Friday 18 March 2011

अरे ! होली के दिन( ही )क्यों पानी बचाएं ….



मीठी-सी खुनक वाली उमंग भरी सुबह थी, चाय का कप और अखबार...। हर सुबह जैसा ही क्रम..., अखबारों में खबरों का स्वरूप भी हर दिन जैसा ही था, लेकिन मन जैसे कुछ और चाह रहा था, तभी तो अखबार पढ़ते-पढ़ते मन में एकाएक गहरी निराशा भर गई। विकीलिक्स के खुलासे, बाचा की मौत का गहराता रहस्य, शहर में अफरा-तफरी, जापान में प्राकृतिक के बाद अब परमाणु आपदा... जो भी पढ़ा सब कुछ नकारात्मक। यूँ ये हर दिन ही होता है, लेकिन किसी दिन यदि मन कुछ उड़ना चाहे, कुछ अच्छा जानना-पढ़ना चाहे तो... तो आज कुछ ऐसा ही हुआ था।
तो अखबारों को एक तरफ सरका दिया और घड़ी के अनुशासन को अनदेखा कर अपनी खिड़की से दिखती दुनिया पर तेजी से नजरें घुमाने लगे...। जितनी चंचलता से मन, उतनी ही गति से आँखें...। विचारों का तेज प्रवाह था और कहीं कोई बंधन नहीं था, गोया कि होली हो... तभी तो लौट कर फिर अखबार की खबरों पर ठहर गए। होली की पृष्ठभूमि में हमारे इलाके के अखबार अभियान चला रहे हैं, पानी बचाओ...। अपने अभियान की गंभीरता को चमकाने के लिए वो दुनिया में पानी की कमी से जुड़ी सूचनाएँ, लेख, चल रही योजनाएँ और आँकड़ों का प्रकाशन कर रहे हैं, औऱ भविष्य की एक भयावह तस्वीर पेश कर रहे हैं, जैसे कि एक होली के दिन यदि पानी का उपयोग किया तो धरती जलविहीन हो जाएगी, अखबारों के सारे प्रयासों, विश्लेषणों और अनुमानों से तो ऐसा लगा कि बस अभी धरती जल जाएगी।
प्रकृति तो होली की तैयारी करती लग रही है। मौसम की खुनक कुछ कम हुई है, चटख रंग के फूल खिलने लगे हैं, पलाश के सिरे दहक रहे हैं, आम पर बौर और नीम पर निंबोली महकने लगी है। बाजार में भी हर तरफ रंग नजर आ रहे है। होलिका और प्रह्लाद के प्रसंग की पृष्ठभूमि में भी होली की कल्पना बस वसंत की विदाई और रबी की फसल पकने की खुशी की अभिव्यक्ति ही लगती है। कारण स्पष्ट है कि नेकी-बदी के इतने गंभीर आख्यान के बाद मस्ती और रंग का समीकरण बड़ा बेमेल-सा लगता है, कुछ जोड़ा हुआ सा... मतलब होलिका दहन अलग और रंगों का त्योहार अलग...।
हो सकता है होली के पीछे और भी कोई पौराणिक आख्यान हो, यूँ कृष्ण का होली से करीबी रिश्ता है और सच पूछो तो उन्हीं का हो सकता है, लोक-गीतों में तो राम से भी है, अब ये अलग बात है कि राम की इमेज हुरियारों के आसपास भी नहीं फटकती है। ऐसा लगता है कि होली की कल्पना किसी मनोवैज्ञानिक ने की होगी। वो यकीनन ट्रेंड मनोवैज्ञानिक तो नहीं ही रहा होगा, लेकिन उसे मानव मन की गहरी समझ होगी, थोड़ा उतर कर सोचो तो लगता है कि होली का मतलब है मस्ती... उमंग, उल्लास... साल भर में एक दिन ‘खालिस’ हो जाने की सुविधा... स्वतंत्रता...। थोड़ा आगे चले तो बेलौस और (माफ किजिए) गैर जिम्मेदार होने की सहूलियत...। साल में एक दिन सारे बंधनों को तोड़कर निर्बंध होने की आजादी, अपने अंदर की विकृति को निकाल फेंकने... व्यक्त करने का दिन... बहा देने की घड़ी (अब चाहे इस पर लेक्चर चलते रहे कि होली को शालीनता से मनाए, लेकिन कहीं न कहीं होली के पीछे यही मनोविज्ञान काम करता है।) तो अब यदि होली में मस्ती नहीं हो लापरवाही नहीं हो तो फिर उत्सव का मतलब ही क्या है? मतलब कि एक होली के लिए ही पानी बचाओ का नारा, बड़ा बेतुका और कृत्रिम-सा लगा... ।
पानी की कीमत करना बच्चों को घुट्टी में पिलाया जाना चाहिए, इसके लिए किसी होली या गर्मी में पानी की किल्लत का मोहताज होने की कतई जरूरत नहीं है। तभी तो बच्चे समझ पाएँगे कि ये समय और जीवन से भी कीमती है, क्योंकि पानी है तो ही जीवन है और जीवन है तो हमारे लिए समय का अस्तित्व...। अरे, अभियान तो ये चलाया जाए कि पानी की कीमत सिर्फ गर्मियों में या उस वक्त ही नहीं समझें जिस वक्त कमी हो, पानी का मूल्य तब ज्यादा समझें जब इफ़रात हो।
तो फिर... होली? अरे... होली मनाए जमकर, लेकिन खुद से एक वादा करें कि पानी को धन से भी ज्यादा किफायत से खर्च करेंगे, सिर्फ तभी नहीं, जब पानी की समस्या हो, तब भी जब अथाह पानी हो।
सभी को होली की शुभकामना

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