावन और कृष्ण.... कैसेट चल रही थी थोड़ी देर बस ‘होने’ का मन करने लगा, सो काम बीच में छोड़कर आँखें मूँद ली। फिर काफी सारा काम समेट लिया गया था। कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण भोर ही मुख बोलो...कृष्ण, कृष्ण बोलो...। बहुत सारे साल वैष्णवी असहिष्णुता से चिढ़ की वजह से कृष्ण से भी अनबन रही, लेकिन समझदारी की दहलीज पर पहुँचते-पहुँचते जब कृष्ण के चरित्र को बहुत थोड़ा जाना तो उसकी दिव्यता और साधारणता दोनों ने ही आकर्षित किया... लगा कि ये क्षुद्रताएँ तो हमारी हैं, यदि कृष्ण हुए तो वे तो उन सबसे परे हैं... उनका हिंदू धर्म या फिर वैष्णव सम्प्रदाय से सूत भर भी नाता नहीं है, जयवंती तोड़ी का आखिरी हिस्सा कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण का जाप शुरू हो गया था... विज्ञान क्या कहता है पता नहीं, लेकिन आँखें मूँदे हुए महसूस हुआ कि शायद हमारी आत्मा ब्रह्म के गुरुत्वाकर्षण का शिकार हो गई है... तर्क और भावना से अलग, दिखाई देने वाली दुनिया से दूर कहीं ओर हैं और शायद हम हैं ही नहीं... राँझा, राँझा करती आपे राँझा होई... पहली बार हीर के इन शब्दों को परखा.... शायद यही वो पराकाष्ठा है, जिसे हीर ने पाया, वो उसे बनाए रख पाई, हम दुनियादार हैं, तो खट से अलग हो जाएँगें, लेकिन अभी है।
दोपहर के खाने के बाद किसी चैनल पर म्यूजिक का कोई प्रोग्राम देख रहे थे। एक लड़की गा रही थी... मौला, मौला, मौला मेरे मौला... दरारें-दरारें है माथे पे मौला, मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला... मेरे मौला.... दलेर मेंहदी जो जज थे उठ कर आए और तान मिलाई... फिर से मौला, मौला, मौला का वैसा ही जाप... फिर से वही अनुभव...।
लगा नहीं कि मौला और कृष्ण के जाप का कोई अलग-अलग असर होता होगा...? कोई भी जाप करो... असर एक-सा ही होता है, तो फिर ये जो झगड़े हैं, वो क्या हैं? नहीं ये सहिष्णुता का गान नहीं है, ये महज एक जिज्ञासा है... क्या ये असर संगीत का है? इसका जवाब धर्म के पास तो खैर है ही नहीं... जवाब या तो अध्यात्म दे सकता है या फिर विज्ञान...।

4 comments:

  1. कल इसे पढ़ा था और कमेन्ट भी किया लेकिन कुछ गड़बड़ हो गयी और कमेन्ट कहीं खो गया.

    हम जैसे छद्म-नास्तिक तो जहाँ सत्य और सौंदर्य देखते हैं वहां सर झुका देते हैं. क्या कृष्ण, क्या मौला - जिसके कारण दुःख बिसरें वही हमारा खुदा.

    और धर्म, आध्यात्म, और विज्ञानं से क्या जवाब मांगें. पचड़ों से जितना दूर रहें उतना ही अच्छा. यही कारण है की मैं अपने ब्लौग पर गंभीर तत्वचिंतन के फेर में नहीं पड़ता. उसके लिए पंडितों के ब्लौग काफी हैं.

    अब आपके ब्लौग की पुरानी पोस्टें भी पढता चलूँ. आभार इस पोस्ट के लिए.

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  2. आपकी पुरानी पोस्ट्स भी पढ्ता रहा हूँ और बज़ पर शेयर भी किया था..

    आपका लिखा अच्छा लगता है..

    इस पोस्ट के लिये सिर्फ़ ये स्माईली :).. कनक्लूड भी आपने ही कर दिया है..

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