Monday 21 June 2010

देह की नागफ़नी, नागफ़नी की देह


संघर्ष घना है, हमेशा की तरह। लेकिन इस बार उसका रूप बिल्कुल ही नया है। कहाँ से आ गया ये सब.... ये सब तो कहीं था ही नहीं। कहाँ तो विदेह हो जाने की तीखी आकांक्षा और अब ये दैहिकता की अंकुरित होती चेतना, दो सिरे। अपने होने का खास लगना, बहुत सारी आँखों में चिह्नित होते खुद को देखने का सुख और उस सुख से उपजा दुख। न दुख अपना न सुख.... फिर भी दोनों अपने। ये बीज इस मिट्टी में कहाँ से आया? ये जमीन तक इसके लिए अनुकूल नहीं थी और ये कब अंकुरित हुआ? चलो अंकुरित हुआ होता तो समझ में आता, लेकिन ये तो बीहड़ झाड़ी हो चली है। अब इसे उखाड़ने का दुरुह कार्य... लहूलुहान होना ही ठहरा..... । ये देह की नागफ़नी कहाँ से और कैसे आ गई? ये बिल्कुल अपरिचित झाड़ी..... कैसे उग आई...? और अब उग आई है तो इसका क्या किया जाए...... ? इसे यूँ ही पनपते रहने तो नहीं दिया जा सकता है ना.... ? यही संघर्ष है... नया तो नहीं है.... हाँ ऐसा कभी रहा नहीं.... अपनी भौतिकता के प्रति हमेशा की उदासीनता कहीं गुम हो गई और एकाएक लगाव पैदा हो गया..... और इस लगाव से उपजा है संघर्ष..... हमेशा तो वैचारिकता का ही वैचारिकता से द्वंद्व रहा करता था, लेकिन इस बार ये बिल्कुल नया है। हमेशा ही कहा जाता है कि जो होती हूँ, वही नहीं होना चाहती हूँ। खुद का अतिक्रमण करने की चुभती चाह....। बस यही अस्वाभाविक ख़्वाहिश है। अपने होने को हमेशा लाँघ जाने की चाह और उसके लिए इतने ही दुर्गम उपाय.... उस सबसे दूर जो स्वाभाविक होता है, उस सबकी ओर जो कृत्रिम होता है, यही चाह है, यही संघर्ष और यही त्रास। जो सहज होता है, उसी से बचना... ।
अपना भौतिक स्व इतना गहरा कैसे हो गया? वो इतना आँखों में खटकने कैसे लगा? अपना आत्मिक स्व कहाँ बिला गया, इस सबमें... और क्यों वो मुझसे अलग हो गया? क्या वाकई अलग हो गया? यदि हो जाता तो हो सकता है कि ये संघर्ष नहीं होता, लेकिन वो भी है। फिर वही होना और होना चाहना के बीच का तनाव...। ये कैक्टस की चुभती सी देह कहीं आँखों में अटकती है.... तो फिर देह का कैक्टस लहूलुहान किए हुए हैं। संघर्ष सघन है ..... कारण विरल.....।

2 comments:

  1. ...कहते हैं नास्तिक जब आस्तिक होता है तो पत्थर-पत्थर पूजता है....

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  2. अपनी भौतिकता के प्रति हमेशा की उदासीनता कहीं गुम हो गई और एकाएक लगाव पैदा हो गया..... sign of aging !

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