Saturday 30 May 2009

बिखरे-बिसरे लम्हों के सूत्र

कच्चे-पक्के से मूड के बीच आई अनचाही छुट्टी.... तेज गर्मी के दौर में बस मानसून का इंतजार चल रहा है। आसपास जब भी फुर्सत भरी नजरें फेंको तो प्रकृति उत्सव की तैयारी करती नजर आती है। आँगन का नीम कुरावन के दुसरे दौर की हवाओं में झूम रहा है। दो दिन पहले बित्ते भर का फुटबॉल लिली का खूँटा आज तनकर आँखें दिखाने लगा..... अशोक पर तरह-तरह के परिंदे आने जाने लगे हैं....इंतजार तो यहाँ भी है उस उल्लास का जो प्रकृति के औदार्य और औदात्य के उत्सव से महकेगा.... लेकिन फिलहाल तो रोहिणी की तपन अंदर भी है बाहर भी....। एक अनाकार, अ-लक्ष्य और अनाम-सी बेचैनी..... एक छटपटाहट..... कुछ नहीं कर पाने और कुछ नहीं 'हो' पाने की.... यूँ ये होना बाहरी नहीं है.... लेकिन... शायद इस बेचैनी का सार ही इससे उबरने की कोशिश में निहित है। सो समय का उपयोग अपने बाहर के बिखराव को समेटने में क्यों नहीं किया जाए? बस यही सोचकर सतह पर दिखने वाली अस्त-व्यस्तता को समेटने की कोशिश करने लगी... क्योंकि गहरे में जाकर समेटना यानी कई दिनों की कवायद को न्योतना.... इसी में मेरे हाथ उस दौर की डायरी लगी..... जब सारे आदर्श आकर्षित करते थे.... उनमें कई सारे सूत्र मिले कई तो नितांत व्यक्तिगत और बहुत सारे व्यवहारिक.....कुछ बहुत भावुक और कुछ खालिस बुद्धिजन्य......। बस यूँ ही उन्हें संभालने के उद्देश्य से यहाँ दर्ज कर रही हूँ।
कमियाँ ही जिंदा रखती है, पूरापन मार देता है, एक आसान और सुखद मौत

यदि भलाई करना आपकी मजबूरी है तो ही आप भले आदमी हैं

संस्कारों और विचारों के द्वंद्व से जो कुछ निकलता है वही आधुनिकता है

पैदल चलने से आत्मविश्वास बढ़ता है

किसी से खुशी बाँटने से हम उसे करीब महसूस करते हैं, और दुख हम उसी से बाँटते हैं जो हमारे करीब होता है

और ये सूत्र हाल ही का है
सफलता से इतिहास उपजता है और संघर्ष से साहित्य
आपके अनुभव इससे मिलते-जुलते नहीं है?

4 comments:

  1. Schmuch bahut hi sundar jeevan ki safalta ke liye labhprad sootra hain ye...

    Bahut achchha laga padhkar.

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  2. संस्कारों और विचारों के द्वंद्व से जो कुछ निकलता है वही आधुनिकता है

    यह ब्‍लाग उसका उदाहरण है ।



    आभार

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  3. bahut had tak sahi

    aapki antim panktiyaan bahut bahut achchhi lagi

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  4. बहुत सुन्दर . आपकी पोस्ट की चर्चा समयचक्र में

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