Sunday 7 November 2010

रात की स्याहियों के हैं गहरे संदर्भ


किसी भी हालत में सुबह जल्दी उठने का संकल्प था, तो निभाना भी था। सुबह जब साढ़े छः बजे जगाए गए तो पलकों में इतनी सारी नींद थी कि वे खुलने को भी तैयार नहीं थीं... फिर भी कभी-कभी ही ऐसी मौज आती है तो उठना ही ठहरा। जब घर से बाहर निकले तो गली में रात के जले-अधजले पटाखों में से अपने लिए खुशी के कुछ क़तरे ढूँढते गरीब बच्चे नजर आए....। फिर दिवाली के प्रसाद की माँग करते दरवाजे-दरवाजे भटकते बच्चे और उनके माता-पिता दिखे.... दिखे, क्योंकि और कुछ नजरों के सामने था ही नहीं.... सारी चकाचौंध गुल हो चुकी है। दीपावली की रात चाँद की शीतलता को चुनौती देती रंगीन चौंधियाती रोशनी थी... और अगली ही सुनहरी सुबह इतना गहन अँधेरा... रोशनी का कारवाँ गुजर गया गुब़ार बचा हुआ है... खुमार उतरा है और उतार का दौर है... उन्माद के बैठते ही रोशनी का मुलम्मा उतर चुका था और जिंदगी अपनी कालिख के साथ मौजूद नजर आईं... ये कालिख पहले भी थीं, लेकिन उन्माद में दिखाई नहीं दी या फिर देख कर भी अनदेखा कर दिया... आखिर हम रोशनी... जगमग... और चकाचौंध की तरफ ही तो देखते, दौड़ते हैं और इसी की चाहत करते हैं।
क्यों नहीं... आखिर रोशनी से हमें सब तरह की सुविधा मुहैया जो होती है, तभी तो इसका गुणगान हमें मुफीद होता है, लेकिन अँधेरा...(!) अँधेरा... मतलब असुविधा... वो सब कुछ अँधेरे में समाहित है, जो प्राकृत है, दुख, पीड़ा, वेदना, त्रास, निराशा, अभाव... जिसे हम जीवन की नकारात्मकता कहते हैं, सब कुछ अँधेरे का हिस्सा है। और जाहिर है हम इसी से बचना चाहते हैं, क्योंकि अँधेरा हमें भागने की सहूलियत नहीं देता... बिजली गुल हो जाने के बाद कितनी बेचैनी होती है... क्योंकि वो हमसे दृश्य जगत की सारी सुविधा छिन लेता है... बँटने, भागने और बचने के सारे विकल्प, सारी सुविधा हमसे ले लेता है। हमें अपने अंदर के दलदल के साथ अकेला छोड़ देता है, वो हमें अंदर-बाहर के नर्क और कीच को सहने, देखने और भोगने को मजबूर करता है, भाग पाने के सारे रास्ते बंद कर देता है इसलिए वो क्रूर है।
हम रोशनी की तरफ भागते हैं... हम भागना चाहते हैं, सहना नहीं... जरा-मरा अँधेरा हुआ नहीं कि दीपावली की तरह जगर-मगर रोशनी कर डालते हैं। अँधेरे से बचते हैं, बचना चाहते हैं, उसे ‘अवाइड’ करना चाहते हैं, क्योंकि अँधेरा पलायन के रास्ते बंद कर देता है, और पलायन हमें सुरक्षा का अहसास देता है, लेकिन अँधेरे में तो सहना ही होता है, बस....। जबकि हकीकत में अँधेरा सृष्टि का पहला और अंतिम सत्य है... सृष्टि के पहले का सच है... ये अँधकार ... हर दिन सूरज निकलने और डूबने की कवायद करता है.... अँधेरा नहीं.... क्योंकि ये कहीं जाता ही नहीं है, वो तो बस होता है.... हम चाहे या न चाहे.... सूरज बस उसे छुपा देने का ‘पराक्रम’ ही कर पाता है, उससे ज्यादा करने की उसकी कुव्वत नहीं होती है। अंतरिक्ष और गर्भ का अँधेरा क्या कुछ नहीं कहता हैं…? दरअसल सृजन का क्रम और स्रोत अँधेरा ही है ... बिना पीड़ा और दुख के किसी भी तरह का सृजन संभव नहीं है... फिर भी हम अँधेरे से डरते हैं। तो जब हम अँधेरे से भागते हैं तो इसका मतलब है कि हम दुख, तकलीफ और पीड़ा से बचना चाहते हैं और प्रकारांतर से सृजन से बचते हैं, रोशनी से बचने और भागने की कोशिश करते हैं, जबकि बिना अँधेरे को भोगे न तो हमें उजाले का मतलब समझ में आएगा और न ही उसकी कद्र ही होगी... ठीक वैसे ही जैसे बिना भूख तृप्ति का मतलब समझ नहीं आता....।

2 comments:

  1. .....awesome....अदभुत.....बेमिसाल...

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  2. हम रोशनी की तरफ भागते हैं... हम भागना चाहते हैं, सहना नहीं... जरा-मरा अँधेरा हुआ नहीं कि दीपावली की तरह जगर-मगर रोशनी कर डालते हैं। अँधेरे से बचते हैं, बचना चाहते हैं, उसे ‘अवाइड’ करना चाहते हैं, क्योंकि अँधेरा पलायन के रास्ते बंद कर देता है, और पलायन हमें सुरक्षा का अहसास देता है, लेकिन अँधेरे में तो सहना ही होता है, बस....।
    beautiful ,perfect & intence sxpretion .....CONGRATS.....

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